मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

नयनतारा सहगल

यदि साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी उसके काल सापेक्ष होने और घटनाक्रम के ईमानदार उद्घाटन में निहित होती है तो मानना पड़ेगा कि भेड़चाल में पुरस्कार लौटा रहे साहित्यकार अपने रचनात्मक धर्म और समाज के प्रति अपनी जवाबदेही से भटक गए हैं। उनके अतिरंजित विचार-वमन से यह भी मानना पड़ेगा कि उनकी रचनाधर्मिता किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित है।
कर्नाटक में वामपंथी विचारक प्रो. एमएम कलबुर्गी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या और उसके बाद उत्तर प्रदेश के बिसाहड़ा की दुखद घटना के बाद कुछ लेखकों की कथित तौर पर आत्मा जाग गई है। इसकी शुरुआत करने वालों में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल शामिल थीं। बिसाहड़ा में गोमांस खाने के संदेह में इखलाक की हत्या आक्रोशित भीड़ ने की। यह निंदनीय है और कानून को उसका काम स्वतंत्र रूप से करने देना चाहिए। किंतु प्रश्न नयनतारा और उनके पीछे चल पड़ने वालों के विरोध, उनके निशाने और उनके समय को लेकर है।
कर्नाटक में कलबुर्गी की हत्या हुई। वहां सरकार किसकी है? उत्तर प्रदेश में सरकार किसकी है? फिर निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा क्यों? क्यों कुछ लेखकों को केवल इसी समय देश में कथित सांप्रदायिक उन्माद का ज्वार नजर आ रहा है? क्या मुजफ्फरनगर के दंगों, बरेली, मेरठ, सहारनपुर के बलवों से इन लेखकों की आत्मा द्रवित नहीं हुई? 1989 के भागलपुर के दंगों में 1161 लोगों की असामयिक मौत हुई, तब बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। 1990 में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। तब हैदराबाद में हुए दंगों में 365 लोग मारे गए। 1992 में गुजरात के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री थे। तब सूरत दंगों में 152 निरपराध मारे गए। कांग्रेस की सरकार के काल में दर्जनों बार अहमदाबाद सांप्रदायिक आग में झुलसा। किंतु इन लेखकों को केवल 2002 के गुजरात दंगे ही भयावह नजर आते हैं। क्यों? गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एस6 बोगी को घेरकर दंगाइयों ने 59 लोगों (24 पुरुष, 15 महिलाएं और 20 बच्चों) को जिंदा जला डाला। उस हृदयविदारक घटना की निंदा करना तो दूर; ऐसे साहित्यकारों, पत्रकारों और सेक्युलरिस्टों ने मरने वाले कारसेवकों को ही कसूरवार ठहरा दिया।
पुरस्कार लौटा रहे लेखकों की आत्मा जिस तथाकथित दक्षिणपंथी विचारधारा के उभार से आर्तनाद कर रही है, वह वामपंथी विचारधारा से जन्मी माओ-नक्सलवादी हिंसा पर खामोश रहती है। मार्क्सवादी विचारधारा में विरोधी स्वर का हिंसा से दमन प्रमुख अस्त्र है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का तीन दशकों से अधिक का राजपाट रहा। 1997 में विधानसभा में पूछे गए एक प्रश्न का जवाब देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बताया था कि 1977 (जब मार्क्सवादी सत्ता में आए) से 1996 के बीच 28000 राजनीतिक हत्याएं हुईं। इसी तरह केरल में विरोधी विचारधारा के संगठन और कार्यकर्ता मार्क्सवादी हिंसा के आए दिन शिकार बनते रहे हैं।
मार्क्सवादियों के संरक्षण में जिहादी तत्व भी निरंतर पोषित हुए। ईसाई प्रोफेसर टीजे जोसफ का हाथ काटने वाले जिहादियों की असहिष्णुता पर किसी की आत्मा नहीं रोती। ओडिशा में दलित-वंचित आदिवासियों के लिए दशकों से काम कर रहे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की नक्सलियों ने बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। मार्च 2014 के आंकड़ों के अनुसार पिछले बीस सालों में 12000 से अधिक बेकसूर नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं। इस तरह की हिंसा में उन्हें असहिष्णुता नहीं दिखती। क्यों?
