बुधवार, 23 सितंबर 2009

झूठे आंकडो के सहारे आखिर कब तक टिकोगे

वैसे तो यह सर्वविदित है कि भारत सरकार में झूटे आंकडे देकर ही आम आदमी को तसल्ली दी जाती है । सादगी का ढोंग रेल यात्रा करके ही किया जाता है परन्तु वास्तव में यदि पूरे खर्च का आकलन किया जाए तो वह हवाई यात्रा से कम ही रहेगा ।
राजभाषा के रूप में हिन्दी की भी कमाबेस वही हालत है, आंकडे बनाए जाते है और तिमाही रिपोर्ट मे दे दिए जाते है । हर बार यही कहा जाता है कि उच्च अधिकारी दस्तखत करने से पहले आंकडों की जांच कर ले, लेकिन फुर्सत किसे है इसकी ।
आंकडो के बल पर राजभाषा शील्ड, इंदिरा गांधी राजभाषा शील्ड प्राप्त करने के समाचार आ रहे है वे कार्यालय भी इस दौड में आ गए है जिनके यहां राजभाषा के रूप में हिन्दी का कुछ भी काम नहीं होता , फिर विश्वसनीयता कहां है और किसे फिक्र है इस प्रकार की विश्वसनीयता को बनाए रखने की क्योंकि जब काम बिना जांच के ही पूरा हो रहा है और बिना किए ही शील्ड मिल रहे है तो फिर काम क्यों किया जाए । कहते हैं कि यदि काम किया जाएगा तो गलती भी होगी और गलती होगी तो खिंचाई भी होगी । अतः कोई भी राजभाषा अधिकारी नहीं चाहता कि इस प्रकार के पचडे में पडे, उसे तो अपने उच्च अधिकारी को प्रसन्न रखना है और उसके लिए चाहिये एक शील्ड । सो झूटे आंकडों के आधार पर प्राप्त कर लेता है और साल भर आराम करता है या कहानी , लेख और कविता रचकर अपनी विद्वता का प्रदर्शन करता है । मैं तहेदिल से ऐसे अधिकारियो को बधाई देता हूं और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूं ।

रविवार, 20 सितंबर 2009

औरहो गया हिन्दी का श्राद्ध्


हिन्दी वालों ने कर दिया हिन्दी का श्राद्ध् तथा एक साल के लिए कर दी सरकारी दफ्तरों से हिन्दी की छुट्टी । यह कोई नई बात नहीं है, साठ साल से यही हो रहा है और अनन्त काल तक इसी प्रकार होता रहेगा । यह एक संयोग है कि इस साल श्राद्ध् अमावश्या तथा हिन्दी के सप्ताह मनाने का दिन एक ही था । सभी कार्यालयों के अध्यक्ष 14 सितम्बर को तो संदेश वाचन में व्यस्त थे या इंदिरा गांधी पुरस्कार की दौड में । हिन्दी सप्ताह मनाया गया तथा 14 सितम्बर से 18 सितम्बर तक यह आयोजन हुआ । बडी बडी बाते कही गई, बडे बडे भाषण और व्याख्यान दिए गए । हिन्दी के सम्मान में सभी ने गुणगान कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री की । अपने अपने विभागाध्यक्ष से इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए पुरस्कार प्राप्त किया और हिन्दी को एक साल के लिए खूंटी पर टांग दिया अब यही सबकुछ अगले साल होगा ।
सरकारी कार्यालयों में हिन्दी में सर्वोत्कृष्ट कार्य करने के लिए हर साल की तरह इस साल भी स्व. इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार भारत की महामहिम राष्ट्रपति महोदया के कर-कमलों से पाकर कार्यालयाध्यक्ष धन्य हो गए लेकिन किस कीमत पर, केवल झूठ के सहारे । धारा 3(3) का शत प्रतिशत अनुपालन दिखाया गया जबकि जो कागजात उन कार्यालयों से कंप्यूटर से जॅनरेट होते है , वे सभी केवल और केवल अंग्रेजी में ही जारी हो रहे है । मैं इस तथ्य को इसलिए कह रहा हूं कि यह मामला संसदीय राजभाषा समिति की अनेकानेक बैठकों में उठा है और इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार पाने वाले कार्यालयाध्यक्षों ने संसदीय राजभाषा समिति के समक्ष यह स्वीकार किया है कि उनके यहां राजभाषा अधिनियम की धारा 3(3) का अनुपालन नहीं हो पा रहा है विशेषकर कंप्यूटर जनित दस्तावेज तो केवल अंग्रेजी में जारी हो रहे है । इस तथ्य के बाद भी इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार दिया जाना शायद स्व. इंदिरा गांधी जी को कभी भी स्वीकार नहीं होता । क्या इस तथ्य पर राजभाषा विभाग गौर करेगा कि इसकी इंक्वारी सीबीआई से कराई जाए और झूटे आंकडे जिन कार्यालयों ने दिये है उस आंकडों के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी के विरूद्ध् कडी कार्रवाई हो तो शायद भारत का आम आदमी अपनी भाषा के कार्यान्वयन का सपना देख सके । अन्यथा प्रणाम राजभाषा विभाग को और उनके ऐसे अधिकारियों को जो केवल कुछ गिफ्ट लेकर इस प्रकार का घृणित अपराध करते है कि अपनी भाषा के प्रति ही भृष्ट आचरण करते हैं । मैं ऐसे विभागो को भी प्रणाम करता हूं जो झूटे आंकडे देकर पुरस्कृत हो रहे हैं । वे सभी धन्य हैं ।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

