मंगलवार, 30 नवंबर 2010

मराठी भाषा की फिल्मों को दिखाने और अखबारों को रखने के अलावा इस भाषा में अनाउंसमेंट

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ( MNS ) ने जेट एयरवेज़ से कहा कि मुंबई से ऑपरेट होने वाली फ्लाइट्स में मराठी भाषा की फिल्मों को दिखाने और अखबारों को रखने के अलावा इस भाषा में अनाउंसमेंट भी की जाए। एमएनएस के विधायक नितिन सरदेसाई ने जेट एयरवेज के सीईओ को एक चिट्ठी में लिखा है, ' हमारी मांग है कि आपको मराठी में अनाउंसमेंट शुरू करनी चाहिए। मुंबई से जाने वाली फ्लाइट्स में मराठी फिल्मों को दिखाया जाए और मराठी अखबार रखे जाएं। ' सरदेसाई ने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि जेट एयरवेज़ इसका ख्याल नहीं रखती तो उन्हें विकल्प का पता होना चाहिए। सरदेसाई ने कहा कि हाल ही में मुंबई से लंदन की जेट की एक उड़ान में उन्होंने देखा कि हिंदी के साथ ही तमिल, मलयालम और गुजराती में फिल्में दिखाई जा रही हैं। उन्होंने कहा, ' कंपनी का मुख्यालय मुंबई में है। आपको पता है कि आपकी एयरलाइन से लाखों मराठी लोग यात्रा करते हैं। इसके बावजूद आप उनकी सुविधाओं के प्रति उदासीनता दिखाते हैं। '

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

स्व. श्री बाबूराव विष्णु पराडकर जी के 125वीं जयंती को देश भर में जीवंत करने का प्रयास

भारतीय पत्रकारिता की अलख जगाने वाले ख्याति लब्ध पत्रकार स्व. श्री बाबूराव विष्णु पराडकर जी के 125वीं जयंती को देश भर में जीवंत करने का प्रयास किया गया है। इसी कड़ी में उनकी जयंती के सवा सौ साल पूरा होने पर मुंबई यूनिवर्सिटी ने भारतीय पत्रकारिता पर विचार मंथन आयोजित किया है, जिसमें देश भर से विद्वान जुटे हैं। इन्हीं में एक प्रो. राममोहन पाठक बताते हैं कि अंग्रेजी शासन की दमनकारी तोप के मुकाबिल अपना हथियार यानी अपना अखबार लेकर खड़े साधनहीन-सुविधा विहीन संपादकों की कड़ी में एक नाम- बाबूराव विष्णु पराडकर ही काफी है। एनबीटी से विशेष बातचीत में प्रो. पाठक ने मौजूदा पत्रकारिता पर चर्चा करते हुए बताया कि उद्वेलन के इस दौर में पराडकर को भारतीय पत्रकारिता की थाती समझकर उनसे काफी कुछ सीखा-समझा जा सकता है। उन्होंने कहा कि आधुनिक पत्रकारिता के इस दौर में आज मीडिया कर्म, मीडिया की भूमिका और मीडियाकर्मियों के समक्ष तमाम सवाल खड़े किए जा रहे हैं। एक जेब में पिस्तौल, दूसरी में गुप्त पत्र 'रणभेरी' और हाथों में 'आज'-'संसार' जैसे पत्रों को संवारने, जुझारू तेवर देने वाली लेखनी के धनी पराडकरजी ने जेल जाने, अखबार की बंदी, अर्थदंड जैसे दमन की परवाह किए बगैर पत्रकारिता का वरण किया। मुफलिसी में सारा जीवन न्यौछावर करने वाले इस मराठी मानुष ने आजादी के बाद देश की आर्थिक गुलामी के खिलाफ धारदार लेखनी चलाई। मराठी भाषी होते हुए भी हिंदी के इस सेवक की जीवनयात्रा अविस्मरणीय है। प्रो. पाठक के मुताबिक पराडकरजी मिशनरी जर्नलिज्म के शीर्ष मानदंड हैं, यही वजह है कि सवा सौ साल बाद भी वे प्रासंगिक हैं।

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

मंदिर के जरिए दलित समुदाय के छात्रों को अंग्रेजी सीखने के लिए प्रेरित करना

रोजी-रोटी के बाजार में तमाम भारतीय भाषाओं को पछाड़कर पहले ही देवी का दर्जा हासिल कर चुकी अंग्रेजी भाषा की अब बाकायदा पूजा होगी। प्रदेश के लखीमपुर खीरी में अंग्रेजी देवी की मूर्ति लगवाई जा रही है। यह मूर्ति जिले के एक दलित प्रधान स्कूल में लगवाई जा रही है। इस अनोखी परम्परा के सूत्रधार और अंग्रेजी के प्रतिष्ठित स्तम्भकार डॉ. चंद्रभान प्रसाद ने फोन पर बताया, देवी की प्रतिमा लखीमपुर खीरी जिले में दलितों द्वारा संचालित नालंदा पब्लिक शिक्षा निकेतन में स्थापित की जा रही है। सामूहिक चंदे से जुटाए गए धन से 800 वर्गफुट जमीन पर मंदिर बनकर तैयार है। प्रसाद ने बताया कि मंदिर में अंग्रेजी देवी की तीन फुट ऊंची प्रतिमा स्थापित की जा रही है। देवी का एक मंजिला मंदिर काले ग्रेनाइट पत्थर से बनाया गया है।
उन्होंने बताया कि मंदिर के स्थापत्य को आधुनिक रूप देने के लिए उसकी दीवारों पर भौतिकी, रसायन और गणित के चिह्न तथा फार्मूले एवं अंग्रेजी भाषा में सूत्र वाक्य के साथ नीति वचन आदि उकेरे जाएंगे। यह पूछे जाने पर कि इस अनूठे मंदिर के निर्माण की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, प्रसाद ने बताया कि देश में आजादी के बाद जब राष्ट्रीय भाषा के चयन को लेकर बहस चल रही थी, तब संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने अंग्रेजी को यह दर्जा दिए जाने की जोरदार वकालत की थी। उन्होंने कहा कि हालांकि तब देश के अन्य अग्रणी नेता आम्बेडकर से सहमत नहीं हुए थे। मगर अब रोजी-रोटी के बाजार में जिस तरह अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य कायम हो गया है, उससे उनके तर्क सही सिद्ध हुए हैं। प्रसाद ने कहा, हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं से कोई विरोध नहीं है। मगर अब इस बात में तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश बची नहीं है कि जीवन में सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान आवश्यक है। संयोग से दलित समाज इसमें काफी पिछड़ा हुआ है और जीवन के तमाम क्षेत्रों में उनके पिछड़े रहने का यह भी एक बड़ा कारण है। उन्होंने कहा कि इस पहल का मकसद मंदिर के जरिए दलित समुदाय के छात्रों को अंग्रेजी सीखने के लिए प्रेरित करना है।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

अच्छा अनुवाद बड़ी समस्या

भारतीय भाषाओं के साहित्य की सबसे बड़ी समस्या विश्व की बड़ी भाषाओं जैसे अंग्रेजी, जर्मन, स्पैनिश, इटैलियन आदि में उनका अनुवाद नहीं हो पाना है। जब तक इन भाषाओं में भारतीय साहित्य का अनुवाद नहीं होता है, तब तक इनके पाठकों तक हमारा साहित्य पहुंच नहीं सकता। नोबेल समिति के मेंबर भारतीय साहित्य के नाम पर केवल उन्हीं रचनाओं को जानते हैं जो अंग्रेजी में लिखी गई हैं। सलमान रुश्दी जैसे लेखकों ने एक बड़ा भ्रम यह फैलाया है कि भारतीय साहित्य अंग्रेजी में लिखी गई रचनाओं तक सीमित है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अंग्रेजी के अलावा जर्मन, स्पैनिश, फ्रेंच आदि ताकत की भाषाएं हैं। विश्व के जिन देशों में ये पढ़ी-बोली जाती हैं, उनका दुनिया में बहुत प्रभाव है। यह असर इन भाषाओं के साहित्य में दिखता है। अगर बाहरी मुल्क यह समझते हैं कि अंग्रेजी ही भारतीय भाषा है, तो यह मत बनाने में हमारा भी कुछ योगदान है। देखिए, कॉमनवेल्थ गेम्स जैसा बड़ा आयोजन हमने किया पर इससे जुड़े ज्यादा सूचनापट्ट अंग्रेजी में हैं, हिंदी में नहीं। इससे विदेशी यही समझेंगे कि भारत की भाषा अंग्रेजी है। नोबेल जैसे पुरस्कारों के लिए जो लॉबिंग होती है, भारत में उसका भी अभाव है। ये जटिल समस्याएं हैं। इन्हें हल करने के लिए सरकार को कोई प्रयास करना चाहिए। अन्यथा भारतीय लेखन के नाम पर रुश्दी जैसे लेखक ही नोबेल जीतेंगे, कोई और नहीं।

साहित्य का नोबेल पुरस्कार पेरू के स्पैनिश लेखक मारियो वर्गास लोसा को देने की घोषणा

इस वर्ष साहित्य का नोबेल पुरस्कार पेरू के स्पैनिश लेखक मारियो वर्गास लोसा को देने की घोषणा हुई है। लैटिन अमेरिका के इस चर्चित लेखक को नोबेल देने की हर कोई सराहना कर रहा है, पर भारत में ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि लंबे अरसे से भारतीय साहित्य को नोबेल के उपयुक्त क्यों नहीं माना जा रहा है? रवींद्र नाथ टैगोर के बाद करीब सौ साल की इस अवधि में किसी अन्य भारतीय साहित्यकार की रचनाएं इस काबिल नहीं मानी गईं कि उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता। अक्सर इसके लिए हमारे साहित्य का अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में समुचित अनुवाद नहीं हो पाने को समस्या बताया जाता है। कहा जाता है कि नोबेल के ज्यूरी मेंबर भारतीय भाषाओं के बारे में जरा भी नहीं जानते, लिहाजा हम साहित्य का नोबेल पाने में पिछड़ जाते हैं। पर यह जरूरी नहीं है कि दुनिया की जिन अन्य भाषाओं के साहित्यकारों को नोबेल मिला है, उनके साहित्य का हमेशा अच्छा अनुवाद होता रहा हो। पोलिश, नॉवेर्जियन, फिनिश और आइसलैंडिक भाषाओं का कोई उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय दखल नहीं है। यूगोस्लाविया की सर्बो-क्रोएशियन और इस्राइल की हिब्रू आदि भाषाओं में लिखी रचनाओं को इन देशों से बाहर कितने मुल्कों के लोग जानते होंगे? फिर भी इन भाषाओं के रचनाकार नोबेल पाते रहे हैं। अनुवाद से ज्यादा महत्वपूर्ण बात साहित्य की स्तरीयता और रचनाकार के नजरिए की है। भारतीय भाषाओं के लेखक ग्लोबल अपील वाले विषयों को अपनी रचनाओं में उठाने में असफल रहते हैं। समाज और संसार के बड़े सरोकारों के संदर्भ से उनमें अपेक्षित गहराई नहीं होना भी एक समस्या हो सकती है। सिर्फ अनुवाद को ही समस्या बताने की जगह अगर हमारी साहित्यकार बिरादरी इन दूसरे पहलुओं पर नजर डाले और अपनी रचनाओं में वैसा पैनापन ला सके, तो भारत साहित्य का नोबेल एक बार फिर पाने का गौरव हासिल कर सकता है।

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

मजहब और भाषा के नाम भड़काऊ बातों के माध्यम से लोगों में दरार पैदा करने की कोशिश

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शुक्रवार को ऐसी ताकतों से सावधान रहने को कहा , जो मजहब और भाषा के नाम भड़काऊ बातों के माध्यम से लोगों में दरार पैदा करने की कोशिश कर रही हैं। महाराष्ट्र के वर्धा जिले में 'सद्भावना रैली' को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, उनसे सावधान रहने की जरूरत है जो हमें भाषा और मजहब के नाम पर बांटने की कोशिश रहे हैं। यह रैली कांग्रेस की महाराष्ट्र इकाई द्वारा आयोजित 'ग्राम से सेवाग्राम' फ्लैग मार्च के समापन समारोह का हिस्सा थी। सोनिया ने कहा, 'कुछ कहने से पहले मैं आप सभी को हुई असुविधा के लिए माफी मांगना चाहूंगी। एयरक्राफ्ट में तकनीकी खराबी आ जाने की वजह से मैं रैली स्थल पर देर से पहुंची।' उन्होंने कहा, 'यह महात्मा गांधी और विनोबा भावे की पवित्र भूमि है। मैं इस पवित्र भूमि को प्रणाम करती हूं। एक कमजोर समाज विकास के रास्ते पर पिछड़ जाता है। हमें अपनी जिम्मेदारियों को बेहतर तरीके से निभाना होगा, साथ ही सामाजिक प्रतिबद्धताओं को भी ध्यान में रखना होगा।'

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

हम भारत के करोड़ों युवक - युवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं।