नयनतारा सहगल को 1986 में रिच लाइक अस नामक उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। इससे दो साल पूर्व 1984 के सिख नरसंहार हुए थे। कांग्रेस प्रायोजित उक्त नरसंहार में देशभर में हजारों सिख मारे गए। नयनतारा के भतीजे और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। नयनतारा की आत्मा तब सोई थी। क्यों?
नयनतारा कश्मीरी पंडित हैं। कश्मीर घाटी से वहां की संस्कृति के मूल वाहक कश्मीरी पंडितों को तलवार के दम पर मार भगाया गया, उनकी संपत्तियों पर जिहादियों ने कब्जा कर लिया, हिंदुओं के आराधना स्थल तबाह कर दिए गए, किंतु नयनतारा की आत्मा सुकून से बैठी रही। रिच लाइक अस में नयनतारा ने शिक्षित महिलाओं की समस्याओं और दुश्वारियों को उठाया है। समस्याओं से जूझते और समझौते करते हुए शिक्षित महिला कैसे शक्तिमान बनती है, उपन्यास का मोटा थीम यही है। अपने साहित्य से समाज को सकारात्मक संदेश देने वाली नयनतारा फिर शाहबानो के मामले में क्यों चुप रह जाती हैं? एक मुस्लिम महिला को तलाक के बाद पति से भरणपोषण पाने का अधिकार इस देश की सर्वोच्च न्यायपालिका दिलाती है तो कांग्रेस संविधान में संशोधन कर आदेश को ही पलट देती है। इस अधिनायकवादी और महिला विरोधी मानसिकता की निंदा क्यों नहीं की गई?
नयनतारा की एक अन्य पुस्तक है, जवाहरलाल नेहरू : सिविलाइजिंग अ सैवेज वर्ल्ड। इसमें पं. नेहरू की नीतियों से लेखिका अभिभूत दिखती हैं। पं. नेहरू ने जंगली दुनिया को सभ्य बनाया या नहीं और उनकी गुटनिरपेक्ष नीति का दुनिया पर क्या प्रभाव पड़ा, यह इस लेख का विषय नहीं है। किंतु इतना स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों से इस देश को कंगाल करने वाली कांग्रेस नयनतारा को ज्यादा प्रिय है और उनके पीछे कूद पड़ने वाले लेखक भी उसी मानसिकता से ग्रस्त लगते हैं।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

पत्रकार भी एक बड़े लेखक पर हावी

देश में कट्टरता,साम्प्रदायिकता, जातीयता लगातार बढ़ रही है, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन ऐसा कोई पैमाना नहीं है जो बता सके कि ऐसा अभी हो रहा है, और ऐसा पहले कभी नहीं था । देखा जाये तो कट्टरता, साम्प्रदायिकता, जातिवादी सोच पहले से ही समाज में विद्ममान है और ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि इतना निराश हुआ जाये कि अपने पुरस्कार ही वापिस कर दियें जाये । समाज को सही दिशा प्रदान करना भी लेखको, सामाजिक चिन्तकों का काम है और अगर उन्हें लगता है कि समाज गलत दिशा में जा रहा है तो इसमें उनकी भी असफलता है कि वो समाज को सही दिशा प्रदान करने में कामयाब नहीं हो पाये । समाज की बदलती परिस्थितियों के लिये किसी संगठन और दल को जिम्मेदार ठहराना कहाँ से उचित है । अगर समाज सही दिशा में नहीं जा रहा है तो इसमें लेखकों की भी जिम्मेदारी है और पुरस्कार लौटाना एक प्रकार से अपनी जिम्मेदारियों से भागना ही है । अगर वो समझते है कि ये उनका काम नहीं है तो उनका पुरस्कार लौटाना ही उचित है ।