राजभाषा को खूंटी पर टांग रहे है राजभाषा कर्मी, बधाई

बडे सौभाग्य की बात है कि आज भी भारत जैसे देश की कोई राजभाषा नहीं है यदि है तो केवल कागजों पर, जिन लोगों ने यह स्वप्न संजोये थे कि हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो , यदि आज की तस्वीर को देखते जो कि बदलते परिवेश के कारण हो गई है तो शायद वे अपनी करनी पर पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ और नहीं सोचते । आज भारत देश के सभी राजभाषा कर्मी राजभाषा सप्ताह मना रहे है और कविता , भाषण यहां तक कि हिन्दी के नाम पर पाक प्रतियोगिताएं भी करा रहे हैं । यह भी केवल इसी माह तक सीमित रहेगा । भारत सरकार के मंत्रालयों से संदेश आते है कि इन्हे पढा जाए और इनपर कार्रवाई सुनिश्चित की जाए । बस उनका काम यहीं तक सीमित है वे केवल सुनिश्चित करने को लिखा सकते है सुनिश्चित करा नहीं सकते क्योंकि वे स्वयं बदलते परिवेश के कारण हुए बदलाव में ढल नहीं पाए है आज भी अनेकानेक कार्यालयों में हिन्दी कर्मी कंप्यूटर नहीं सीख पाए है तो किस ताकत पर वे कंप्यूटरों पर राजभाषा के रूप में हिन्दी सुनिश्चित करा सकते है । आज हमारा मत है कि हिन्दी को राजभाषा कर्मियों से भगवान बचाए , शायद भारत का जनमानस अपनी भाषाओं को अपना ले । मुझे बहुत अच्छा लगा कि तमिल के एक केन्द्रीय मंत्री ने स्पष्ट कहा कि मुझे संसद में तमिल में बोलने की छूट होनी चाहिये यह स्वागत योग्य है कम से कम इसी तरह भारतीय भाषाओं का भविष्य तो अंधकारमय नही रहेगा ।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

हिन्दी मठाधीशों को प्रणाम करता हूं

हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाना चाहिये, केवल दिवस मनाने से कोई अर्थ नहीं, अब समय आ गया है कि सरकारी दफ्तरों से हिन्दी अफसर नाम का मठाधीश हटा दिया जाए और हिन्दी को अपने आप फलने फूलने दिया जाए ।
भारत को आजाद हुए 63 साल बीत गए, कई सरकार आई और कई गई, वही ढाक के तीन पात, भारत को अभी तक अपनी भाषा नहीं मिल पाई ।सारे भारत में केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों मे राजभाषा सप्ताह, राजभाषा दिवस, और यहां तक कि राजभाषा माह मनाए जा रहे है । वही पुरानी ढर्रे की प्रतियोगिताएं, वही पुराने संदेश, और वही पुराने ढंग । न कुछ बदला है और न ही कुछ बदलेगा । हिन्दी विभाग में बैठक हिन्दी अधिकारी वही पुराने ढंग से अपने अपने राग अलापते रहेंगे और एक प्रतीकात्मक कार्य अपने ढंग से करते रहेगे ।
आज के बदलते युग में वैश्विक सोच, उसे कार्यान्वन करने के लिए उपयुक्त ज्ञान की आवश्यकता है जो कि आज के तथाकथित हिन्दी अफसरों के पास नहीं है बहुत से मेरे साथी है जिन्हे आज भी कंप्यूटर चलाना नहीं आता और इस 14 सितम्बर 2009 को उन्हें इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार मिल गया है । मैं इस प्रकार के हिन्दी मठाधीशों को प्रणाम करता हूं और भगवान से प्रार्थना करता हूं कि मेरे भारत को इस प्रकार के मठाधीशों से बचाए ।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

बेचारे अनाथ राजभाषा कर्मी (अधीनस्थ कार्यालयों के)