शब्दों की आवाजाही पिछले कुछ वर्षों में इंडोनेशिया आदि से 'सूनामी' की लहर ऐसी उठी जिसकी शक्ति सारे संसार ने अनुभव की। 'रेडियो' कहीं भी पैदा हुआ, वह सार्वभौमिक बन गया। अंग्रेजी का 'बिगुल' पूरे दक्षिण एशिया में बजता है। केवल शक्तिशाली शब्द ही दूसरी भाषाओं में नहीं जाते। अनेक साधारण-से दिखने वाले शब्द भी महाद्वीपों को पार कर जाते हैं। जब लोग विदेश से लौटते हैं, तो वे अपने साथ वहां दैनिक व्यवहार में उपयोग होने वाले कुछ शब्दों को भी अपने साथ बांध लाते हैं। अंग्रेज जब इंग्लैंड वापस गए, तो भारत के 'धोबी' और 'आया' को भी साथ ले गए। इसी प्रकार पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीका से लौटे भारतीयों के साथ 'किस्सू' (चाकू), 'मचुंगा' (संतरा) और 'फगिया' (झाड़ू) भी चली आई। धारा और पोखर दूसरी भाषा के शब्द देशी हों या विदेशी, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतर पड़ता है उनकी मात्रा से। दाल में नमक की तरह दूसरी भाषा के शब्द उसे स्वादिष्ट बनाते हैं, लेकिन उनकी बहुतायत उसे गले से नीचे नहीं उतरने देती। जब हिंदी के कुछ हितैषी अपनी भाषा में अंग्रेजी की बढ़ती घुसपैठ का विरोध करते हैं, तो अंग्रेजीवादी अल्पसंख्यक खीज उठते हैं। वे अपने विरोधियों पर आरोप लगाते हैं कि वे लोग हिंदी को सभी अच्छी धाराओं से काटकर उसे पोखर बनाना चाहते हैं। परंतु कोई भी स्वाभिमानी जल प्रबंधक एक स्वच्छ नदी में किसी भी छोटी-मोटी जलधारा को प्रवेश देने की अनुमति देने से पूर्व यह जान लेना चाहेगा कि वह धारा कूड़े-कचरे से मुक्त हो। अंग्रेजी के कुछ समर्थक हिंदी पर अनम्यता और दूसरी भाषाओं के साथ मिलकर काम न करने का आरोप लगाते हैं। लेकिन चौराहा रेलगाड़ी , बमबारी , डॉक्टरी , पुलिसकर्मी और रेडियोधर्मी विकिरण जैसे अनेक शब्द हमने बनाए हैं। उनका प्रयोग करने में किसी भी हिंदीभाषी को आपत्ति नहीं। सौभाग्यवश मैं उस पीढ़ी का व्यक्ति हूं जिसने गणित , भूगोल , भौतिकी और रसायन शास्त्र आदि विषय हिंदी में पढ़े। लघुत्तम , महत्तम , वर्ग , वर्गमूल , चक्रवृद्धि ब्याज और अनुपात जैसे शब्दों से मैंने अंकगणित सीखा। उच्च गणित में समीकरण , ज्या , कोज्या , बल , शक्ति और बलों के त्रिभुजों का बोलबाला रहा। भूगोल पढ़ते समय उष्णकटिबंध , जलवायु , भूमध्यरेखा , ध्रुव और पठार जैसे शब्द सहज भाव से मेरे शब्द - भंडार का अंग बन गए। विज्ञान में द्रव्यमान , भार , गुरुत्वाकर्षण , व्युत्क्रमानुपात , चुंबकीय क्षेत्र , मिश्रण , यौगिक और रासायनिक क्रिया आदि शब्दों ने मुझे कभी भयभीत नहीं किया। और न ही किसी को चिकित्सक या लेखाकार घोषित करते हुए मेरे मन में किसी प्रकार का हीनभाव आया। स्वयं को सिविल अभियंता ( अंग्रेजी के साथ मिलाकर बनाया गया शब्द ) कहने में मैं आज तक गर्व अनुभव करता हूं। जयशंकर प्रसाद , सुमित्रानंदन पंत , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला , मैथिलीशरण गुप्त , देवराज दिनेश , रामधारी सिंह दिनकर और गोपालदास नीरज आदि को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अंग्रेजी की शरण में जाने की आवश्यकता कभी नहीं हुई। महादेवी वर्मा बिना अंग्रेजी की सहायता के तारक मंडलों की यात्राएं करती रहीं , हरिवंशराय बच्चन ने अंग्रेजी की सरिता में गोते खूब लगाए , अपने पाठकों को उसके अनेक रत्न भी निकालकर सौंपे , परंतु उस भाषा को अपने मूल लेखन में फटकने तक नहीं दिया। आचार्य चतुरसेन शास्त्री , वृंदावनलाल वर्मा और प्रेमचंद अपनी भाषा से करोड़ों पाठकों के पास पहुंचे। बिना किसी मीठी लपेट के मैं कहना चाहूंगा कि यह सब अंग्रेजी के पक्षधरों के गुप्त षडयंत्र का परिणाम है। जिस भाषा को अस्थायी रूप से सह - राष्ट्रभाषा की मान्यता दी गई थी , उसके प्रभावशाली अनुयायी एक ओर जय हिंदी का नारा लगाते रहे और दूसरी ओर हिंदी की जड़ें काटने में लगे रहे। उन्होंने पहले उच्च शिक्षा और फिर माध्यमिक शिक्षा , हिंदी के बदले अंग्रेजी में दिए जाने में भरपूर शक्ति लगा दी। यदि हिंदी किसी प्रकार उनके चंगुल से बच भी गई , तो तमाम अंग्रेजी तकनीकी शब्द उसमें ठूंस दिए गए , यह बहाना बनाकर कि हिंदी के शब्द संस्कृतनिष्ट और जटिल हैं। भौतिकी कठिन है , फिजिक्स सरल है। विकल्प आंखों के आगे अंधेरा ला देता है , ऑल्टरनेटिव तो भारत का जन्मजात शिशु भी समझता है। धीरे - धीरे चलनेवाली इस मीठी छुरी से कटी भारत की भोली जनता पर इन पंद्रह - बीस वर्षों में एक ऐसा मुखर अल्पमत छा गया है , जो सड़क को रोड , बाएं - दाएं को लैफ्ट - राइट , परिवार को फैमिली , चाचा - मामा को अंकल , रंग को कलर , कमीज को शर्ट , तश्तरी को प्लेट , डाकघर को पोस्ट ऑफिस और संगीत को म्यूजिक आदि शब्दों से ही पहचानता है। उनके सामने हिंदी के साधारण से साधारण शब्द बोलिए , तो वे टिप्पणी करते हैं कि आप बहुत शुद्ध और क्लिष्ट हिंदी बोलते हैं। मेरा हस्बैंड बिजनेसमैन वे कहते हैं - एक्सक्यूज मी , अभी आप पेशंट को नहीं देख सकते। या , मैं कनॉट प्लेस में ही शॉपिंग करता हूं। या , मेरा हस्बेंड बिजनेसमैन है। यह भाषाई दिवालियापन नहीं तो और क्या है। विदेशी ग्राहकों से अंग्रेजी में बात करने की क्षमता वाले लोगों की सेना तैयार करने की धुन में हम भारत के करोड़ों युवक - युवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं। उनकी क्षमताओं का पूर्णत : विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। हिंदी केवल चलचित्र बनाने वालों की भाषा नहीं है। न ही यह केवल उनके लिए है जो अपने कुछ मित्रों के साथ बैठकर वाह - वाह करने से संतुष्ट हो जाते हों। यह उन सभी के लिए होनी चाहिए जिनमें अपना जीवन विज्ञान , न्याय , शिक्षा , शोध और विकास के क्षेत्र में लगाने की क्षमता हो।

शनिवार, 18 सितंबर 2010

हिंदी पखवाड़ा

हिंदी पखवाड़ा 13 सितम्बर 2010 से 24सितम्बर 2010 तक मनाया जा रहा है । आप सभी से अनुरोध है कि आप इस पखवाड़े को सफल बनाने के लिए अपना सारा काम हिंदी में करें ।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस मनाते हुए भाषा के प्रश्न पर आधुनिक भारत के स्वप्नदष्टा जवाहरलाल नेहरू के विचारों को याद करना समीचीन होगा। आजादी के प्रारंभिक वर्षों में राजभाषा के मुद्दे पर उत्तर और दक्षिण के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा दिखाई देने लगी थी। नेहरू ने इंग्लिश को देश की राजभाषा घोषित करने की दक्षिण के कुछ नेताओं की मांग दृढ़तापूर्वक खारिज कर दी, लेकिन इस बात का भी पूरा ध्यान रखा कि इस संवेदनशील मुद्दे पर दक्षिण की जनता की भावनाओं को कोई ठेस न पहुंचे। उन्होंने प्रमुख राजनीतिज्ञों, मंत्रियों, नेताओं और सरकारी अधिकारियों को लिखे अपने पत्रों में भाषा के सवाल पर अपना रुख साफ करते हुए जन-जन की भाषा के रूप में हिंदी की अहमियत समझाई और बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षित करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं के विकास पर जोर दिया था। पंडित नेहरू ने अपने बेबाक अंदाज में सरकारी भाषा की सरलता और अनुवाद की जटिलता पर भी चर्चा की और समय के साथ चलने के लिए विदेशी भाषाएं सीखने की जरूरत बताई। इस संबंध में नेहरू जी के पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
6 जनवरी 1958 को मदास में तमिल इनसाइक्लोपीडिया के पांचवें खंड के विमोचन के मौके पर अपने भाषण में नेहरू ने भाषा के सवाल का खासतौर से उल्लेख किया था। उन्होंने कहा, ''आज भारत में भाषा को लेकर बड़ी बहस चल रही है, लेकिन इस मुद्दे के सबसे खास हिस्से का समाधान हो चुका है। भले ही बारीकियां कुछ भी हों, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, भारत में यह बात स्थापित और स्वीकार हो चुकी है कि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा ही होनी चाहिए। यह तमिल, बांग्ला या गुजराती जैसी महान भाषाओं या अन्य भाषाओं पर ही नहीं, बल्कि पूवोर्त्तर भारत की आदिवासी बोलियों पर भी लागू होना चाहिए, जिनकी कोई लिखित भाषा नहीं है। व्यावहारिक तौर पर यह कठिन हो सकता है, लेकिन थ्योरी यह है कि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षित करने की व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए, भले ही बच्चा कहीं का भी हो। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के निर्णय के साथ ही भारत में एक बड़ा परिवर्तन आ गया है। इंग्लिश अभी तक शिक्षा का माध्यम थी, जबकि इस निर्णय से वह तत्काल दूसरी श्रेणी में आ जाती है।'' नेहरू जी ने 26 मार्च 1958 को सी. राजगोपालाचारी को भेजे अपने पत्र में लिखा कि ''भारत में वास्तविक और बुनियादी परिवर्तन इस बात से नहीं आ रहा है कि हिंदी धीरे-धीरे इंग्लिश का स्थान ले रही है, बल्कि इससे आ रहा है कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हो रहा है और उनका इस्तेमाल बढ़ रहा है। ये क्षेत्रीय भाषाएं शिक्षा का माध्यम बनेंगी और सरकारी कार्यों में इनका इस्तेमाल होगा। ये ही बुनियादी तौर पर इंग्लिश का स्थान लेंगी। यह अच्छा परिवर्तन है या नहीं, इसपर बहस हो सकती है लेकिन यह परिवर्तन अनिवार्य रूप से होगा और इससे भारत में इंग्लिश के दर्जे पर जबर्दस्त असर पडे़गा। भारत में इंग्लिश इसलिए फली-फूली क्योंकि वह शिक्षा के माध्यम के साथ-साथ हमारे सरकारी और सार्वजनिक कामकाज की भी भाषा थी। इंग्लिश और हिंदी के बीच कथित टकराव इस बडे़ सवाल का एक छोटा सा पहलू है। इन दोनों में से कोई भी भाषा गैर-हिंदीभाषी राज्यों में शिक्षा का माध्यम नहीं होंगी। शिक्षा और कामकाज का आधार क्षेत्रीय भाषा होगी और ये दोनों द्वितीय भाषाएं होंगी। मेरे मन में यह जरा भी संदेह नहीं है कि हमारी जनता के विकास के लिए क्षेत्रीय भाषा आवश्यक है और गैर-हिंदीभाषी राज्यों में अंग्रेजी या हिंदी के माध्यम से लोगों का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता।'' इसी पत्र में उन्होंने लिखा- ''हमें आधुनिक समय में हो रहे परिवर्तनों को समझने के लिए विदेशी भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित करना चाहिए। यह स्पष्ट है कि सभी बड़ी विदेशी भाषाओं में इंग्लिश हमें ज्यादा माफिक पड़ती है। अत: हमें इंग्लिश को एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में जारी रखना होगा। लेकिन मेरा मानना है कि भारत में व्यापक रूप से दूसरी विदेशी भाषाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है। कांग्रेस के गौहाटी अधिवेशन में भाषा के प्रश्न पर पारित प्रस्ताव में इस पहलू पर विशेष जोर दिया गया था और कहा गया था कि हमारी वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली अंतरराष्ट्रीय टमिर्नोलॉजी से मेल खानी चाहिए। साथ ही हमारी भाषा में अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रचलित वैज्ञानिक शब्दों को ज्यादा से ज्यादा शामिल किया जाना चाहिए। स्वाभाविक है कि ये शब्द ज्यादातर इंग्लिश के होंगे। इनके अलावा ये शब्द भारतीय भाषाओं में साझा होंगे या होने चाहिए ताकि मानव ज्ञान के इस विस्तृत क्षेत्र में वे एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक आ सकें।'' राजगोपालाचारी को भेजे उपरोक्त पत्र में नेहरू ने हिंदी के बारे में लिखा कि ''यह अभी विकासशील अवस्था में है। लेकिन यह भी तथ्य है कि अपने विविध रूपों में इसकी पहुंच भारत के बहुत बड़े हिस्से तक है। उर्दू के तौर पर इसका दायरा पाकिस्तान तक फैला हुआ है। पाकिस्तान से आगे मध्य एशिया में काफिलों के गुजरने वाले रास्तों में भी उर्दू का ज्ञान काफी उपयोगी होता है। अत: हिंदी और उर्दू के जरिए, जिनमें लिपियां शामिल हैं, हम भारत से भी आगे दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं। राजगोपालाचारी के ही नाम एक अन्य पत्र में नेहरू ने लिखा कि मुझे यह तर्कसंगत नहीं लगता कि इंग्लिश को भारत की राष्ट्रीय या केंद्रीय भाषा घोषित किया जाए। इससे मुझे ठेस लगती है। यदि मेरे मामले में ऐसा है तो लाखों लोगों को कैसा लगता होगा। अनेक देशों की यात्राएं करने के बाद मैं जानता हूं कि इंग्लिश को औपचारिक रूप से अपनाने पर कुछ देश आश्चर्य करेंगे और कुछ हमें नफरत से देखेंगे। सच यह है कि वे हमसे अपनी ही भाषा या अंग्रेजी को छोड़कर किसी अन्य भारतीय भाषा में बात करना ज्यादा पसंद करेंगे। ''