दादरी काण्ड के बाद कई नामी लेखकों द्वारा अपने पुरस्कारों की वापिसी की होड़ लग गई है, ऐसा करने का कारण ज्यादातर लेखकों द्वारा यह बताया जा रहा है कि देश में साम्प्रदायिकता बढ़ रही है और वो सरकार को इसके लिये दोषी मानते हैं, इसलिये अपना विरोध जताने के लिये वो पुरस्कारों की वापिसी कर रहे हैं । लेखकों के कथन में सत्यता है, क्योकिं हमारा समाज वास्तव में ही साम्प्रदायिकता की ओर बढ़ रहा है, और इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता । लेखकों को इसके लिये समर्थन भी मिल रहा है । अब सवाल उठता है कि लेखकों का ऐसा करना क्या उचित है, विरोध जताना तो ठीक है, लेकिन अचानक ऐसा क्या हो गया है कि वो इस तरह से एक लोकतान्त्रिक देश द्वारा दिये गये पुरस्कार वापिस कर रहे हैं ।
 बड़े लेखकों की बहुमूल्य कृतियाँ समाज के काम नहीं आ रही है, वो या तो पुस्तकालयों की अलमारियों में बन्द है या अमीरों के ड्राईंगरूम की शोभा बढ़ा रही है । प्रकाशक पुस्तकों का मूल्य इतना ज्यादा रखते हैं कि आम आदमी उनकों खरीदने की सोचता ही नहीं है, कितने अचरज की बात है कि जिस समाज को लक्ष्य करके पुस्तकें लिखी जाती है, जिस समाज की समस्याओं का जिक्र होता है, वो ही समाज इन पुस्तकों से दूर रहता है । मेरा मानना है कि आज जो लेखक अपने पुरस्कार वापिस कर रहे है, वो कोई आम लेखक नहीं है, उन्हें मिलें पुरस्कार उनके काम को देखते हुए दिये गये है, लेकिन उनका काम केवल साहित्य की शोभा बढ़ाने के काम आ रहा है, समाज को उसका कोई फायदा नहीं हो रहा है । एक छोटा सा पत्रकार भी एक बड़े लेखक पर हावी है, क्योंकि उसकी बात आम लोगों तक पहुँचती है और हमारी समस्या भी यही है कि लोगों तक सही बात नहीं पहुँच रही है । टीवी पर चल रहे सीरीयल वास्तविक दुनिया से दूर है, उन पर दिखायी जा रही कहानियाँ एक बनावटी दुनिया की लगती है, लेकिन पैसे कमाने की होड़ में चैनल वाले लोगों को ऐसी दुनिया में ही व्यस्त रखना चाहते हैं और वैसे भी आज टीआरपी का जमाना है और तड़क-भड़क वाले सीरियल ही लोगों को रास आ रहे हैं । कौन से लेखक की कृति टीवी के माध्यम से जनता तक पहुँच रही है ।
कितने अचरज की बात है कि  अंग्रेजी भाषा के लेखकों की बातें तो फिर भी लोगों तक पहुँच रही है जबकि अंग्रेजी के पाठक कम है, लेकिन हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के लेखक अपनी बात लोगों तक नहीं पहुँचा पा रहे है, यूँ भी कह सकते है कि वो इसके लिये प्रयास भी नहीं कर रहे है । साहित्य समाज का आईना होता है और समाज उस आईने को देखकर अपने बिगड़े चेहरे को सुधार सकता है, लेकिन वो आईना समाज तक पहुँचता ही नहीं है तो आप ऐसी उम्मीद भी कैसे कर सकते है । आज जनता स्वार्थी नेताओं की बातों में आकर अपने फैसले कर रही है और समाज को यही लोग दिशा दे रहे है, इसमें कोई शक नहीं है कि एक गलत दिशा ही दे रहे है, इसलिये लेखक समाज को आगे आना  चाहिये और उन्हें