भारत के संविधान की धारा 343 में कहा गया है कि भारत के संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में हिन्दी होगी और भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप प्रयोग में लाया जाएगा । भारत के संघ की राजभाषा हिन्दी को भारत के संघ में लागू करने के लिए राष्ट्रपति जी ने आदेश जारी किए, राजभाषा अधिनियम और राजभाषा नियम बना । इन्हें सरकारी तंत्र में लागू करने के लिए विभिन्न सरकारी कार्यालयों में हिन्दी अधिकारी, वरिष्ठ हिन्दी अधिकारी, हिन्दी अनुवादक श्रेणी -I अथवा वरिष्ठ अनुवादक तथा हिन्दी अनुवादक श्रेणी -II अथवा कनिष्ठ अनुवादक भर्ती किए गए । चूंकि मंत्रालयों और उनके विभागों का स्वरूप अपेक्षाकृत बड़ा होता था, वहाँ वरिष्ठ हिन्दी अधिकारी, हिन्दी अधिकारी, वरिष्ठ अनुवादक तथा कनिष्ठ अनुवादक के पद होते थे । किंतु संबद्ध एवं अधीनस्थ कार्यालयों को स्वरूप कुछ छोटा होता था वहाँ हिन्दी अधिकारी, वरिष्ठ अनुवादक (अधीनस्थ कार्यालयों में हिन्दी अनुवादक श्रेणी -I) तथा कनिष्ठ अनुवादक (अधीनस्थ कार्यालयों में हिन्दी अनुवादक श्रेणी II) के पद सृजित किए गए ।

मंत्रालयों, विभागों और संबद्ध कार्यालयों के राजभाषा संबंधी पदों में पदोन्नति के अधिक अवसर सृजित करने के लिए, अन्य केद्रीय सिविल सेवा संवर्गों की तर्ज पर, 1983-84 में केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग का गठन किया गया । अधीनस्थ कार्यालयों को यह कह कर इस संवर्ग में शामिल नहीं किया कि निकट भविष्य में अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा संबंधी पदों को भी इस संवर्ग में शामिल किया जाएगा । किन्तु वह निकट भविष्य 25-26 वर्ष बाद आज भी नहीं आया । संवर्ग से पहले हिन्दी अधिकारी का वेतनमान 650-1200 होता था, वरिष्ठ अनुवादक और कनिष्ठ अनुवादक के वेतनमान क्रमश: 550-900 और 425-640 या 425-700 होते थे । अधीनस्थ कार्यालयों के हिन्दी अनुवादक श्रेणी I और हिन्दी अनुवादक श्रेणी II के वेतनमान क्रमश: 550-800 और 425-640 होते थे । सभी समकक्ष पदों की शैक्षणिक योग्यताएँ, कर्तव्य आदि समान होने पर भी मंत्रालयों, विभागों और संबद्ध कार्यालयों के राजभाषा पदों को अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा पदों से अकारण ही ऊंचा माना गया था ।

चौथे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार सहायक निदेशक (राजभाषा) / हिन्दी अधिकारी का वेतनमान रू. 2000-3500, वरिष्ठ अनुवादक का रू. 1640-2900 और कनिष्ठ अनुवादक का वेतनमान रू. 1400-2600 निर्धारित किया गया । अधीनस्थ कार्यालयों के हिन्दी अनुवादक श्रेणी I को रू. 1640-2900 और हिन्दी अनुवादक श्रेणी II को 1400-2600 का वेतनमान दिया गया ।