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

मुबरकबाद और शुभकामनाएं

ईद और गणेषोत्सव पर हमारी तरफ से मुबरकबाद और शुभकामनाएं

मुबरकबाद और शुभकामनाएं

ईद और गणेषोत्सव पर हमारी तरफ से मुबरकबाद और शुभकामनाएं

सोमवार, 30 अगस्त 2010

'अंग्रेजी हटाओ' के झंडाबरदारों ने कहा कि यह भाषा हमें अपनी ही संस्कृति से काटकर अलग कर रही है।

इस साल 25 अक्टूबर को यूपी में एक मंदिर का उद्घाटन होने वाला है। यह तो कोई खास बात नहीं है, लेकिन जिस देवी का यह मंदिर है, वही उसे खास बनाता है। यह अंग्रेजी देवी को समर्पित है और उद्घाटन का दिन वही है, जिस दिन कुख्यात या विख्यात थॉमस बेबिंग्टन मैकॉले के जन्म की 210 वीं वर्षगांठ है। मैकॉले को आप किस श्रेणी में रखते हैं, यह आपके नजरिए पर निर्भर करता है। दस्तावेजों में दर्ज यह है कि उसने भारत में अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू कराई ताकि ब्राउन क्लर्कों की एक ऐसी फौज तैयार की जा सके, जो अंग्रेजी हुकूमत के कामकाज को बखूबी संभाल सके। ब्रिटेन से अंग्रेज बाबुओं को लाने में खर्चा अधिक लगता था। मैकॉले की उस कोशिश को आधुनिक बीपीओ इंडस्ट्री का पूर्वावतार कह सकते हैं। जैसा कि दूसरी चीजों के साथ हुआ, इस बीपीओ के चक्कर में आई अंग्रेजी के साथ भी सामाजिक-सांस्कृतिक विवाद शुरू हुए। मुलायम सिंह जैसे 'अंग्रेजी हटाओ' के झंडाबरदारों ने कहा कि यह भाषा हमें अपनी ही संस्कृति से काटकर अलग कर रही है। उनकी बात में दम है। हालांकि उन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही पढ़ाया -देश में भी और विदेश में भी। अंग्रेजी के समर्थकों में आजकल एक प्रमुख नाम है सुश्री मायावती का। वह आंबेडकर की इस लाइन का समर्थन करती हैं कि दलितों का उद्धार पश्चिमी ढंग की शिक्षा-दीक्षा से ही संभव होगा। उनका मानना है कि विश्व की व्यापारिक भाषा का ज्ञान भारत को दुनिया के दूसरे देशों पर बढ़त देता है और देखिए कि चीन किस तरह से अपनी आबादी को अंग्रेजी सिखाने के लिए बेचैन हो रहा है। इस नजर से देखें तो मैकॉले ने हमें एक वरदान ही दिया था। और ऐसे हर वरदान का कोई स्मारक तो बनना ही चाहिए। इसलिए आइए अंग्रेजी का एक मंदिर बना ही लें, वह भी हिंदी के हृदय प्रदेश में। लेकिन इसका उद्घाटन मैकॉले के जन्मदिन पर क्यों हो? जो उसके द्वारा और बाकी ब्रिटिशर्स द्वारा किए जाने वाले दमन और शोषण की ही याद दिलाए। इस मंदिर का उद्घाटन हम भारत के स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त के दिन भी कर सकते थे। असल में समस्या यह है कि हम आज भी अंग्रेजी को एक विदेशी भाषा के रूप में देखते हैं। एक बोझ, जो ब्रिटिशर्स ने हम पर लाद दिया। हमें खुद को इस सोच से मुक्त करना चाहिए और इसका भारतीयकरण कर लेना चाहिए। जैसे क्रिकेट कभी अंग्रेजों का खेल था, लेकिन आईपीएल ने इसका पूरी तरह से भारतीयकरण कर दिया है। रोजमर्रा की बातचीत , साहित्य , विज्ञापनों और मनोरंजन के क्षेत्र में हमने अंग्रेजी का भी काफी भारतीयकरण कर दिया है। निश्चित रूप से ऐसा करने वाले सिर्फ हम ही नहीं हैं। अमेरिकी इंग्लिश ने अपनी शब्द संपदा और स्पेलिंग के साथ बहुत पहले ही खुद को स्वाधीन बना लिया था। इसी तरह ऑस्टे्रलियाई इंग्लिश अलग है , जिसे इसके सानुनासिक उच्चारण की वजह से स्ट्राइन कहा जाने लगा है। इसी तरह न्यूजीलैंड की अंग्रेजी अलग है और जमैका की अलग। सही बात यह है कि इंग्लिश नाम की भाषा बहुत पहले पुरातन पड़ चुकी है। अंतरराष्ट्रीय संवाद में उसकी संभ्रांत शैली और बारीक अर्थों का कोई मतलब नहीं रह गया है और न ही स्थानीय अभिव्यक्तियों के जुड़ने से उसका प्रदूषण होता है। इसलिए आईपीएल की तरह हमारी अपनी अंग्रेजी को भी बस एक ऐसी ही ब्रांडिंग की जरूरत है , जो हमारी ग्लोबल जरूरतों को भी पूरा करे और जिसमें हमारे भारतीय योगदान के लिए भी पर्याप्त जगह हो। भारत में संभवत : किसी भी अन्य देश से ज्यादा अंग्रेजी भाषी लोग हैं। हमें अंग्रेजों ने आजादी नहीं दी थी। हमने उनसे आजादी ले ली थी। इसी तरह , इतने वर्षों में हमने अंग्रेजी हासिल कर ली है - नगालैंड जैसे हमारे राज्यों की यह राजकीय भाषा है। इसलिए आइए अंग्रेजी भगाएं और एक नई भाषा की ब्रांडिंग करें अपनी अंतरराष्ट्रीय जरूरतों के लिए , जिसे हम अंतर्बोली कह कर बुला सकते हैं।

बुधवार, 25 अगस्त 2010

भारी बारिश से मध्य दिल्ली के कई इलाकों में जल जमाव


दिल्ली में बुधवार सुबह हुई तेज वर्षा से कई स्थानों पर पानी भरने के साथ ही सड़क जाम की समस्या फिर सामने आ गई। इससे अपने दफ्तर जाने के लिए निकले लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। भारी बारिश से मध्य दिल्ली के कई इलाकों में जल जमाव हो गया है। कुछ स्थानों पर तो दो फीट तक पानी जमा हो गया। इसके कारण आश्रम, बाहरी रिंग रोड, धौलाकुआं, प्रगति मैदान, राजघाट, डीएनडी, अजमेरी गेट जैसे स्थानों पर भारी जाम लग गया है। उधर यमुना नदी खतरे के निशान से करीब एक फीट ऊपर बह रही है। बाढ़ के खतरे को देखते हुए यमुना में गिरने वाले शहर के सभी नालों को बंद कर दिया गया है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

ममता कालिया को उनकी कहानी के लिए पहला लमही सम्मान देने की घोषणा

जानी मानी कहानीकार और नई कहानी आंदोलन की सशक्त हस्ताक्षर ममता कालिया को उनकी कहानी के लिए पहला लमही सम्मान देने की घोषणा की गई है। उनकी यह कहानी 2009 में लमही पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। त्रैमासिक पत्रिका के सलाहकार संपादक विजय राय ने लखनऊ से फोन पर बताया कि प्रेमचंद के गांव लमही में मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर 8 अक्तूबर को ममता कालिया को यह सम्मान दिया जाएगा। पुरस्कार के रूप में उन्हें 15 हजार रुपये की नकद राशि, प्रतीक चिह्न और प्रशस्ति पत्र दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि दो साल पहले पत्रिका की स्थापना प्रेमचंद के विचारों और उनके लेखन की धारा को आगे बढ़ाने के लिए की गई थी। उस वक्त यह तय किया गया था कि 2009 की सर्वश्रेष्ठ कहानी को इस साल का सम्मान प्रदान किया जाएगा।

गुरुवार, 24 जून 2010

राजभाषा के रूप में हिंदी को उसकी गरिमा दिलाने में सरकार की कोई खास रुचि नहीं

ग्लोबलाइजेशन और बाजार के बढ़ते दबाव के कारण हिंदी को लेकर एक बार फिर बहस तेज हो गई है। आज हिंदी का विकास भले ही रुका न हो , लेकिन सरकारी कामकाज में उसकी गति लगातार और तेजी से घट रही है। आजादी के तुरंत बाद 14 सितंबर , 1949 को संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता देने की घोषणा की गई थी मगर इस संबंध में कानून नहीं बना और हिंदी को राजभाषा का जामा पहना दिया गया। पांच वर्षों के बाद 1954 में राजभाषा आयोग गठित किया गया जिसने 1956 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और इस रिपोर्ट पर अमल 9 वर्षों के बाद यानी 10 मई 1963 को राजभाषा अधिनियम बना कर किया गया। 1965 में दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु में हिंदी विरोध शुरू हो गया और इसके चलते 1965 में सरकार ने राजभाषा संशोधन अधिनियम बना दिया। 11 साल बाद सरकार ने राजभाषा नियम (1976) बनाया। इस तरह हिंदी की गाड़ी रुक - रुक कर चली और आज आजादी के 60 वर्ष बाद भी उसी तरह चल रही है। इस स्थिति में कुछ बदलाव जरूर हुए। सरकारी मंत्रालयों और कार्यालयों में हिंदी अधिकारियों के पद बना कर भरे गए जो बाद में इन संगठनों में दूसरे दर्जे के कर्मचारी बन गए। इनके द्वारा हिंदी को एक कृत्रिम अनुवाद की भाषा का रूप दिया गया। हजारों अनुवादकों और हिंदी अधिकारियों की मौजूदगी के बावजूद सरकारी हिंदी एक ऐसी बेजान भाषा बन गई जो आम जन के पल्ले नहीं पड़ती। सरकारी दफ्तरों में मूल हिंदी में तो काम होता नहीं। अनुवाद इसका एक विकल्प बन गया है क्योंकि सभी मंत्रालयों , उसके अंतर्गत आने वाले विभागों और उपक्रमों का कामकाज अंग्रेजी में होता है। मंत्रालयों के सचिव और बड़े अधिकारी तथा उपक्रमों के मुखिया और वरिष्ठ अधिकारी अंग्रेजी में सोचते और लिखते हैं। जरूरत के हिसाब से उनके लिखे का अनुवाद होता है और यह काम करने वाला अधिकारी अपने ही संगठन में पदोन्नति के अभाव में उपेक्षित , हताश हिंदी का नाम लेता कार्यालय के किसी कोने में आंकड़े पकाता पड़ा रहता है। विभिन्न मंत्रालय , सरकारी कार्यालय , उपक्रम आदि हिंदी दिवस और हिंदी सप्ताह मना कर बाकी पूरे साल हिंदी के नाम पर मौन धारण कर लेते हैं। प्रगति रिपोर्ट राजभाषा विभाग की जरूरत के मुताबिक बना दी जाती है। हिंदी को देश भर के सरकारी विभागों और निगमों आदि में लागू करने के लिए संसदीय राजभाषा समिति भी बनी है , जिसमें कुल 30 संसद सदस्य ( लोकसभा के 20 और राज्यसभा के 10) होते हैं। इस समिति को तीन उप समितियों में बांटा गया है। इस समिति के अध्यक्ष गृह मंत्री होते हैं तथा तीनों समितियों के ऊपर एक उपाध्यक्ष होता है। संसदीय समिति का काम विभिन्न सरकारी कार्यालयों और उपक्रमों का निरीक्षण करना है और यह पता लगाना है कि इनमें हिंदी का काम ढंग से हो रहा है या नहीं। पर यह बात केवल सिद्धांत में है। सचाई यह है कि निरीक्षण का यह कार्यक्रम दफ्तरों के परिसर में न होकर शहर के किसी बड़े फाइव स्टार होटल में आयोजित किया जाता है। एक बार में 2 या 3 कार्यालयों का निरीक्षण किया जाता है जिस पर 5 से 10 लाख रुपये खर्च होते हैं। यह खर्च वे कार्यालय उठाते हैं जिनका निरीक्षण होता है। हालांकि नियमत : यह खर्च संसद द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार होना चाहिए। समिति के माननीय सदस्यों को कार्यालयों द्वारा भारी - भरकम उपहार भी दिए जाते हैं। कुल मिलाकर यह आयोजन पिकनिक मनाने जैसा होता है। नवंबर 2008 तक के आंकड़ों के अनुसार इन समितियों ने 9475 निरीक्षण किए थे। समिति सीधे राष्ट्रपति को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है और इन सिफारिशों पर राष्ट्रपति अपना आदेश देते हैं। इन संसदीय राजभाषा समितियों को 59 पृष्ठों की एक निरीक्षण प्रश्नावली , संगठन प्रमुखों द्वारा भर कर दी जाती है। वह जादुई आंकड़ों का एक ऐसा पुलिंदा होता है संसद सदस्य जिसकी सचाई जांचने की कभी जरूरत नहीं समझते। और इन्हीं आंकड़ों के आधार पर महामहिम राष्ट्रपति द्वारा आदेश जारी किया जाता है। अब तक इसके 8 खंड जारी किए जा चुके हैं। इस आदेश को कभी कोई पलट कर नहीं देखता , न उसके हिसाब से कामकाज में बदलाव किया जाता है। उन कारणों की पड़ताल करना जरूरी है , जिनकी वजह से तमाम संवैधानिक नियमों , अधिनियमों और राष्ट्रपति के अध्यादेशों के बावजूद इन साठ वर्षों में हमारे कार्यालयों में हिंदी की दशा नहीं सुधरी। यह बाधा है हिंदी का विकास सुनिश्चित करने के लिए गठित समितियों , विभागों और अफसरों का रवैया। सभी जानते हैं कि सामान्य नियमों और अधिनियमों की अवहेलना करने पर दंड का प्रावधान है , लेकिन सरकारी कार्यालयों में राजभाषा की खुलेआम अवहेलना की जाती है। अब तक इस अवहेलना के लिए किसी भी अधिकारी को कभी दंडित नहीं किया गया है। सभी संगठनों में हिंदी का स्टाफ नियुक्त है और यह समझ लिया गया है कि हिंदी में काम करने तथा नियमों के अनुपालन की सारी जिम्मेदारी केवल इन्हीं की है। इन संगठनों में काम करने वाले हिंदी अधिकारियों को किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। अपने ही संगठन में पराया तथा सबसे अधिक गैरजरूरी पद हिंदी अधिकारी का होता है। वह लंबे समय से इस गैर बराबरी का शिकार रहा है जो देश में हिंदी की स्थिति का प्रतीक है। आजादी के बाद महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन के नेता नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी देश के शासन की भाषा बनी रहे। इसीलिए भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और उम्मीद की गई कि इससे हिंदी रोजगार से जुड़ेगी और इसका प्रभाव जनजीवन पर पड़ेगा। मगर ऐसा नहीं हो सका। आज भी हिंदी समेत बाकी भारतीय भाषाएं अपना उचित स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं। इस क्षेत्र में सरकारी प्रयास आधे मन से किए गए हैं और इसकी मॉनिटरिंग के लिए बनाई गई समितियां अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक गई हैं। आज राजभाषा के रूप में हिंदी को उसकी गरिमा दिलाने में सरकार की कोई खास रुचि नहीं रह गई है।