समाज के हित में अपनी कलम की ताकत का इस्तेमाल करना चाहिये, पुरस्कारों को लौटाकर वो कुछ हासिल नहीं कर सकते, सरकार को विरोध जताकर कुछ समय के लिये परेशान जरूर कर सकते है, लेकिन कुछ ही समय में ये मुद्दा खत्म हो जाने वाला है । अपनी कलम का प्रयोग करके वो लगातार अपना विरोध जता सकते है और समाज को सही दिशा देते हुए सरकार को भी गलत रास्ते पर जाने से रोक सकते है, अगर वो ऐसा करने में कामयाब नहीं हो पाते है तो ये समाज के लिये ही घातक होगा । हर इन्सान में आज एक गुस्सा दिखायी दे रहा है, धैर्य तो जैसे खत्म ही हो गया है, छोट-छोटी बातों पर लोग किसी की जान ले लेते हैं, आज धर्म और जाति के नाम पर इन्सान ही जानवर बनने को तैयार हो जाता है ।

लेखकों को विरोध जायज है लेकिन विरोध करने का तरीका नाटकीय लगता है, समाज में बढ़ रही हिंसा, कट्टरता और असहनशीलता के लिये केवल नेता ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि वो लोग भी जिम्मेदार है जो समाज को एक सही दिशा दे सकते थे, इसमें लेखक बहुत ऊपर आते है, लेकिन आज लेखक होने का मतलब केवल पत्रकारो से रह गया है, इसलिये लेखक अपनी जिम्मेदारी को समझे और अपनी बात कहने के लिये समाज के बीच जायें । लेखको की चिन्ता, इस समाज की चिन्ता है, लेकिन जो विरोध करने का तरीका उन्होंने अपनाया है, उससे समाज को कोई अच्छा संदेश नही जा रहा है, उल्टे लेखक बिरादरी पर नये इल्जाम लग रहे हैं, यह एक लम्बी लड़ायी है और दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अभी तक इस लड़ायी की शुरूआत ही नहीं हुई है तो इसमे जीत की उम्मीद कैसे की जा सकती है । जिस लड़ायी में गर्दन भी कटाकर जीतने की आशा कम हो, उस लड़ायी को ऊंगली कटाकर नहीं जीता जा सकता । केवल सरकार से लड़कर इस लड़ायी को नहीं जीता जा सकता, इसके लिये समाज से भी लड़ना पड़ेगा, क्योंकि सरकार ज्यादातर काम समाज की खुशी के लिये करती है, अब ये अलग बात है कि उसमें केवल समाज की खुशी तो हो सकती है, समाज का भला नहीं । समाज का भला और बुरा किसमें है, ये समझाने का कुछ काम  तो लेखको के हिस्से में भी आता है । राजनीतिक दल वोटो की राजनीति करते है और वो वोट पाने के लिये काम करते है, इसलिये उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिये । साहित्य समाज के लिये एक आईना होता है, लेकिन आपका आईना तो उस समाज तक पहुँचता ही नहीं है, दूसरी बात ये है कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, लेकिन ये आईना कई कारणों से झूठ भी बोलता है, कोई भी स्त्री आईने को देखकर ही अपना श्रंगार करती है, लेकिन अगर आईना उसे जरूरत से ज्यादा कुरूप दिखाये तो वो स्त्री आईने को तोड़कर फैंक देगी और हो सकता है कि श्रंगार करना भी बन्द कर दे, इसलिये समाज को उसके अच्छे और बुरे दोनों ही रूप दिखाने पड़ते है, लेकिन लेखकों का ऐसा विरोध समाज की कुरूपता को कुछ बढ़ाकर पेश कर रहा है, इसलिये ये समाज इस आईने से और भी दूरी बना सकता है । लेखको को समाज के लिये संघर्ष करना चाहिये न कि संघर्ष के नाम पर नाटक और राजनीति से अपने आपको दूर रखना होगा तभी माना जायेगा कि  वो समाज के लिये लड़ रहे है और जनता को उनका साथ मिल सकता है । 