पाँचवे वेतन आयोग की स्वीकृत सिफारिशों में हिन्दी अधिकारी / सहायक निदेशक (राजभाषा) को रू. 6500-200-10500 का, वरिष्ठ अनुवादक / हिन्दी अनुवादक श्रेणी I को रू. 5500-175-9000 का तथा कनिष्ठ अनुवादक / हिन्दी अनुवादक श्रेणी II क ाट रू. 5000-150-8000 का वेतनमान प्रदान किया गया । यहाँ तक सब ठीक-ठाक था । किन्तु क टद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के सदस्यों को निदेशक (राजभाषा) के स्तर तक पदोन्नति के अवसर प्राप्त थे तो अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मी जिस पद पर भर्ती होते थे उसी पद पर सेवा निवृत्त होने या मृत्यु को प्राप्त हेने को विवश थे । के.सचि.रा.भा.से.संवर्ग के सदस्यों का एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय में स्थानांतरण संभव था किन्तु अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मी एक अधीनस्थ कार्यालय में जा तो सकते थे, अपने प्रधान कार्यालय या मंत्रालय / विभाग में नहीं जा सकते थे । पदोन्नति के अवसर निर्माण करने हेतु अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों ने विभिन्न राजभाषा सम्मेलनों, बैठकों, सभाओं आदि में राजभाषा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों से अनुरोध किया कि अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों को भी केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग में शामिल किया जाए । किन्तु राजभाषा विभाग के सक्षम अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी । परिणामस्वरूप, अधीनस्थ कार्यालयों के अधिकतर राजभाषा संबंधी पदों को आइसोलेटिड पोस्ट बताकर एसीपी योजना के अन्तर्गत वित्तीय प्रोन्नयन के रूप में पाँचवें वेतन आयोग द्वारा संतुस्त वेतनमानों की अनुक्रमाणिका / तालिका का अगला वेतनमान थमा दिया गया जबकि संवर्ग के सदस्यों को पदोन्नति क्रम का अगला वेतनमान । इस बात को एक उदाहरण से इस प्रकार समझा जा सकता है कि संवर्ग के सहायक निदेशक (राजभाषा) वेतनमान 6500-200-10500) को एसीपी योजना में वित्तीय प्रोन्नयन के रूप में रू. 10,000-375-15200 का वेतनमान दिया गया जबकि अधीनस्थ कार्यालय के हिन्दी अधिकारी (वेतनमानः6500-200-10500) को रू. 7450-225-11500 का वेतनमान I

अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मी इस अन्याय के विरूद्ध कितनी ही गुहार लगा लें, उनकी कोई नहीं सुनता -न राजभाषा विभाग और नही पीड़ित राजभाषा कर्मियों का प्रशासनिक विभाग / मंत्रालय I केद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (C.A.T.) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे ही एक प्रकरण में दिए गए निर्णय / आदेश का भी इन बहरें लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों का कोई संगठन नहीं है जो इस अन्याय के विरूद्ध बार-बार न्यायालय का दरवाजा खटखटाता रहे I

दिल्ली में केद्रीय लोक निर्माण विभाग भारत सरकार का एक अधीनस्थ कार्यालय है और इसके कनिष्ठ अनुवादकों को रू. 1400-2600 के बजाए रू. 1400-2300 का वेतनमान दिया गया था और साथ ही में यह भी हिदायत जारी की गई थी कि यदि गलती से किसी कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक को रू. 1400-2600 का वेतनमान देकर उसका वेतन उसमें निर्धारित कर दिया गया हो तो पुनः उस कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक का वेतन रू. 1400-2300 में निर्धारित किया जाए और भुगतान किया गया अधिक वेतन वापिस लिया जाए I

सीपीडब्ल्यूडी के अनुवादकों की एसोसिएशन ने OA 1 57 / 90 की पंजीकरण संख्या से केद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) में आवेदन किया कि वापसी संबंधी सरकारी आदेश पर रोक लगे और सीपीडब्ल्यू के कनिष्ठ हिन्दी अनुवादकों क ाट केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के कनिष्ठ हिन्दी अनुवादकों के समान रू. 1400-2600 का वेतनमान दिया जाए । माननीय केद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की मुख्यपीठ ने 10.1.1992 को सीपीडब्ल्यूडी ट्रान्सलेटर्स एसोसिएशन के पक्ष में निर्णय देते हुए के.प्रशा.न्याया. द्वारा 24.9.1991 को वाद सं. ओए 1310 / 89 - (वी.के. शर्मा और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य) में प्रतिवादियों को आदेश दिया था वह आर्म्ड फोर्सेस हैडक्वार्टर्स (एएफएचक्यू / इन्टरसर्विसेस आर्गेनाइजेशन) रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ और कनिष्ठ हिन्दी अनुवादकों को दिनांक 1.1.1986 से क्रमशः रू. 1600-2600 के स्थान पर रू. 1640-2900 का और रू. 1400-2300 के स्थान पर रू. 1400-2600 का वेतनमान, वेतन निर्धारण के परिणामजन्य सभी लाभ, बकाया राशि, और आनुषगिक भत्ते आदि प्रदान करे I इस प्रकरण में माननीय न्यायाधिकरण ने रणधीर सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 1982, SCC (L&S) प्रकरण में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के हवाले से बताया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि जहां सभी प्रासंगिक विचारणीय बातें समान हैं, अलग विभागों में एक जैसे पदों पर काम करने वाले व्यक्तियों के साथ वेतनादि के मामले में अलग-अलग व्यवहार नहीं करना चाहिए I ( The Tribunal relied upon decision of the Supreme Court in Randhir Singh Vs Union of India, 1982 SCC (L & S) wherein the Supreme Court observed that where all the relevant considerations are the same persons holding identical posts must not be treated differently in the matter of their pay merely because they belong to different departments).