आज करीब 25 से 30 युवा कथाकार हिंदी में गंभीरतापूर्वक कहानियां लिख रहे हैं।

हिंदीभाषी प्रदेशों के बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि ग्लोबलाइजेशन और सूचना क्रांति ने साहित्य से आम आदमी का रिश्ता कमजोर कर दिया है और एक ऐसा समय भी आ सकता है, जब साहित्य जीवन से बेदखल हो जाएगा। ऐसा मानने वालों को साहित्य और आधुनिक रहन-सहन व टेक्नॉलजी में विरोध नजर आता है। उन्हें लगता है कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में मोबाइल और इंटरनेट के साथ जवान होने वाली पीढ़ी के लिए गंभीर साहित्य का कोई मोल नहीं रह गया है। उनकी नजर में यह जेनरेशन हिंदी की कोर्सबुक की वजह से प्रेमचंद और दूसरे कुछ लेखकों का नाम भले ही जान जाए, मगर इसके अलावा उसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन इस राय को पिछले पांच-छह वर्षों में उभरकर आई युवा कथाकारों की पीढ़ी ने गलत साबित कर आज करीब 25 से 30 युवा कथाकार हिंदी में गंभीरतापूर्वक कहानियां लिख रहे हैं। इनकी औसत उम्र 27-28 साल है। यानी इन्होंने उदारीकरण के समय में होश संभाला है। इनमें से ज्यादातर पब्लिक स्कूलों में पढ़े हुए हैं। किसी ने बॉयोटेक्नॉलजी की शिक्षा हासिल की है तो किसी ने मैनेजमेंट की। कोई पब्लिक सेक्टर में बड़े पद पर है तो कोई सिविल सर्विस में है। ये सब आधुनिक टेक्नॉलजी से युक्त हैं। इनमें से कई आपको फेसबुक पर मिलेंगे। कइयों के अपने ब्लॉग हैं। ये अपना लेखन सीधे कंप्यूटर पर करते हैं। इनके लिए साहित्य केवल शौक या टाइम पास नहीं है। अपनी भाषा और साहित्य के प्रति गहरे कमिटमेंट के कारण ही इन्होंने साहित्य-लेखन को अपनाया है। इतने सारे नए लेखकों की एक साथ मौजूदगी इस बात का संकेत है कि कंज्यूमरिज्म के असर के बावजूद हिंदीभाषी परिवारों में अपने बुनियादी मूल्यों से जुड़ाव बचा हुआ है। बल्कि जुड़ाव की प्रक्रिया ने नए सिरे से जोर पकड़ा है। इस वर्ष दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में पिछली बार की तुलना में दर्शकों की ज्यादा भीड़ और हिंदी प्रकाशकों की बिक्री में 20 से 25 फीसदी की बढ़ोतरी इसका एक प्रमाण है। इन युवा कथाकारों में महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है। निश्चय ही यह मिडल क्लास में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने को लेकर आ रही जागरूकता की देन है। हिंदी कहानी में यह एक खास मोड़ है, जिसमें भारतीय ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं और 'नया ज्ञानोदय' जैसी पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। सबसे पहले नया ज्ञानोदय ने दो खंडों में कुछ युवा कथाकारों की कहानियां छापीं, जिनका जबर्दस्त स्वागत हुआ। उसके बाद भारतीय ज्ञानपीठ ने इनमें से कुछ चुनिंदा कथाकारों के कहानी संग्रह छापे। दो साल के भीतर ही इनके दो-दो संस्करण निकल गए और अब कुछ संग्रहों का तीसरा संस्करण भी आने वाला है। भारतीय ज्ञानपीठ ने कहानी, कविता, और उपन्यास के लिए युवाओं को पुरस्कार देना भी शुरू किया है जिससे यंग राइटर्स को काफी प्रोत्साहन मिला है। नया ज्ञानोदय के बाद कुछ और पत्रिकाओं ने भी युवा कथाकारों पर विशेषांक निकाले जिसमें 'प्रगतिशील वसुधा' का विशेषांक काफी महत्वपूर्ण है। इन कहानीकारों का नजरिया पिछली पीढ़ी के कहानीकारों से बिल्कुल अलग है। ये किसी विचार के प्रभाव में नहीं हैं, इसलिए ये समाज को किसी आइडियोलॉजी के चौखटे में कसकर नहीं देखते। ये आमतौर पर शहरों के मध्यवर्गीय लेखक हैं इसलिए इनके कैरक्टर भी शहरी मिडल क्लास के हैं। ज्यादातर कहानियों का नायक मध्यवर्गीय युवा है जो समय के अनेक दबाव झेल रहा है। नौकरी और प्रेम जैसी समस्याओं में उलझा हुआ वह समाज में अपनी पहचान, अपनी जगह बना रहा है। लेकिन वह किसी भी लेवल पर किसी आदर्श को ढोता हुआ नजर नहीं आता। प्रेम और सेक्स को लेकर भी वह किसी उलझन का शिकार नहीं है, बल्कि बेहद व्यावहारिक है। आज की कहानियों में प्रेमी-प्रेमिका शादी और लिवइन रिलेशन को लेकर बेहद स्पष्ट हैं। अब वर्जिनिटी कोई मुद्दा नहीं है, नई जरूरतों के मुताबिक एक-दूसरे के लिए उपयोगी होने का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है। महिला कथाकारों के यहां भी रिश्तों का परंपरागत रूप देखने को नहीं मिलता। उनकी कहानियों में महिला चरित्र बोल्ड हैं- लेकिन केवल देह के स्तर पर नहीं, बल्कि समाज में अपनी भूमिका निभाने को लेकर भी। उनकी कहानियों में आज की आधुनिक कामकाजी महिला के रहन-सहन और सोच की झलक मिलती है जो अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए संघर्ष करती नजर आती है। इन युवा कथाकारों ने भाषा के पुराने ढांचे को तोड़ा है। ये ज्यादातर अपने कैरक्टर और माहौल के हिसाब से ही भाषा लिखते हैं। एक उदाहरण देखिए : 'निकी जॉइंड दिस स्कूल इन नाइंथ और स्कूल में अपने फर्स्ट डे से ही वो मुझे पसंद आ गई थी। अपनी शुरुआती कोशिशों के बाद जब लगा कि निकी मेरी तरफ ध्यान भी नहीं दे रही तब मैंने अपने दोस्तों की मदद मांगी। रवि इज वन ऑव माई फास्ट फ्रेंड्स एंड ही टोल्ड मी कि निकी एक फर्राटा है, उसके घर वाले आर वेरी पावरफुल और मुझे उसका चक्कर छोड़ देना चाहिए। लेकिन मेरी फीलिंग्स को देखते हुए उसने स्कूल्स फॉर्म्युला ट्राई करने को कहा। मेरे स्कूल में अगर किसी लड़की को इम्प्रेस करना होता था तो कनसर्निंग ब्वॉय यूज्ड टु कीप मैसेजेज, फ्लावर्स ऑर कार्ड राइट साइड ऑव द गर्ल्स बैग। यह सब प्रेयर के टाइम पर होता था।' (सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी, चंदन पाण्डेय ) आज के कहानीकार आधुनिक लाइफ स्टाइल के तमाम ब्योरे देते हैं। उनमें मोबाइल है, चैटिंग है, पिज्जा है, बर्गर है, मिनरल वॉटर है। चूंकि यह सूचनाओं का युग है, इसलिए आज के युवा लेखकों की कहानियों में सूचनाओं की भरमार मिलती है। ये कहानीकार हालात का चित्रण भर करते हैं, लेकिन किसी परिणाम या समाधान की ओर ले जाने की कोशिश नहीं करते। हिंदी के कुछ सीनियर लेखक हिंदी साहित्य की इस यंग ब्रिगेड को संदेह की नजर से भी देखते हैं, लेकिन पाठकों ने इनके लेखन को हाथोंहाथ लिया है। सचाई यह है कि ये युवा कहानीकार हिंदी में पाठकों का एक नया वर्ग तैयार कर रहे हैं।

बुधवार, 9 जून 2010

इससे बेहतर संस्मरण लिख पाना शायद आसान नहीं

अस्सी से धूमिल क्या गया, जैसे आंगन से बेटी विदा हो गई। घर सूना और उदास। इधर सुनते हैं कि कोई बुढ़ऊ-बुढ़ऊ से हैं कासीनाथ - इनभर्सीटी के मास्टर जो कहानियां-फहानियां लिखते हैं और अपने दो-चार बकलोल दोस्तों के साथ 'मरवाड़ी सेवा संघ' के चौतरे पर 'राजेश ब्रदर्स' में बैठे रहते हैं! अकसर शाम को! 'ऐ भाई! ऊ तुमको किधर से लेखक-कबी बुझाता है जी? बकरा जइसा दाढ़ी-दाढ़ा बढ़ाने से कोई लेखक-कबी थोड़े नु बनता है? देखा नहीं था दिनकरवा को? अरे, उहे रामधारी सिंघवा? जब चदरा-ओदरा कन्हिया पर तान के खड़ा हो जाता था, छह फुटा ज्वान, तब भह-भह बरता रहता था। अखबार पर लाई-दाना फइलाय के, एक पुडि़या नून और एक पाव मिरचा बटोर के भकोसता रहता है! कबी-लेखक अइसै होता है क्या?' 'हम न अयोध्या जाएंगे, न पोखरन, अब हम इटली जाएंगे वकील साहब! आप 'शिथिलौ च सुबद्धौ च' के गिरने की आस लगाए रहिए!' राधेश्याम दूसरे कोने से चिल्लाए। ... और चुनावी मुद्दा ढू़ंढ़ रहे हो? क्यों? अयोध्या ने किसी तरह प्रधानमंत्री दे दिया और अब ऐसा मुद्दा हो, जो बहुमत की सरकार दे दे। देश का कबाड़ा हो जाए, लेकिन तुम्हें सरकार जरूर मिले। डूब मरो गड़ही में सालो! हिकारत से वीरेंद ने बेंच के पीछे थूका और रामवचन की ओर मुखातिब हुए- पांडेजी, आपको बताने की जरूरत नहीं है कि '6 दिसंबर की अयोध्या की घटना की देन क्या है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का बोध नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातोंरात! रातोंरात चंदा करके सारी मस्जिदों का जीणोर्द्धार शुरू कर दिया। पप्पू की दुकान में बैठनेवाले आप्रवासी अस्सीवाले, इस 'विश्व कल्याण' को धंधा बोलते हैं! चले आ रहे हैं दुनिया के कोने-कोने से अंगरेज-अंगरेजिन। हालैंड से, फ्रांस से, हंगरी से, आस्ट्रिया से, स्विट्जरलैंड से, स्वीडेन से, आस्ट्रेलिया से, कोरिया से, जापान से! सैकड़ों नहीं, हजारों की तादाद में - इस घाट से उस घाट तक! किसी को तबला सीखना है, किसी को सितार, किसी को पखावज सीखना है, किसी को गायन-नृत्य-संगीत, किसी को हिंदी, तो किसी को संस्कृत- कुछ नहीं तो किसी को संगीत-समारोहों में घूम-घूमकर सिर ही हिलाना है। मदद के लिए हम आगे न आइए, तो लूट लें साले पंडे, गाइड, मल्लाह, रिक्शेवाले, होटलवाले सभी! और इस मदद को धंधा बोलते हैं। कन्नी गुरू, आपने मुलुक-मुलुक के अंगरेज-अंगरेजिन का नाम लिया, अमेरिका-इंग्लैंड को छोड़ दिया क्यों? नाम मत लीजिए उनका! बड़े हरामी हैं साले! आते हैं, क्लार्क्स, ताज, डी पेरिस में ठहरते हैं, गाड़ी में दो-चार दिन घूमते हैं और बाबतपुर (हवाईअड्डा) से ही लौट जाते हैं। दिल्ली से ही अपना फिट-फाट कर आते हैं! वे क्या जानें बनारस को?