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

मॉरीशस सहित विश्व में हिंदी की सुगंध

यदि मॉरीशस को हिंदी और हिन्दुस्तानियों का द्वीप कहा जाए तो शायद अनुचित न होगा। माना जाता है कि नागरिकों के रूप में मॉरीशस में भारतीयों  का आगमन 1834 के करीब हुआ था लेकिन इसके पूर्व भी फ्रांसिसी काल में वहाँ पर कुछ भारतीयों को कारीगर के रूप में ले जाया गया था और  व्यापारियों, नाविकों व  सिपाहियों के रूप में भारतीयों का आगमन हो चुका था। जब भी और जैसे भी जो भी भारत से गया हिंदी और भारत की संस्कृति  को साथ लेता गया । यूं तो वहाँ  अनेक भारतीय भाषाएँ बोली जाती हैं लेकिन हिंदी ही उनमें प्रमुख है जो साहित्य - संस्कृति और धार्मिक आयोजनों के  साथ आगे बढ़ती रही है।
     हिंदी की इस उर्वरा भूमि में हिंदी के अनेक सुगंधित पुष्प खिले जिन्होंने मॉरीशस सहित विश्व में हिंदी की सुगंध को फैलाया है। वे न केवल हिंदी के  प्रचार-प्रसार  में लगे हैं बल्कि हिंदीभाषियों की नई पीढ़ियाँ तैयार करने में जी जान से जुटे हैं। बाल - मन को बचपन से ही हिंदी से सुगंधित करने के  लिए उन्होंने बाल-निबंध,    बाल-नाटकों की रचना के साथ-साथ बाल-जगत पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ किया। साथ ही लोक-जीवन को भारतीय  संस्कृति के कलेवर में समेटने के लिए  उन्होंने लोककथाओं को भावी पीढ़ियों के लिए संकलित किया है। इन्द्रदेव भोला गद्य और पद्य दोनों विधाओं  में समाधिकार से स्तरीय रचना करने वाले सशक्त  साहित्यकार हैं।
   9 दिसंबर 1961 को स्वर्गीय डॉ.मुनीश्वरलाल चिंतामणी जी ने मॉरीशस के लेखकों के एक संघ की स्थापना करने के लिए पोर्ट-लुईस (मॉरीशस की  राजधानी) के    नेओ कॉलेज में आमंत्रित लेखकों को संबोधित करते हुए कहा था कि संघ का मुख्य उद्देश्य व्यवस्थित रूप से मॉरीशस में साहित्य-  सृजन करना है और निकट  भविष्य में अनेक लेखक, कवि, कहानीकार, उपन्यासकार तथा अनेक साहित्यकार पैदा करना है जो देश के दीप-स्तंभ  बनेंगे। इसी हिंदी लेखक संघ के तृतीय स्तंभ  श्री इनद्रदेव भोला मुलत
 : कवि हृदय हैं। जीवन जिजीविषा से संपूर्ण कवि हृदय ही उन्हें एक साथ कथाकार, निबन्धकार, संपादक और शोधकर्ता बनाए हुए है जिसके चलते इन्होंने मॉरिशस   के साथ-साथ विश्व के हिंदी और हिन्दुस्तानी समाज को महत्वपूर्ण कृतियाँ भेंट की हैं।
      इन्द्रदेव भोला ने अपने शोधकार्य, संपादन, एवं लेखन द्वारा मॉरीशस में मॉरीशस  तथा विश्व के हिंदी सेवियों का विलक्षण अविस्मरणीय इतिहास रच रहे हैं। उनकी कर्मठता की गूंज अपनी रचनाओं में गुंजित कर रहे हैं। विदेशों में हिंदी तथा विश्व में हिंदी एवं आर्य समाज उनकी ऐसी महत्वपूर्ण शोधपरक पुस्तकें हैं जिनमें विश्व में हिंदी के विकास का 