यहाँ भी सीपीडब्ल्यूडी प्रशासन भेदभाव करने से पीछे नहीं रहा और उसने संशोधित वेतनमान ट्रांस्लेटर्स एसोसिएशन के सदस्यों को ही दिए, बाकी को नहीं । ट्रांस्लेटर्स एसोसिएशन ने अदालत की अवमानना का प्रकरण CCP 212 of 1993 दायर किया । इस प्रकरण में भी कैट की प्रिंसिपल बैंच ने ट्रांस्लेटर्स एसोसिएशन के पक्ष में फैसला दिया और एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किया, When a judgement is declaratory in character, it is applicable to all those who fall in that class and that each and every individual should not be compelled to approach the Courts for getting the relief. The Govt. as a model employer must on its own accord similar benefits to everyone similarly situate.

इसके बाद, राजभाषा विभाग ने 8 नवंबर 2000 को का.ज्ञा.सं. 12/2/97-OL(S) के द्वारा, केसचिराभासे के वरिष्ठ हिन्दी अनुवादकों और कनिष्ठ हिन्दी अनुवादकों को स्वीकृत वेतनमान क्रमशः रू. 5500-9000 और रू. 5000-8000 इस सेवा संवर्ग से बाहर के वरिष्ठ हिन्दी अनुवादकों और कनिष्ठ हिन्दी अनुवादकों को भी प्रदान करने का निदेश जारी किया I

मगर अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों का दुर्भाग्य केवल यहीं समाप्त नहीं हो गया I एक बार फिर भारत सरकार, वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग ने केवल केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के सदस्यें को संशोधित वेतनमान दिए और संवर्ग से बाहर के राजभाषा कर्मियों को यदि किसी ने गलती से ये वेतनमान देभी दिए हों तो संशोधन रद्द करने और, यदि संशोधित वेतनमानों के अनुसार कोई भुगतान किया गया हो तो उसे वापिस लेने का फरमान जारी कर दिया I भारत सरकार के राजभाषा विभाग ने भारत सरकार के ही वित्त एवं कंपनी कार्य मंत्रालय (व्यय विभाग) के यू.ओ सं. 70/11/2000 आई सी दिनांक 13.2.2003 के अन्तर्गत प्राप्त स्वीकृति के अनुसार कार्या.आदे. सं. 13/8/2002 रा.भा.(सेवा) दिनांक 19.2.2003 के माध्यम से (1) कनिष्ठ अनुवादक को रू. 5000-8000 के बदले रू. 5500-9000 का और (2) वरिष्ठ अनुवादक को रू. 5500-9000 के बदले रू. 6500-10500 का वेतनमान प्रदान किया I 27 फरवरी 2003 को जारी एक अन्य कार्यालय आदेश सं. 12/2/97-रा.भा.(सेवा) के माध्यम से सहायक निदेशक (राजभाषा) को रू. 6500-200-10500 के वेतनमान के बदले रू. 7500-250-12000 का वेतनमान प्रदान किया गया I इन आदेशों में यह भी स्पष्ट कहा गया था कि ये वेतनमान केवल केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के सदस्यों तक ही सीमित हैं I बाद में, इस संवर्ग के बाहर कार्यरत राजभाषा कर्मियों ने जब इन संशोधित वेतनमानों के लिए आग्रह किया और इस विषय में भारत सरकार के राजभाषा विभाग तथा वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग से संपर्क साधना आरंभ किया तो भारत सरकार, वित्त मंत्रालय, व्यय विभाग ने एक कार्यालय ज्ञापन जारी करके ज़ोर दिया कि फरवरी 2003 में जारी किए गए कार्या.ज्ञाप. के माध्यम से सहायक निदेशक (रा.भा.) वरिष्ठ अनुवादक और कनिष्ठ अनुवादक को प्रदत्त संशोधित वेतन मान केवल केसचिराभासे के सदस्य राजभाषा कर्मियों तक ही सीमित हैं, इसके बाहर अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों के लिए नहीं I इतना ही नहीं उस कार्यालय ज्ञापन के हस्ताक्षर कर्त्ता अध्ंिाकारी श्री मनोज जोशी, उप सचिव, व्यय विभाग, वित्त मंत्रालय ने तो उा कार्यालय ज्ञापन में यहां तक कहा है कि यदि गलती से किसी कार्यालय में इनका लाभ दिया गया हो तो वह वापिस ले लिया जाए और लाभार्थियों को संशोधनपूर्व की स्थिति में पहुंचा दिया जाए I वित्त मंत्रालय के इतने वरिष्ठ अधिकारी ने क्या के.प्रशा.न्याया. का निर्णय और उसमें उच्चतम न्यायालय का संदर्भ नहीं पढ़ा होगा?