शुक्रवार, 21 मई 2010

वेबसाइट्स-ब्लॉग्स को आज भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं

हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में ब्लॉगिंग करने वालों की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ओजस सॉफ्टेक प्राइवेट लिमिटेड ने 'एफिलेट प्रोग्राम' शुरू किया है, जिसका इस्तेमाल कर ब्लॉगर कमाई कर सकते हैं। ओजस सॉफ्टेक के एफिलेट कार्यक्रम की शुरुआत बुधवार को आगरा में केंद्रीय हिन्दी संस्थान के रिजस्ट्रार चंद्रकांत त्रिपाठी ने की। ओजस सॉफ्टेक के डायरेक्टर प्रतीक पांडे ने बताया कि हिन्दी की वेबसाइट्स-ब्लॉग्स को आज भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं और इसी को ध्यान में रखकर ओजस ने यह कदम उठाया है। 'एस्ट्रो कैंप डॉट कॉम' के इस एफिलेट प्रोग्राम का इस्तेमाल बेहद सरल है। एफिलेट कार्यक्रम को सामान्य अर्थों में विज्ञापन कहा जा सकता है। इसके लिए वेबसाइट के संचालकों या ब्लागरों को सिर्फ एस्ट्रोकैंप की वेबसाइट 'एस्ट्रो कैंप डॉट कॉम/एफिलेट' पर एफिलेट प्रोग्राम का फॉर्म भरकर एक कोड हासिल करना होगा, जिसे वे अपने ब्लॉग अथवा वेबसाइट पर लगा सकते हैं।

वेबसाइट्स-ब्लॉग्स को आज भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं

हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में ब्लॉगिंग करने वालों की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ओजस सॉफ्टेक प्राइवेट लिमिटेड ने 'एफिलेट प्रोग्राम' शुरू किया है, जिसका इस्तेमाल कर ब्लॉगर कमाई कर सकते हैं। ओजस सॉफ्टेक के एफिलेट कार्यक्रम की शुरुआत बुधवार को आगरा में केंद्रीय हिन्दी संस्थान के रिजस्ट्रार चंद्रकांत त्रिपाठी ने की। ओजस सॉफ्टेक के डायरेक्टर प्रतीक पांडे ने बताया कि हिन्दी की वेबसाइट्स-ब्लॉग्स को आज भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं और इसी को ध्यान में रखकर ओजस ने यह कदम उठाया है। 'एस्ट्रो कैंप डॉट कॉम' के इस एफिलेट प्रोग्राम का इस्तेमाल बेहद सरल है। एफिलेट कार्यक्रम को सामान्य अर्थों में विज्ञापन कहा जा सकता है। इसके लिए वेबसाइट के संचालकों या ब्लागरों को सिर्फ एस्ट्रोकैंप की वेबसाइट 'एस्ट्रो कैंप डॉट कॉम/एफिलेट' पर एफिलेट प्रोग्राम का फॉर्म भरकर एक कोड हासिल करना होगा, जिसे वे अपने ब्लॉग अथवा वेबसाइट पर लगा सकते हैं।

वेबसाइट्स-ब्लॉग्स को आज भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं

हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में ब्लॉगिंग करने वालों की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ओजस सॉफ्टेक प्राइवेट लिमिटेड ने 'एफिलेट प्रोग्राम' शुरू किया है, जिसका इस्तेमाल कर ब्लॉगर कमाई कर सकते हैं। ओजस सॉफ्टेक के एफिलेट कार्यक्रम की शुरुआत बुधवार को आगरा में केंद्रीय हिन्दी संस्थान के रिजस्ट्रार चंद्रकांत त्रिपाठी ने की। ओजस सॉफ्टेक के डायरेक्टर प्रतीक पांडे ने बताया कि हिन्दी की वेबसाइट्स-ब्लॉग्स को आज भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं और इसी को ध्यान में रखकर ओजस ने यह कदम उठाया है। 'एस्ट्रो कैंप डॉट कॉम' के इस एफिलेट प्रोग्राम का इस्तेमाल बेहद सरल है। एफिलेट कार्यक्रम को सामान्य अर्थों में विज्ञापन कहा जा सकता है। इसके लिए वेबसाइट के संचालकों या ब्लागरों को सिर्फ एस्ट्रोकैंप की वेबसाइट 'एस्ट्रो कैंप डॉट कॉम/एफिलेट' पर एफिलेट प्रोग्राम का फॉर्म भरकर एक कोड हासिल करना होगा, जिसे वे अपने ब्लॉग अथवा वेबसाइट पर लगा सकते हैं।

सोमवार, 17 मई 2010

आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है।

हमारी आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है। सिंधी और नेपाली विदेशी भाषाएं हैं। पुड्डुचेरी में फ्रेंच को राज्यभाषा जैसी मान्यता प्राप्त है, लेकिन आकाशवाणी को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। एक नियम के रूप में वह इन सभी भाषाओं को वर्षों से विदेशी भाषा मानती चली आ रही है। आकाशवाणी में कई भारतीय भाषाएं विदेशी भाषा के रूप में दर्ज हैं। यही नहीं, इसे आधार बनाकर वहां वर्षों से हिंदीभाषी कर्मचारियों को दोयम दर्जे का समझा जाता है और उन्हें वेतन आदि सुविधाएं अपेक्षाकृत कम दी जाती हैं। अंग्रेजों के शासन काल में भारत के लोगों को जिस पद पर काम करने के एवज में सौ से डेढ़ सौ रुपये वेतन दिया जाता था, उसी पद पर गोरी चमड़ी वाले यूरोप के मूलवासियों को एक हजार रुपया वेतन मिलता था। अंग्रेजों के जाने के बाद चमड़ी के रंग के आधार पर तो नहीं लेकिन उम्र, लिंग, जाति और धर्म के आधार पर एक ही काम के लिए मजदूरी या वेतन कम-ज्यादा होने की शिकायतें आम रही हैं। कई संस्थानों में भाषा के स्तर पर भी समान पद और काम के बदले अलग-अलग वेतन मिलने की शिकायतें आई हैं। लेकिन ऐसी शिकायतें आमतौर पर निजी संस्थानों में दिखती रही हैं। संविधान में जाति, लिंग, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करने की शपथ ली गई है लिहाजा आमतौर पर इन आधारों पर सरकारी संस्थानों में ऐसे भेदभाव की शिकायत नहीं पाई जाती है। आकाशवाणी में जारी भाषाई भेदभाव को इस नियम का भी अपवाद माना जा सकता है।

आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है।

हमारी आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है। सिंधी और नेपाली विदेशी भाषाएं हैं। पुड्डुचेरी में फ्रेंच को राज्यभाषा जैसी मान्यता प्राप्त है, लेकिन आकाशवाणी को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। एक नियम के रूप में वह इन सभी भाषाओं को वर्षों से विदेशी भाषा मानती चली आ रही है। आकाशवाणी में कई भारतीय भाषाएं विदेशी भाषा के रूप में दर्ज हैं। यही नहीं, इसे आधार बनाकर वहां वर्षों से हिंदीभाषी कर्मचारियों को दोयम दर्जे का समझा जाता है और उन्हें वेतन आदि सुविधाएं अपेक्षाकृत कम दी जाती हैं। अंग्रेजों के शासन काल में भारत के लोगों को जिस पद पर काम करने के एवज में सौ से डेढ़ सौ रुपये वेतन दिया जाता था, उसी पद पर गोरी चमड़ी वाले यूरोप के मूलवासियों को एक हजार रुपया वेतन मिलता था। अंग्रेजों के जाने के बाद चमड़ी के रंग के आधार पर तो नहीं लेकिन उम्र, लिंग, जाति और धर्म के आधार पर एक ही काम के लिए मजदूरी या वेतन कम-ज्यादा होने की शिकायतें आम रही हैं। कई संस्थानों में भाषा के स्तर पर भी समान पद और काम के बदले अलग-अलग वेतन मिलने की शिकायतें आई हैं। लेकिन ऐसी शिकायतें आमतौर पर निजी संस्थानों में दिखती रही हैं। संविधान में जाति, लिंग, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करने की शपथ ली गई है लिहाजा आमतौर पर इन आधारों पर सरकारी संस्थानों में ऐसे भेदभाव की शिकायत नहीं पाई जाती है। आकाशवाणी में जारी भाषाई भेदभाव को इस नियम का भी अपवाद माना जा सकता है।

बुधवार, 12 मई 2010

शीला दीक्षित ने 27 साहित्यकारों को सम्मानित किया।

दिल्ली सचिवालय में आयोजित कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 27 साहित्यकारों को सम्मानित किया। इस मौके पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, कवि और लेखक जगन्नाथ प्रसाद के अलावा कई विधायक और साहित्यकार भी मौजूद थे। हिंदी अकादमी के वर्ष 2007-08 से लेकर 2009-10 के लिए साहित्यकारों को सम्मानित किया गया। 2008-09 के लिए साहित्य सम्मान छह साहित्यकारों को दिया गया। इनमें गगन गिल के अलावा द्रोणवीर कोहली, प्रो. इंद्रनाथ चौधरी, सुरेश सलिल, रामेश्वर प्रेम और डॉ. अब्दुल बिस्मिल्लाह शामिल हैं। 2008-09 का काका हाथरसी सम्मान मशहूर कार्टूनिस्ट इरफान को दिया गया। 2009-10 के लिए सम्मान पाने वालों में कन्हैया लाल नंदन, प्रो. सुधीश पचौरी, डॉ. असगर वजाहत, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, डॉ. मुजीब रिजवी और बालेंदु दाधीच शामिल हैं। 2007-08 के साहित्यिक कृति पुरस्कार आठ लेखकों को दिए गए। इनमें दया प्रकाश सिन्हा, आदित्य अवस्थी, प्रो. पवन कुमार माथुर, प्रो. पी.के. आर्य, सूरजपाल चौहान, कृपाशंकर सिंह ओर मुकेश शर्मा प्रमुख हैं। 2007-08 के बाल एवं किशोर साहित्य के लिए छह लेखकों को पुरस्कार दिए गए। ये हैं : राधा कांत भारती, डॉ. सरस्वती बाली, पूरनचंद कांडपाल, अखिल चंद, कुसुम लता सिंह और मधुलिका अग्रवाल।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

हिंदी कविताओं की किताब का प्रिंट ऑर्डर होता है पांच सौ।

हिंदी अखबारों के पाठकों में जबर्दस्त बढ़ोतरी और हिंदीभाषी की श्रेणी में डाले जाने वाले राज्यों की आबादी में लगातार हो रही वृद्धि को देखते हुए इस लेख के शीर्षक के तौर पर उठाया गया सवाल पहली नजर में हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन इसकी गंभीरता को समझने के लिए दो तथ्यों पर गौर करना चाहिए। एक, दिल्ली में हिंदी फिल्मों का एक भी हिंदी में लिखा पोस्टर नजर नहीं आता। दो, लखनऊ के एक प्रकाशक ने मुझे बताया कि हिंदी कविताओं की किताब का प्रिंट ऑर्डर होता है पांच सौ। मानना पड़ेगा कि यह संख्या काफी कम है, खासकर उस भाषा के लिए, जिसके बारे में दावा है कि वह 42 करोड़ से ज्यादा लोगों की भाषा है। अब हमें इस सच का सामना करना चाहिए और सच यह है कि हिंदी अपेक्षाकृत एक नई और कृत्रिम भाषा है। ऐन हिंदीभाषी क्षेत्र के बीचों बीच से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने जब डलहौजी को पत्र लिखा था तो वह हिंदी में नहीं, फारसी में था। और उसके करीब एक सदी बाद जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी को जब वह प्रसिद्ध पत्र लिखा -'एक पिता का पत्र बेटी के नाम' - तो वह भी हिंदी में नहीं, अंग्रेजी में लिखा गया। हिंदीभाषी क्षेत्रों के कई शहरों में हिंदी कवियों से लेकर उनके घर काम करने वाली बाइयां तक- सबके सब जिस भाषा में अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं वह हिंदी नहीं, बल्कि अंग्रेजी है। अंग्रेजी मीडियम के स्कूल इस पूरे इलाके में देर से आए मॉनसून के बाद उगने वाली खर-पतवार की तरह उग आए हैं। समस्या अंग्रेजी की वैश्विक अपील की ही नहीं, इससे भी आगे की है। चूंकि अंग्रेजी वैश्विक वित्त और वाणिज्य की भाषा है, इसलिए अच्छी नौकरियों के लिए अंग्रेजी पर अधिकार होना जरूरी हो गया है। और, भारत में ऐसी मान्यता है कि जब तक बच्चे बा-बा ब्लैक शीप.. न बोलने लगें, वे कभी अंग्रेजी में पारंगत नहीं हो सकते। इसलिए भारत में स्थानीय भाषाओं की कीमत पर भी उस भाषा को अपनाने की प्रवृत्ति तेज हो रही है, जो नई पीढ़ी को वैश्वीकरण की दुनिया में प्रवेश दिला सकती है। हिंदी के साथ एक और संकट है -भोजपुरी और मैथिली जैसी कथित बोलियों का स्वतंत्र भाषा के तौर पर उभरना। इन भाषाओं के लोग नहीं चाहते कि उनकी भाषा को हिंदी की एक बोली के रूप में पहचाना जाए। वे अपनी भाषा को एक स्वतंत्र भाषा मानते हैं। भोजपुरी फिल्मों ने हिंदी फिल्मों से अलग न केवल अपनी खास पहचान बनाई है, बल्कि काफी लोकप्रियता भी हासिल की है, जो इस रुझान का एक और संकेत है। मैथिली तो पहले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में एक अलग भाषा के रूप में शामिल की जा चुकी है। ऐसी दूसरी भाषाएं भी हैं, जिन्हें आज हिंदी की बोली के रूप में जाना जाता है। कल को ये भाषाएं स्वतंत्र भाषा के रूप में उभरती हुई हिंदी की छत्रछाया से बाहर आ सकती हैं। इसका हिंदी के आभामंडल पर क्या असर होगा? हकीकत यह है कि आकाशवाणी छाप हिंदी, जो पूरे उत्तर भारत में आम बोलचाल में प्रचलित फारसी मूल वाले शब्दों की जगह जानबूझ कर संस्कृत शब्दों को रखती है, लंबे समय तक नहीं चल सकती। भाषाएं स्टूडियो में नहीं बनाई जा सकतीं, ये तो गलियों से ही निकल कर आती हैं। आकाशवाणी छाप हिंदी इस मायने में संस्कृत जैसी है, जो एक सीमित अभिजात तबके की भाषा थी और इसलिए समूह की भाषा के रूप में जीवित नहीं रह सकी। संस्कृत मतलब परिष्कृत और परिष्कृत भाषा सिर्फ एलीट या अभिजन ही बोल सकते हैं। संस्कृत नाटकों में महिलाओं और नाबालिग पात्रों को प्राकृत (आम लोगों की अपरिष्कृत भाषा) बोलते देखा जा सकता है, मुख्य पात्र भले देवभाषा में बात करते हों। महात्मा बुद्ध ने संस्कृत की बजाय उत्तर भारत में प्रचलित आम भाषाओं को चुना, क्योंकि वे अपनी बात आम लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। अगर साहित्यिक हिंदी को समर्थक नहीं मिल रहा है और हिंदी फिल्मों के भी हिंदी पोस्टर नहीं लग रहे हैं, तो फिर हिंदी का क्या भविष्य है? इस सवाल का जवाब दरअसल इन्क्लूसिव ग्रोथ और वैश्वीकरण से जुड़ा है। किसी भाषा का रुका हुआ विकास उस समाज के रुके हुए विकास का सूचक है। यह कोई संयोग नहीं है कि देश के जिन पिछड़े राज्यों के लिए बिमारू (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश) शब्द चलाया गया, वे हिंदीभाषी राज्य हैं। जब भी किसी क्षेत्र में आबादी का एक छोटा सा ऊपरी हिस्सा आधुनिकता को अपनाता है, तो वह आधुनिकता की भाषा अपनाते हुए स्थानीय भाषा से दूरी बना लेता है। हिंदीभाषी इलाकों के साथ यही हुआ है। इन क्षेत्रों में आधुनिकता ऊपर के एक छोटे से हिस्से में आई और आबादी के इस हिस्से ने अंग्रेजी को अपना लिया। इसके उलट अगर पूरा समाज आधुनिक जीवनशैली को अपना ले तो उसकी अपनी भाषा विकसित होगी। इसीलिए आर्थिक बदलाव हिंदी के लिए महत्वपूर्ण है। जब ये क्षेत्र संरचनागत बदलावों से गुजरेंगे और लोग गैरपरंपरागत पेशों को अपनाएंगे तो उनके बीच के जातीय संबंध बदलेंगे, सामाजिक सत्ता का संतुलन बदलेगा और लोगों की भाषा बदलेगी, क्योंकि अपने जीवन के इन नए ट्रांजैक्शंस (लेनदेन) को व्यक्त करने के लिए लोगों को नए शब्द और नई अभिव्यक्तियां गढ़नी होंगी। बहुत सारे शब्द अंग्रेजी से लिए जाएंगे और उसमें कोई दिक्कत नहीं है।नई प्रगति और समृद्धि से युक्त नए भौतिक जीवन का निर्माण करते हुए लोग नई भाषा भी गढ़ेंगे और यह नई हिंदी होगी। हिंदी अखबारों में भी इस प्रवृत्ति की झलक मिलेगी। लेकिन, बड़े पैमाने पर ऐसा हो, इसके लिए व्यापक स्तर पर लोगों को विकास प्रक्रिया में शामिल करना होगा। और यह काम हिंदीभाषी राज्यों में बुनियादी राजनीतिक सशक्तीकरण और प्रशासनिक सुधारों के बगैर संभव नहीं है। इन्क्लूसिव ग्रोथ की लड़ाई, माओवाद के खिलाफ लड़ाई और हिंदी की अस्मिता की लड़ाई - ये तीनों लड़ाइयां, दरअसल काफी हद तक एक ही हैं।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