इसी वित्त मंत्रालय ने के.प्रशा.न्याया. द्वारा ओए 157/90 के मामले में दिनांक 10.1.1992 को दिए निर्णय-आदेश और सीसीपी 212/1993 के मामले में दिनांक 20.10.1993 को दिए गए निर्णय-आदेश का पालन करते हुए भारत सरकार, राजभाषा विभाग को कार्यालय ज्ञापन सं. 12/2/97 -रा.भा. (सेवाएं) दिनांक 8 नवंबर 2000 जारी करने का निदेश दिया जिसके माध्यम से सभी वरि.हि.अनु.को रू. 5500-9000 का और कनि.हि.अनु. को रू. 5000-8000 वेतनमान प्रदान किया गया था I फिर न्यायालय की यह अवमानना क्यूं I

अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों ने जब फरवरी 2003 में राजभाषा विभाग द्वारा संशोधित वंतनमानों के लिए अपने-अपने प्रशासनिक मंत्रालयों में मांग की तो उन्हें वित्त मंत्रालय के जवाब के हवाले से बैरंग लौटा दिया गया I उनके प्रति न तो गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग ने सहानुभूति दिखाई और न ही विभिन्न प्रशासनिक मंत्रालयों ने I कोई भी इस संदर्भ में केद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण और उससे पहले सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर ध्यान नहीं दे रहा था I इसका एकमात्र कारण था कि केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के समान अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों का कोई संवर्ग नहीं था I एक-दो मंत्रालयों में, जहां अधीनस्थ कार्यालय और उनमें काम करने वाले राजभाषा कर्मियों की संख्या पर्याप्त थी, अधीनस्थ कार्यालयों में कार्यरत राजभाषा कर्मियों का अलग संवर्ग बन गया जैसे वित्त मंत्रालय का आयकर विभाग । किन्तु जहां राजभाषा कर्मियों की संख्या 1-1, 2-2 थी, उनका संवर्ग कौन बनाए?

भारत भर में भारत सरकार की राजभाषा नीति के अनुपालन में कितनी और कैसी प्रगति हो रही है तथा कहां-कहां किस-किस सुविधा-उपाय की आवश्यकता है, इस पर नज़र रखने और इसका आकलन करने के लिए एक संसदीय राजभाषा समिति है I इस समिति की रिपोर्ट सीधे-सीधे महामहिम राष्ट्रपति जी को प्रस्तुत की जाती है I इस समिति की रिपोर्ट के प्रथम खंड माननीय राष्ट्रपति जी के आदेश संकल्प सं. 1/20012/1/87-रा.भा. (क-1) दिनांक 30-12-1988 के द्वारा जारी किए गए इस संकल्प की मद सं. 11, ``अधीनस्थ कार्यालयों में अनुवाद संबंधी पदो पर कार्यरत अधिकारियों- कर्मचारियों के अलग-अलग संवर्ग गठित करना'' में निदेश दिया गया है कि विभ्ंिान्न मंत्रालयों / विभागों तथा उपक्रमों को अपने-अपने अधीनस्थ कार्यालयों में संघ की राजभाषा नीति के अनुपालन के लिए अनुवाद संबंधी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कार्यरत अधिकारियों /कर्मचारियों का भी अलग-अलग संवर्ग गठित करना चाहिए I(इसी में आगे कहा गया कि) जहां संवर्ग का गठन संभव हो, वहां संवर्ग बनाया जाए, जहां पर यह संभव न हो वहां स्टाफ की पदोन्नति के लिए अन्य प्रकार की व्यवस्था की जाए I गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग इस संबंध में अपेक्षित कार्रवाई के लिए आवश्यक निर्देश जारी करे I भारत सरकार के 90% से भी ज्यादा अधीनस्थ कार्यालयों को आज भी राजभाषा विभाग के ऐसे किसी निर्देश का इंतजार है इस विषय में अभी तक न तो कोई व्यावहारिक कदम उठाया गया है और न ही किसी निरीक्षण प्रश्नावली में प्रश्न किया गया है।

अधीनस्थ कार्यालयों में अधिकारियों / कर्मचारियों की अधिकतम अपेक्षित शैक्षणिक योग्यता स्नातक स्तर तक होती है किन्तु एक राजभाषा कर्मी के लिए एम.ए. होना अनिवार्य है I एक कनिष्ठ किन्दी अनुवादक के लिए, जो इस पिरामिड की नींव का पत्थर होता है, बी.ए. स्तर तक हिन्दी, अंग्रेजी का अनिवार्य ज्ञान के साथ-साथ हिन्दी या अंग्रेजी में एम.ए. होना अनिवार्य होता है I किन्तु एक एल.डी.सी. दसवीं पास हो तब भी चलता है I एक डिप्लोमा धारी इंजीनियर सहायक के वेतनमान में नौकरी पाता है I एल.डी.सी., अवर सचिव के पद तक पदोन्नति पा जाता है, डिप्लोमा धारी इंजीनियर, मुख्य अभियंता तक बन जाता है किन्तु अधीनस्थ कार्यालय का एम.ए. पास कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक उसी पद पर रिटायर हो जाता है जिस पर भर्ती हुआ था I

कनिष्ठ अनुवादक को नौकरी दी जाती है मानो उस पर बहुत एहसान कर देते हैं I वह हो या उसका हिन्दी अधिकारी, नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उनकी बातों पर तब तक कोई ध्यान नहीं देता जब तक संसदीय राजभाषा समिति के निरीक्षण जैसा कोई डंडा उनके सिर पर नहीं पड़ता I जहां संसदीय राजभाषा समिति द्वारा निरीक्षण का पत्र मिला वहीं रिकार्ड रूम में धूल फांक रही पुरानी फाइल की तरह राजभाषा कर्मी की तलाश, झाड़ फूंक होती है, उसकी कद्र की जाती है, बाद में उसे फिर रिकार्ड रूम में पें€क दिया जाता है I प्रशासन का जो काम दूसरे कर्मचारी करने से इंकार कर देते हैं, उसके मत्थे मंढ दिया जाता है, और उससे भी यह काम अंग्रेजी में ही करवाना चाहते हैं I हिन्दी अनुवादक एक सहायक स्तर का कर्मचारी होता है, इसलिए उच्चतर अधिकारी उसे कोई भाव नहीं देते I क्योंकि उच्चतर अधिकारियों से उसे अपने कार्य (राजभाषा नीति के अनुपालन) में कोई सहयोग-समर्थन नहीं मिलता, तो दूसरे कर्मचारी भी राजभाषा नीति के अनुपालन के मामले में उदासीनता ही दिखाते हैं I हिन्दी अनुवादक से उम्मीद की जाती है कि वही अनुवाद भी करे और उसको टाइप भी वही करे I अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों की यह स्थिति किसी एक या दो कार्यालयों में नहीं बल्कि लगभग शत-प्रतिशत अधीनस्थ कार्यालयों में है I कोई इक्का-दुक्का कार्यालय ही होगा जहां राजभाषा कर्मियों को उचित समर्थन और सहयोग मिलता है, ऐसे में उनके न्यायोचित अधिकारों के लिए उनका समर्थन कौन करेगा I

जब न्यायोचित अधिकारों की बात उठी है तो यहां अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों के केद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में एक और सफल संघर्ष की चर्चा करना उचित होगा I जब वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग की मंजूरी पर भारत सरकार के राजभाषा विभाग ने कं.सचि.रा.भा. से. संवर्ग के सहायक निदेशक (राजभाषा), वरिष्ठ हिन्दी अनुवादकों और कनिष्ठ हिन्दी अनुवादकों को फरवरी 2003 में दि 1.1.1996 से संशोधित वेतनमान प्रदान किए और इस संवर्ग से बाहर के राजभाषा कर्मियों को इनसे निर्ममतापूर्वक वंचित रखा तो अधीनस्थ कार्यालयों के दो हिन्दी अनुवादकों श्री धनंजय सिंह और श्री राजेश कुमार गोंड ने के.प्रशा.न्याया. की कोलकात्ता पीठ में दो याचिकाएं क्रमशः OA 912/04 और OA 939/04 दायर कीं I इनमें से एक श्री राजेश कुमार गोंड ने तो भारत सरकार के राजभाषा विभाग को ही प्रतिवादी बनाया था I इन दोनों प्रार्थियों ने अदालत (CAT) से याचना की थी कि (i) अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों को भी दिनांक 1.1.1996 से वही संशोधित वेतनमान दिए जाएं जो राजभ्ंाषा विभाग ने 19/2/2003 और 27 फरवरी 2003 को जारी कार्यालय ज्ञापनों द्वारा के.सचि.रा.भा.से. के वरि. अनुवादकों, कनिष्ठ अनुवादकों और सहायक निदेशक (राजभाषा) को प्रदान किए थे और (ii) दिनांक 29.3.2004 का कार्यालय ज्ञापन रद्द किया जाए I माननीय केद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने याचिकाकर्त्ताओं के पक्ष में निर्णय देते हुए दिनांक 09.11.2006 को उपरोक्त दोनों प्रार्थनाएं स्वीकृत कीं I संभवतः, इसी निर्णय को ध्यान में रखते हुए छठे केद्रीय वेतन आयोग ने केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के सदस्यों के लिए संशोधित वेतनमानों की सिफारिश करते हुए, यही वेतनमान 1.1.2006 से अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों को प्रदान करने की सिफारिश की I इस सिफारिश पर अमल करते हुए भारत सरकार (वित्त मंत्रालय) के व्यय विभाग ने कार्यालय ज्ञापन एफ सं. 1/1/2008-आईसी दिनांक 24 नवंबर 2008 के द्वारा के.सचि.रा.भा.से. संवर्ग के निष्ठ अनुवादक से लेकर निदेशक (रा.भा.) के लिए 1.1.2006 से संशोधित वेतनमान स्वीकृत किए और विभिन्न मंत्रालयों / विभागों को हिदायत दी कि वे ये वेतनमान अधीनस्थ कार्यरत समान पदाधारियों को भी प्रदान करें I नवंबर 2008 से जून 2009 के अंत तक 7 माह बीत चुके हैं, अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों तक इन संशोधित वेतनमानों का लाभ नहीं पहुंचा है I वास्तविकता यह है कि केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के राजभाषा कर्मियों का पिता-परमपिता तो भारत सरकार, गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग है, वह उनके हितों की अच्छी तरह देखभाल करता है I किन्तु, अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों के लाभों के बारे में न तो राजभाषा विभाग कुछ करता है और न ही अधीनस्थ कार्यालयों के प्रशासनिक मंत्रालय या विभाग, क्योंकि उन्हें कोई कष्ट नहीं है I ये प्रशासनिक मंत्रालय या विभाग अपने अधीनस्थ कार्यालयों में राजभाषा नीति अनुपालन की कितनी चिंता करते हैं यह इसी से पता चल जाता है कि इनके द्वारा अपने अधीनस्थ कार्यालयों का वर्ष में कम से कम एक बार किया जाने वाला निरीक्षण 10-10, 20-20 वर्ष तक नहीं होता और यदि होता भी है तो एक रस्म अदायगी से ज्यादा नहीं I