मॉडलिंग करना हराम

इस्लामी शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद ने एक फतवा जारी कर कहा है कि मुस्लिम लड़कियों का मॉडलिंग करना हराम और शरियत कानून के खिलाफ है। दारुल उलूम देवबंद के फतवा विभाग की पांच सदस्यीय बेंच के मुख्य मुफ्ती हबीब उर रहमान, मुफ्ती महमूद हसन, मुफ्ती फखरूल इस्लाम, मुफ्ती जैनुल इस्लाम और मुफ्ती वकार अली ने यह फतवा जारी किया। इसमें उन्होंने कहा कि महिलाओं के मॉडलिंग करने तथा उस दौरान भौंडेपन और बदन का प्रदर्शन करने वाले लिबास पहनना शरियत कानून के खिलाफ है। इस्लामी कानून में ऐसा करना हराम है।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

राजभाषा सम्मेलन का लुत्फ

मैं भी दिनांक 27 मार्च 2010 को आयोजित राजभाषा सम्मेलन का लुत्फ उठाने जा रहा हूं क्योंकि इस सम्मेलन में सरकारी प्रायोजित खाना, प्रायोजित बैग, पैन पैड तथा कुछ अभिशाप्त पत्रिकाओं की दुगर्ती देखने का अहसास कर मन को आनंदित महसूस करूंगा ।
स्पष्ट है कि हिनदी आज राष्ट्रभाषा नहीं है यह राजभाषा विभाग का कथन है तथा राजभाषा के नाम पर झूठे आंकडों के खेल में कोई महाझूठा प्रथम पुरस्कार प्राप्त करता है तो दूसरे अगले वर्ष उससे अधिक झूठ बोलने का संकल्प लेते है । राजभाषा विभाग इस कडी में एक संयोजक की भूमिका में है वह कुछ अति अवांछित व्यक्तियों को विभिनन मंत्रालयों की हिन्दी सलाहकार समितियों में नामित कर उन्हे धन्य कर देता है जिन्होने राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अन्तर को समझने की कोशिश भी कभी नहीं की । खैर यह तो खीजने की बात ही कही जाएगी परन्तु मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूं कि इस सम्मेलन की वजय से दमण में घूमने का मौका मिलेगा ।

बुधवार, 24 मार्च 2010

बिहार आते हैं तो कोई उनसे हिंदी सीखने को नहीं कहता।'

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे के उत्तर भारतीयों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान पर कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए वरिष्ठ बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा ने मंगलवार को कहा कि बिहार में किसी भी बाहरी व्यक्ति को हिंदी सीखने को नहीं कहा गया। बिहार फाउंडेशन के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सिन्हा ने कहा, 'जब बाहरी लोग बिहार आते हैं तो कोई उनसे हिंदी सीखने को नहीं कहता।' किसी का नाम लिए बिना सिन्हा ने कहा, 'बिहारी पूरी दुनिया में फैले हुए हैं, लेकिन उनका इस तरह का नफरत का रवैया नहीं होता। बिहार के लोगों से अधिक उदार व्यक्ति मिलना मुश्किल है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम दूसरों को अपनाते हैं।' राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है और हाल ही में उन्होंने बिहार और उत्तर प्रदेश के टैक्सी चालकों से मराठी सीखने या अपने घरों को लौटने को कहा था। आजादी के बाद बिहार से बाहर के लोगों के उद्योगों में काम करने के लिए राज्य में आने का जिक्र करते हुए सिन्हा ने कहा, 'बिहारियों ने कभी उनसे यह नहीं पूछा कि आप कहां से आए हैं।' उन्होंने कहा, 'वे आपसे हिंदी सीखने को नहीं कहते। आज इस प्रकार के खुले दिमाग वाले रवैये की जरूरत है।' सिन्हा ने कहा, 'यदि तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्य तरक्की कर रहे हैं तो ऐसा बिहारियों के योगदान और धन की वजह से हो रहा है।' मुम्बई में बिहारियों की संख्या के बारे में बीजेपी नेता ने कहा, 'मैं हाल ही में एक फिल्म स्टूडियो में गया था, जहां अधिकतर कामगार बिहार से थे।'

गुरुवार, 4 मार्च 2010

हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं

कुछ अरसा पहले शिमला में हिंदी पर हुई एक वर्कशॉप में एक दिलचस्प फिकरा सुनने को मिला था कि 'आखिर हिंदी का इस्लाम कब तक खतरे में रहेगा।' इस अनोखी टिप्पणी की गूंज अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि इस बीच हिंदी पर एक और हंगामा हुआ। मराठी की राजनीति के जरिए उठे इस विवाद की प्रतिक्रिया में एक विचित्र सुझाव आया कि क्यों न देश में हिंदी पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए। यह सुझाव देने वालों को शायद यह नहीं पता था कि अपनी स्वाभाविक विकास प्रक्रिया में ही हिंदी पूरे देश के लिए लगभग अनिवार्य होती जा रही है। हिंदी के इस्लाम वाली बात भले ही मुहावरे में कही गई थी, पर पिछले कुछ संदर्भों पर नजर डालने से इस मुहावरे की जमीन का पता चलता है। उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में हिंदी एक खास तरह की राजनीति के तहत हिंदू भाषा के रूप में बदनाम हो गई थी, पर यही भाषा अपनी पहुंच और इस्तेमाल की सुविधा के कारण लंबे अरसे से इस्लाम के प्रचार के लिए इस्तेमाल हो रही है। पिछले दिनों देवबंद द्वारा जारी किए गए फतवों के बारे में एक तथ्य हिंदी से जुड़ा भी है जिस पर शायद किसी की नजर नहीं गई। आम समझ के मुताबिक किसी इस्लामिक धार्मिक संगठन का फतवा उर्दू में होना चाहिए। लेकिन आश्चर्य की बात है कि ये सभी फतवे हिंदी में लिखे गए हैं। इनकी हिंदी का रूप अरबी-फारसी के असर वाली हिंदुस्तानी का न होकर आजकल चलन में आ चुकी कोर्स की किताबों वाली हिंदी का है, जिसमें गुसलखाने को स्नानघर और हाजत को शौचालय कहा जाता है। इतना ही नहीं, एक लंबे अरसे से मस्जिदों में नमाजियों के लिए लिखी जाने वाली हिदायतों और कब्रिस्तानों में कब्रों के ऊपर लिखी जाने वाली इबारतों में इसी तरह की हिंदी का इस्तेमाल बढ़ रहा है। पहली नजर में लगता है कि यह हिंदी के प्रसार का एकदम नया क्षेत्र है। लेकिन बात कुछ और है। इतिहास बताता है कि मुसलमानों में धार्मिक संदेश देने की भाषा के रूप में तबलीगी जमात हिंदी का शुरू से ही इस्तेमाल कर रही है और कुरान-ए-पाक का हिंदी तरजुमा श्रद्धालुओं के बीच सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब है। तमिलनाडु कभी हिंदी विरोध का अड्डा हुआ करता था। पर 1965 के हिंदी विरोधी दंगों में वहां हुई हिंसा और आगजनी का एक तथ्य बहुत कम लोगों को मालूम है कि उस दौरान दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचारिणी सभाओं के दफ्तरों और अन्य संपत्तियों पर एक भी हमला नहीं हुआ था। लोग द्रमुक सरकार के मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादुरै का यह वक्तव्य भी भूल गए हैं कि वे और उनकी सरकार हिंदी प्रचार के खिलाफ नहीं हैं। उन्हें ऐतराज इस भाषा को उन पर थोपे जाने से है। अन्नादुरै का कहना था कि संपर्क भाषा कौन सी होगी, यह बात केंद्र सरकार तय नहीं कर सकती। यह काम इतिहास की ताकतों पर छोड़ना चाहिए। दरअसल, इतिहास की ताकतें अब यह फैसला कर चुकी हैं। दो साल पहले 45 प्रमुख गैर-हिंदीभाषी बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन में यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर आई कि केवल हिंदी ही देश की संपर्क भाषा बनने की हैसियत रखती है। कारण वही है : विभिन्न रूपों में रमने और पनपने की उसकी क्षमता। आज दक्षिण भारत में हिंदी उस दौर के मुकाबले कहीं ज्यादा सीखी जा रही है, जिस दौर में वहां बाकायदा राष्ट्रवादी परियोजना के रूप में उसका प्रचार किया जाता था। आज हिंदी का प्रचार वहां जरूरत से उपजी मांग की वजह से है। जिन्हें अखिल भारतीय प्रॉडक्ट लाइन में धंधा करना है, उन्हें हिंदी बोलना और समझना तो सीखना ही होगा। युवा और महत्त्वाकांक्षी तमिल पीढ़ी को ऐसा करने से द्रमुक वाले भी नहीं रोक सकते। आज हालत यह है कि अगर आप केवल अंग्रेजी बोलते हैं तो चेन्नई में रास्ता नहीं पूछ पाएंगे, लेकिन अगर हिंदी आती है तो रास्ता भूलने का कोई डर नहीं है। इस बदलाव का कारण है हिंदी द्वारा अपनी एकरूपता की जकड़ से निकल जाना। अब हिंदी के जीवन और विकास ठेका केवल साहित्यिक गोष्ठियों में रुक-रुक कर बोली जाने वाली आलोचना की भाषा के पास नहीं रह गया है। यह जिम्मेदारी अब बहुत तरह की हिंदियों के विविध कंधों पर है। आज टीवी की हिंदी अलग तरह की है, प्रिंट मीडिया से उसका मेल नहीं किया जा सकता। वह बोलचाल के मुहावरे वाली इंस्टेंट हिंदी है जिसे फौरन बोलना पड़ता है। एफएम चैनल एकदम नए तरह की हिंदी लेकर आए हैं जिसमें मजाक, मिमिक्री और पैरोडी का बोलबाला है। फिल्मों की हिंदी भी बदल चुकी है क्योंकि उसे पता चल गया है कि नए पॉप कल्चर के मुताबिक अपने-आप को ढालना उसके लिए लाजमी हो चुका है। पिछले 30 साल में वह हिंदी जो एक थी, अब किस्म-किस्म की हिंदियों में पनप रही है। एक हिंदी की अनेकता का यह सिलसिला 80 के दशक में शुरू हुआ था, जब पत्रकारिता की दुनिया साहित्य से अलग होकर एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित हुई थी। उसके बाद से पत्रकार होने के लिए साहित्यकार होना जरूरी नहीं रह गया। फिर टीवी के सीरियल लिखने के लिए भी साहित्यकार होने की शर्त मिट गई। 90 के दशक में रेडियो जॉकी बनने की ट्रेनिंग अलग से दी जाने लगी। हिंदी में टीवी एंकरिंग एक अलग आर्ट की तरह विकसित होने लगी। कारण अलग-अलग हैं और हर तरह की सामाजिक जरूरत को पूरा करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी भी अलग-अलग है। इस तरह हरेक पहचान की आवाज बनकर ही हिंदी एक जीवंत भाषा होने का कर्त्तव्य पूरा कर पाएगी। इस बदलाव पर हिंदी के शुद्धतावादी चाहे जितने ऐतराज करें, पर उनकी आपत्तियों पर अब कोई कान नहीं दे रहा है। हिंदी वक्त के साथ चल रही है, वे वक्त के खिलाफ खड़े हैं।
केन्द्र सरकार ने यह स्पष्ट किया है ​कि हिन्दी संविधान के अनुसार राष्ट्रभाषा नहीं है यह जानकारी केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय माकन ने श्री चतुर्वेदी कोएक लिखित प्रश्न के उत्तर में दी है ।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

बजट में टैक्सपेयर्स को बड़ी राहत

वित्त मंत्री ने बजट में टैक्सपेयर्स को बड़ी राहत दी है। टैक्स स्लैब में बदलाव का ऐलान करते हुए उन्होंने कहा कि इससे 60 % टैक्स पेयर्स को राहत मिलेगी। अब वित्त मंत्री के नए ऐलान के अनुसार , अब 1 लाख 60 हजार रुपये से ज्यादा और 5 लाख रुपये तक की आमदनी पर 10 परसेंट टैक्स लगेगा। 5 लाख रुपये से 8 लाख रुपये तक की आमदनी पर 20 परसेंट टैक्स लगेगा और 8 लाख रुपये से ज्यादा की आमदनी पर 30 परसेंट टैक्स लगेगा। अब तक इंडिविजुअल को 1 लाख 60 हजार रुपये तक की आमदनी पर कोई टैक्स नहीं लगता है। 1 लाख 60 हजार रुपये से ज्यादा और 3 लाख रुपये तक की आमदनी पर 10 परसेंट टैक्स लगता है। 3 लाख रुपये से 5 लाख रुपये तक की आमदनी पर 20 परसेंट टैक्स लगता है और 5 लाख रुपये से ज्यादा की आमदनी पर 30 परसेंट टैक्स लगता है। नए टैक्स स्लैब से 3 लाख रुपये तक की सालाना आमदनी वालों को तो कोई फायदा नहीं होगा लेकिन इससे अधिक आमदनी वालों को काफी फायदा होगा। इतना ही नहीं , इनकम टैक्स की धारा 80 सी के तहत 1 लाख रुपये के निवेश पर अब तक टैक्स छूट है। अब वित्त मंत्री ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति इस निवेश के अलावा साल में 20 हजार रुपये का लॉन्ग टर्म इन्फ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड खरीदता है तो उसे इस खरीद पर टैक्स छूट मिलेगी। बजट में इनकम टैक्स के नए स्लैब इस प्रकार रखे गए हैं आम इंडिविजुअल टैक्सपेयर 1,60,000 रुपये तक : शून्य 1,60,001 रुपये से 5 लाख रुपये : 10 प्रतिशत 5,00,001 रुपये से 8,00,000 रुपये : 20 प्रतिशत 8,00,001 रुपये से अधिक : 30 प्रतिशत महिला टैक्सपेयर 1,90,000 रुपये तक : शून्य 1,90,001 रुपये से 5 लाख रुपये : 10 प्रतिशत 8,00,001 रुपये से अधिक : 30 प्रतिशत सीनियर सिटिजन 2,40,000 रुपये तक : शून्य 2,40,001 रुपये से 5 लाख रुपये : 10 प्रतिशत 8,00,001 रुपये से अधिक : 30 प्रतिशत

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

वोट पॉलिटिक्स के लिए स्कूलों में अंग्रेजी के बदले हिंदी लागू कराते हैं।

किसी भी राइटर या जर्नलिस्ट के बच्चे हिंदी मीडियम स्कूलों में नहीं पढ़ते। पिछले दिनों एक सर्वे किया, जिसका उद्देश्य यह जानना था कि हिंदी माध्यम से काम करने वाले लोग अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा किन स्कूलों में करा रहे हैं। और नौकरी के माध्यम से हिंदी की सेवा करने के अलावा अपनी निजी जिंदगी में हिंदी भाषा के उत्थान के लिए वे और क्या-क्या करते हैं। इस सर्वे के लिए दो बेहद साधारण से सवाल पूछे गए। एक, आपने अपनी पढ़ाई किस तरह के स्कूल में की है -सरकारी या प्राइवेट -हिंदी मीडियम वाले या इंग्लिश मीडियम वाले? और दो, आपके बच्चे किस मीडियम से पढ़ाई कर रहे हैं? सर्वे में पाया गया कि इस हिंदी अखबार के संपादकीय विभाग में काम करने वाले 80 प्रतिशत लोगों ने अपनी स्कूली शिक्षा सरकारी स्कूलों में प्राप्त की है और उनका सीखने का प्रारंभिक माध्यम हिंदी रही है। जिन लोगों ने अंग्रेजी मीडियम से पढ़ाई की है, उनमें से सिर्फ पांच प्रतिशत लोग संपादकीय विभाग में हैं। ये नए जर्नलिस्ट हैं, जिनकी उम्र अभी 25 साल से कम है और इनकी स्कूलिंग हिंदी प्रदेशों की राजधानियों या अपेक्षाकृत छोटे शहरों में हुई है। एनबीटी से जुड़े और अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में पढ़े शेष 15 प्रतिशत एंप्लॉईज या तो इंजीनियरिंग और डिजाइनिंग वाले कामकाज से जुड़े हैं या दूसरे टेक्निकल कामकाज से। इस सर्वे में संपादकीय विभाग के अलावा इस अखबार से जुड़ी इंजीनियरिंग, डिजाइनिंग, फोटोग्राफी और प्रॉडक्शन जैसी यूनिट्स को भी रखा गया। क्या हिंदी मीडियम से पढ़ाई करके आए लोग अब अपने बच्चों को हिंदी माध्यम वाले स्कूलों में भेज रहे हैं? इसका जवाब पूरी तरह से 'ना' में मिलता है। सर्वे में पाया गया कि पिअन और क्लर्क/ टाइपिस्ट भी अब अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही भेज रहे हैं। नौकरी में आने से जिन लोगों का एम्पावरमेंट हुआ है, उनमें से किसी का भी बच्चा हिंदी माध्यम वाले स्कूलों में नहीं जाता। इस सर्वे में वे लोग भी शामिल हैं जो आज से 25-30 साल पहले नौकरियों में आए थे। तब देश में उदारीकरण का दौर पूरी तरह से शुरू नहीं हुआ था। इसका मतलब यह है कि हिंदी मीडियम में काम करने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम वाले स्कूलों में पढ़ाने की जरूरत लिबरलाइजेशन शुरू होने के पहले से ही महसूस कर रहे थे। एनबीटी में सिर्फ एक तिहाई लोग ऐसे हैं, जिनके बच्चे फिलहाल पढ़ रहे हैं या अपनी पढ़ाई पूरी कर चुके हैं। शेष कर्मचारियों की अभी या तो शादी नहीं हुई है या बच्चे स्कूल जाने लायक नहीं हैं। ऐसे छोटे बच्चों वाले ये माता/पिता स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे उन्हें अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही पढ़ाएंगे। एनबीटी ने अपने ही बेडरूम से पर्दा क्यों उठाया? ऐसा इसलिए किया गया ताकि हम अपनी सोच के दोहरेपन को समझ सकें। यह छोटा सा सर्वे किसी भी अन्य दफ्तर में किया जा सकता है। चाहे वे हिंदी के दूसरे अखबार हों या कॉलेजों-यूनिवर्सिटियों के हिंदी विभाग। अन्य विभागों में भी हिंदी का कोई लेक्चरर या स्कूली शिक्षक या अनुवादक अपने बच्चों को हिंदी माध्यम से पढ़ाने में सहज नहीं महसूस करता। उसका प्रयास अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने का ही रहता है। ऐसा वह हिंदी के प्रति अपने प्रेम के कम होने के कारण नहीं, बल्कि भविष्य और नौकरी की बेहतर संभावनाओं को देखते हुए करता है। एनबीटी लंबे समय से अपने पाठकों को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि हिंदी हमारी सांस्कृतिक भाषा है, लेकिन इसके प्रति अपने तमाम भावनात्मक लगाव के बावजूद फ्यूचर टूल के रूप में हमारे लिए अंग्रेजी सीखना जरूरी है। हिंदी के अनेक प्रतिष्ठित विद्वान इससे असहमति व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि यह बाजारवाद के समर्थन में गढ़ा गया तर्क है। जब अंग्रेजी सीखने की सलाह दी जाती है तो वे कहते हैं कि ऐसा इसलिए कहा जा रहा है ताकि हिंदी को कमजोर भाषा साबित किया जा सके और धीरे-धीरे उसे नष्ट कर दिया जाए। कुछ विद्वान इससे भी एक कदम आगे जाते हैं। हिंदी भाषा पर आयोजित होने वाली कार्यशालाओं और गोष्ठियों में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि यह एक अंतरराष्ट्रीय साजिश है। हिंदी को कमजोर बना कर दरअसल हमारी संस्कृति की जड़ें काटने की कोशिश की जा रही है, ताकि इस पूरे क्षेत्र को नए किस्म के उपनिवेश में बदला जा सके। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि ये बातें वे किसके लिए कहते हैं, क्योंकि हमारी संस्कृति तो पहले ही काफी कुछ बदल चुकी है। हिंदी के पक्ष में ऐसे सारगर्भित भाषण देने वालों में से अब शायद ही कोई धोती-कुर्ता पहनता हो या अपने बैंकिंग ऑपरेशंस हिंदी के माध्यम से चलाता हो। यदि किसी की निजी या पारिवारिक जिंदगी में हिंदी का हिस्सा घटता जा रहा हो, लेकिन वह दूसरों पर हिंदी विरोधी होने का आरोप लगा रहा हो- तो लगता है कि ऐसा वह अपने पद और प्रतिष्ठा के बचाव के लिए कर रहा है, जो फिलहाल उसे हिंदी की वजह से प्राप्त है। हिंदी का महत्व बढ़ाना उसका वास्तविक मिशन नहीं है। इसके अलावा वह भाषा के प्रति भावुक बना कर उस नई पीढ़ी को भी गुमराह कर रहा है, जिसे नौकरियों और बाहरी जरूरतों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हमने अनेक ऐसे नेताओं को देखा है जिनके बच्चे उम्दा अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े हैं, लेकिन जो अपने भाषणों में अंग्रेजी हटाने की बातें कहते हैं या सत्ता में आने पर वोट पॉलिटिक्स के लिए स्कूलों में अंग्रेजी के बदले हिंदी लागू कराते हैं।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

हिंदी ही तो हमारी ‘राष्ट्रभाषा’ है...

26 जनवरी से एक दिन पहले से ही टीवी पर 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' के नए वर्जन का शोर मचा था। प्रोमो देखकर मन में पूरा गीत देखने की उत्सुकता जगी थी। एक दिन बाद ही टीवी पर पूरा वर्जन देखा, एक-दो बार नहीं कई बार। यह पहले वाले से बेहतर है या नहीं, इस पर बहस कभी और... लेकिन एक बात जो दिमाग में आई वह यह है कि - 'मिले सुर' की रीढ़ हिंदी की न होती तो भी क्या यह इतना लोकप्रिय होता? जिस दिन नया 'मिले सुर' रिलीज हुआ, एक नामी टीवी न्यूज़ चैनल पर ऐंकर को कहते सुना, ‘मुझे तीन भाषाएं आती हैं – अंग्रेजी, हिंदी और मैथिली लेकिन जब मैं छोटा था तब 14 भाषाओं में गा लेता था। यह कमाल था 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' का जिसने सही मायने में हर देशवासी को अलग-अलग हिस्सों की भाषा से जोड़ा।’ 'जन गण मन' और 'वंदे मातरम' के बाद शायद 'मिले सुर' ही ऐसा गीत है जिसे सुनते ही हर भारतीय के हृदय के तार बज उठते हैं। लता मंगेशकर द्वारा गाया अमर गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों' हर व्यक्ति को भावुक कर देता है जबकि नई पीढ़ी का ऐंथम 'जय हो' दिल में एक अनोखा उत्साह भर देता है। लेकिन 'मिले सुर' का जो असर हम पर होता है वह अद्भुत है। यह संभव हुआ है हिंदी भाषा की सबको साथ रखने, सबके साथ मिल-जुलकर चलने की विशेषता की वजह से। आजकल सबसे ज्यादा लोकप्रिय टीवी सीरियलों में भी पृष्ठभूमि गुजराती हो या मराठी या फिर पजाबी, हरियाणवी, मूल भाषा हिंदी ही होती है। उदाहरण के लिए बालिका वधू, केसरिया बालम आवो म्हारे देस, बैरी पिया, अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, न आना इस देस लाडो और तारक मेहता का उल्टा चश्मा। इन सब सीरियलों में दाल हिंदी की ही है बस छौंक स्थानीय भाषा की लगा दी गई है। पुराने खयालात के लोग हिंदी में अंग्रेजी की घुसपैठ के खिलाफ रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजी के नए-नए शब्द हमारी बोलचाल में जुड़ते जा रहे हैं। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में तो हिंदी अंग्रेजी की मिलीजुली खिचड़ी यानी हिंग्लिश ही मुख्य भाषा बनती जा रही है। जैसे बाकी दुनिया के साथ जुड़ने का हमारा माध्यम अंग्रेजी है वैसे अपने देश में अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ने का माध्यम हिंदी है। कोई कितना भी विरोध करे दूसरी भाषाओं के साथ हिंदी का मेलजोल और मजबूत होता जाएगा। जैसे हैदराबाद की हैदराबादी हिंदी और मुंबई की मुंबइया हिंदी। दरअसल हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा है। जबर्दस्ती वाली नहीं, आधिकारिक नहीं, लेकिन व्यावहारिक और सामयिक और इससे ज्यादा कुछ होने की जरूरत भी नहीं है। चेन्नै जाइए या भुवनेश्वर या फि कोल्हापुर। हिंदी में किसी से कुछ पूछिए, अगला व्यक्ति समझ जाता है कि आप क्या कहना चाहते हैं। जवाब भी टूटी-फूटी हिंदी में आ जाता है। हिंदी किसी स्थानीय भाषा की दुश्मन नहीं। हर भाषा का अपना समृद्ध इतिहास और महत्व है। महाराष्ट्र में भी झगड़ा हिंदी को लेकर नहीं है हिंदीभाषियों को लेकर है। लेकिन उनको निशाना बनाने के लिए हिंदी की ही आड़ ली जा रही है। मराठी सीखो, मराठी बोलो... मराठी या किसी और भाषा को सीखने में आखिर कितना वक्त लगता है? ज्यादा से ज्यादा कुछ हफ्ते। मैं कुछ ही दिनों के लिए पुणे गया तो काइ झाला (क्या हाल है), इकड़े बसा (यहां बैठो), मी जातो (मैं जा रहा हूं), थंबु नका (रुकना मना है), मला काए पाइज़े (मैं क्या करूं) तुझे नाव काय आहे? (तुम्हारा नाम क्या है) जैसे शब्द सीख गया। नई भाषा सीखना और उसका इस्तेमाल करना कोई शर्म की बात नहीं है। इससे दिमाग की भी कसरत होती है। लोग जब भी नई जगह जाते हैं तो वहां की बातें सीखते हैं और इसके लिए इतना जोर-जबर्दस्ती करने की जरूरत नहीं होती। मुझे लगता है हिंदीभाषी हो या कोई और भाषी, सबसे जरूरी है मृदुभाषी होना। नवभारतटाइम्स.कॉम पर कॉमेंट करने वाले कई मराठी पाठक तमिलनाडु की दुहाई देते हैं। असल में वे बीते जमाने की बात कर रहे हैं। मेरा अपना अनुभव है कि दक्षिण भारत में हिंदी बोलने वालों से किसी को एतराज नहीं है। आप हिंदी में बात करेंगे तो वे भी हिंदी में बात करने की कोशिश करते हैं। लेकिन भाषा के आधार पर कई जगहों पर कुछ लोग कटुता फैलाने की कोशिशें कर रहे हैं। पुणे में कई घरों के आगे लिखा देखा, 'कुत्रेपासून सवधा रहा।' समझदार को इशारा काफी...