ऐसा नहीं है कि भेदभाव मूलक इस समस्या का समाधान नहीं है I केद्रीय प्रशासनिक न्यायधिकरण ने राजभाषा विभाग के इस भेदभाव मूलक व्यवहार को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन माना है I ये दोनों धाराएं समानता के अधिकार से संबंधित हैं I वेतनमानों में असमानता के मूल में केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग है I वास्तव में, यह संवर्ग राजभाषा संबंधी पदों के सेवा संबंधी विविध पहलुओं में समानता / समरूपता ओर पदोन्नति के अधिक से अधिक अवसर पैदा करने के लिए गठित किया गया था । किन्तु समय बीतने के साथ केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग के सदस्यों को अधीनस्थ कार्यालयों के राजभाषा कर्मियों से श्रेष्ठतम समझ उन्हें सेवा संबंधी बेहतर अवसर प्रदान किए गए I अतः इस समस्या के समाधान के लिए केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग का पुनर्गठन किया जाए I

इसके अन्तर्गत कनिष्ठ अनुवादक, वरिष्ठ अनुवादक और सहायक निदेशक (राजभाषा) के, एक मंत्रालय, उसके विभागों, संबंद्ध और अधीनस्थ कार्यालयों में वर्तमान सभी पदों का उस मंत्रालय के स्तर पर मंत्रालय राजभाषा सेवा संवर्ग बनाया जाए I इस प्रकार एक मंत्रालय में कनिष्ठ अनुवादक को उसी मंत्रालय में सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद तक पदोन्नति पाने के अवसर होंगे I जब किसी मंत्रालय का कोई वरिष्ठ अनुवादक सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद पर पदोन्नति पाए तो उसकी इस प्रकार पदोन्नति पर नियुक्ति की सूचना (पृष्ठांकन) राजभाषा विभाग को दे दी जाए I

राजभाषा विभाग में केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग का प्रचालन-नियंत्रण हो I इस संवर्ग में उप-निदेशक (राजभाषा) से लेकर निदेशक (राजभाषा) तक के पद शामिल हो I जैसे ही किसी वरिष्ठ अनुवादक की सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद पर पदोन्नति की सूचना राजभाषा विभाग को मिले वह उसे उप-निदेशक (राजभाषा) के पद पर पदोन्नति हेतु सहायक निदेशक (राजभाषा) की वरिष्ठता सूची में शामिल कर ले I यहां हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि प्रत्येक मंत्रालय में अराजपत्रित कर्मचारियों का संवर्ग उसी मंत्रालय तक होता है I केद्रीय सचिवालय सेवा के विभिन्न संवर्ग राजपत्रित पदों से विशेषकर "क'' समूह के राजपत्रित पदों से आरंभ होते हैं I इस प्रकार, यदि केद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग का पुनर्गठन होता है तो यह समस्या हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी ।
लक्ष्मण गुप्ता