करुणा : शिवसेना के रुख को महाराष्ट्र में भी लोगों का समर्थन नहीं है

महाराष्ट्र भारतीयों का या मराठियों का
, इस विवाद में अब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम . करुणानिधि भी कूद पड़े हैं। करुणा ने कहा है कि शिवसेना के रुख को महाराष्ट्र में भी लोगों का समर्थन नहीं है। उन्होंने शिवसेना के इस दावे को भी सिरे से नकार दिया कि दक्षिण भारत में लोग हिन्दी विरोधी हैं। करुणानिधि ने कहा , महाराष्ट्र में भी उनके ( उद्धव ठाकरे ) रुख को लोगों का समर्थन हासिल नहीं है। गौरतलब है कि उद्धव ठाकरे ने रविवार को अपनी पार्टी के इस रुख का बचाव करते हुए बीजेपी और संघ समेत अन्य दलों पर हमला बोला था। संघ ने शिवसेना के महाराष्ट्र पर दिए गए बयान पर पलटवार करते हुए कहा था कि मुंबई पूरे भारतवासियों के लिए है।
इस मामले में संघ ने अपने स्वयंसेवकों से उत्तर भारतीयों की रक्षा सुनिश्चित करने को कहा है। करुणानिधि ने दक्षिण भारत के लोगों का हिन्दी विरोधी होने संबंधी बयान को खारिज करते हुए कहा कि राजनीतिक दलों के पास कोई संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा - कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो इतना संकीर्ण मानसिकता रखती है कि अपने लोगों को अपने प्रदेश की भाषा बोलने के अलावा अन्य भाषाएं बोलने से रोकती हो। गौरतलब है कि 1960 के दशक में करुणानिधि की डीएमके समेत अन्य द्रविड़ पार्टियों के लिए हिन्दी विरोधी अभियान एक बड़ा मुद्दा हुआ करता था , लेकिन हाल में वह इससे ऊपर उठे हैं।

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

डॉ. पी सी सहगल - कमलापति त्रिपाठी स्वर्ण पदक से सम्मानित


मुंबई रेलवे विकास कॉर्पोरेशन के प्रबंध निदेशक डॉ. पी सी सहगल को कमलापति त्रिपाठी राजभाषा स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया है । यह सम्मान दिनांक 27 जनवरी, 2010 को रेलवे बोर्ड नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड श्री सुरिन्दर सिंह खुराना के कर-कमलों द्वारा प्रदान किया गया । समारोह में बोर्ड तथा अन्य भारतीय रेलों के सभी वरिष्ठ अधिकारी मौजू़द थे ।

ह सम्मान भारतीय रेलों में कार्यरत अधिकारियों के लिए सर्वोच्च्य सम्मान है जो कि महाप्रबंधक स्तर के अधिकारियों को उनकी विशिष्ठ सेवाओं के लिए दिया जाता है जिसमें राजभाषा के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय कार्यो का समावेश है । यह पहला अवसर है कि भारतीय रेलों के उपक्रमों में कार्यरत प्रबंध निदेशक को यह सम्मान प्राप्त हुआ है ।

उल्लेखनीय है कि डॉ. पी सी सहगल ने हिन्दी में नई तकनीक की ए सी डी सी रेक नामक तकनीकी पुस्तक लिखी है जिसे इसी कार्यक्रम में प्रथम पुरस्कार दिया गया है ।

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

भारत में कोई राष्ट्र भाषा है ही नहीं!

क्या आप जानते हैं भारत में कोई राष्ट्र भाषा है ही नहीं! गुजरात हाई कोर्ट ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा है कि भारत की अपनी कोई राष्ट्र भाषा है ही नहीं। कोर्ट ने कहा है कि भारत में अधिकांश लोगों ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है। बहुत से लोग हिन्दी बोलते हैं और हिन्दी की देवनागरी लिपि में लिखते भी हैं। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि हिन्दी इस देश की राष्ट्र भाषा है ही नहीं। चीफ जस्टिस एस. जे. मुखोपाध्याय की बेंच ने यह उस समय कहा जब उसे डिब्बाबंद सामान पर हिन्दी में डीटेल लिखे होने के संबंध में एक फैसला सुनाना था। पिछले साल सुरेश कचाड़िया ने गुजरात हाई कोर्ट में पीआईएल दायर करते हुए मांग की थी सामानों पर हिन्दी में सामान से संबंधित डीटेल लिखे होने चाहिए और यह नियम केंद्र और राज्य सरकार द्वारा लागू करवाए जाने चाहिए। पीआईएल में कहा गया था कि डिब्बाबंद सामान पर कीमत आदि जैसी जरूरी जानकारियां हिन्दी में भी लिखी होनी चाहिए। तर्क में कहा गया कि चूंकि हिन्दी इस देश की राष्ट्र भाषा है और देश के अधिकांश लोगों द्वारा समझी जाती है इसलिए यह जानकारी हिन्दी में छपी होनी चाहिए। इस पूरे मामले पर तर्क वितर्क के दौरान कोर्ट का कहना था कि क्या इस तरह का कोई नोटिफिकेशन है कि हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है क्योंकि हिन्दी तो अब तक 'राज भाषा' यानी ऑफिशल भर है। सरकार द्वारा जारी ऐसा कोई नोटिफिकेशन अब तक कोर्ट में पेश किया गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि हिन्दी देश की राज-काज की भाषा है, न कि राष्ट्र भाषा। अदालत ने पीआईएल पर फैसला देते हुए कहा कि निर्माताओं को यह अधिकार है कि वह इंग्लिश में डीटेल अपने सामान पर दें और हिन्दी में न दें। इसलिए, अदालत केंद्र और राज्य सरकार या सामान निर्माताओं को ऐसा कोई आदेश (mandamus) जारी नहीं कर सकती है।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

राजभाषा के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य के लिए डॉ. पी सी सहगल को कमलापति त्रिपाठी राजभाषा पदक

राजभाषा के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य के लिए डॉ. पी सी सहगल को कमलापति ​त्रि​पाठी राजभाषा पदक देने की घोषणा रेलवे बोर्ड ने की है । यह पुरस्कार महाप्रबंधक स्तर के अधिकारी को राजभाषा के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य के लिए दिया जाता है । पुरस्कार 27 जनवरी को बोर्ड कार्यालय में प्रदान किया जाएगा । इसके अतिरिक्त डॉ. सहगल को उसी दिन तकनीकी पुस्तक हिन्दी मेंलिखने के लिए लालबहादुर शास्त्री तकनीकी लेखन का प्रथम पुरस्कार भी प्रदान किया जाएगा जिसमें 15 हजार रूपये नकद राशि दी जाती है

रविवार, 10 जनवरी 2010

जहां सिर्फ अंग्रेजी या स्पैनिश या इस तरह की कोई और भाषा है, वहां सिर्फ हिंदी के सहारे काम नहीं चल सकता।

यदि किसी के मन में सचमुच ग्लोबल सिटिजन बनने की लालसा हो तो उसका काम अंग्रेजी के बिना नहीं चल सकता। अंग्रेजी भविष्य का उपकरण है- फ्यूचर टूल। भाषाओं के बारे में किए गए एक मोटे सर्वे से यही नतीजा निकलता है।
दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है चीन की मंदारिन। लगभग 84 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी यह प्राथमिक भाषा है। दूसरे देशों में मातृभाषा को प्राथमिक भाषा (प्राइमरी लैंग्वेज) कहते हैं। यदि इनमें उन लोगों को भी शामिल कर लें जो इसे बोल और समझ सकते हैं, लेकिन जिनके लिए यह सेकंडरी लैंग्वेज है तो मंदारिन भाषियों की संख्या एक अरब से भी ज्यादा हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र में भी यह मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। लेकिन इसका भौगोलिक विस्तार कम है। यह सिर्फ चीन के एक बड़े हिस्से में बोली जाती है। इसके अलावा तिब्बत, ताइवान, सिंगापुर और ब्रुनेई में भी इसका कुछ-कुछ चलन है।बोलने वालों के लिहाज से स्पैनिश का नंबर दूसरा है, लेकिन इसका भौगोलिक विस्तार मंदारिन से कहीं ज्यादा है। स्पेन के अलावा यह ब्राजील, चिली, इक्वाडोर, कोस्टारिका, डोमनिकन रिपब्लिक, निकारागुआ, पराग, होंडुरास, गुयाना, ग्वाटामाला और अल सल्वाडोर में भी प्रचलित है। यहां तक कि अमेरिका में भी स्पैनिश बोलने वालों की अच्छी तादाद है। स्पैनिश 32 करोड़ लोगों की प्राथमिक भाषा है। यदि इसमें सेकंडरी लैंग्वेज वालों को भी जोड़ लें तो पूरी दुनिया में 40 करोड़ से ज्यादा लोग इस भाषा का व्यवहार कर रहे हैं। यूएन की छह मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक स्पैनिश भी है।
मंदारिन और स्पैनिश की तुलना में अंग्रेजी को अपना प्राइमरी लैंग्वेज बताने वालों की संख्या आज भी कम है, वैसे है यह भी 32 करोड़ के आसपास ही। लेकिन इसमें सेकंडरी लैंग्वेज वालों को मिला दें, तो यह स्पैनिश से कहीं ज्यादा लोकप्रिय है। अंग्रेजी का सबसे मजबूत पक्ष है इसका भौगोलिक विस्तार। ब्रिटेन के अलावा उत्तरी अमेरिका, मध्य अमेरिका और अफ्रीका के ज्यादातर देशों में इसे ऑफिशल लैंग्वेज का स्टेटस मिला हुआ है। इसके अलावा बहुत सारे देश ऐसे हैं, जहां यह प्रचलन में तो खूब है, लेकिन इसे एकमात्र ऑफिशल लैंग्वेज नहीं माना जाता। ज्यादातर एशियाई देशों में इसे यही दर्जा प्राप्त है। इस क्रम में हिंदी को आप चौथे नंबर पर रख सकते हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वह उर्दू, मैथिली और भोजपुरी आदि सबको अपना ही एक रूप माने। इस तरह प्राइमरी लैंग्वेज की तरह हिंदी लगभग दो करोड़ लोगों की भाषा है और दूसरी भाषा की तरह इसको अपनानेवालों को मिला दें तो पूरी दुनिया में लगभग साढ़े पांच करोड़ लोग किसी न किसी रूप में हिंदी का व्यवहार कर रहे हैं। हिंदी भी सिर्फ हिंदुस्तान के कुछ राज्यों तक सिमटी हुई भाषा नहीं है, यह नेपाल, पाकिस्तान, मॉरिशस, त्रिनिदाद, टबेगो, सूरीनाम, फीजी और यूएई में भी किसी न किसी रूप में मौजूद है।
लेकिन सवाल यह है कि फ्यूचर में भारत से निकलने के बाद हम जाना किधर चाहते हैं? जहां-जहां हिंदी है, वहां भी अंग्रेजी के सहारे काम चल सकता है। लेकिन जहां सिर्फ अंग्रेजी या स्पैनिश या इस तरह की कोई और भाषा है, वहां सिर्फ हिंदी के सहारे काम नहीं चल सकता।

शनिवार, 2 जनवरी 2010

नव वर्ष की शुभकामनाएं

नव वर्ष की शुभकामनाएं
हमारे प्रिय पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएं
नव वर्ष 2010 आपकेलिए सुख-समृ​द्ध् आरोग्य, तथा मनोकामनाएं पूर्ण करे,
इन्ही शुभकामनाओं द्वारा आपके समक्ष नई आशाओं के साथ
डॉ राजेन्द्र कुमार गुप्ता