इतिहास दर्ज है तो गागर में सागर’ काव्य-संग्रह में 2244 हाइकू के मोती हैं और प्रतिध्वनियाँ कविता पुस्तक में 2244 कविताएं हैं। हाइकूसे वे अपने विचार और संवेदना को एक व्यंग्य विस्फोट के साथ उद्भाषित करते हैं। हाइकू में पिन पॉइंट’  करते हुए दुनिया की सच्चाई को निर्मम होकर प्रकट करते हैं।
     लोककथाओं में जीवन और जगत की प्राणवान शक्ति होती है।लोककथाएँ अपने समय और समाज की सच्चाइयों की कोख में जन्म लेती है। वे समाज के मानस की वास्तविक सहचर होती है।इसे ध्यान में रखते हुए मॉरिशस की लोककथाओं और लोक संस्कृति की रक्षा और संवर्धन के निमित्त मॉरिशस की लोककथाएंपुस्तक की रचना की जो बहुत  चर्चित रही। इसके साथ-साथ धर्मवीर धूरा और डॉ. मुनीश्वरलाल चिंतामणि के अभिनूतन मेंउनके कृतित्व और व्यक्तित्व को संजोते हुए स्मृतिग्रन्थों का संपादन किया।
इस तरह एक ओर कविता, कहानी, नाटक के द्वारा इन्द्रदेवजी ने मॉरिशस के साहित्य भंडार को समृद्ध किया है तो दूसरी ओर बालसखापत्रिका प्रकाशित करके बालमानस की हिन्दुस्तानी और मानवीय संवेदनाओं से रचने का प्रयास किया है । तीसरी ओर उन्होंने अपने देश के अंग्रेजों पर स्मृतिग्रन्थ संयोजित करके अपने समय के इतिहास को संजोने का महान कार्य भी किया है।
     इस तरह इन्द्रदेव भोला इन्द्रनाथजी मॉरिशस के बहुआयामी साहित्यकार हैं और कवि, कथाकार, निबंधकार, नाटककार, इतिहासकार तथा संपादक के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे हिंदी, अंग्रेजी, फ्रेंच, भोजपुरी तथा क्रियोल भाषाओं में भी लेखन करते हैं। हिंदी, अंग्रेजी, क्रियोल तथा भोजपुरी में लिखे इनके कई नाटक इनके ही निर्देशन में मंचित हुए हैं। सन् 2012 में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित क्रियोल में इन्हें राष्ट्रीय एकता मंत्रालय द्वारा इन्हें सर्वश्रेष्ठ नाटककार के रूप में सम्मान प्रदान किया गया। इन्द्रदेव भोला काफी वर्षों तक हिंदी लेखक संघ के महामंत्री रहे और अब उसके अध्यक्ष हैं।  आर्यसभा द्वारा निरीक्षक और परीक्षक नियुक्त हैं। शिक्षा केंद्र विद्या भवन के संस्थापक व संचालक हैं जहाँ पिछले 44 वर्षों से हिंदी की नि:शुल्क पढ़ाई होती है।
     बहुमुखी प्रतिभा के धनी इन्द्रदेव भोला प्रकाशशीर्षक से पाक्षिक साहित्यिक-सांस्कृतिक रेडियो कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते रहे हैं। सरकारी स्कूल में हिंदी अध्यपक व उप प्रधानाध्यापक रहे हैं। पिछले पचास वर्षों से हिंदी सेवा व सृजनात्मक लेखन के लिए मॉरिशस सरकार तथा साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित होते रहे हैंजिनमें प्रमुख हैं –‘सनातन धर्म टेम्पल्स फेडरेशन’, ‘आर्य सभा’, ‘हिंदी प्रचारिणी सभा, ‘हिंदी सेवा संस्थान’, ‘हिंदी संगठन’, ‘हिंदी लेखक संघ
विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा हिंदी विश्व भाषा सम्मान, हिंदी साहित्य अकादमी ने हिंदी सेवा निभूति’,  ब्रह्मकुमारी संस्था द्वारा आदर्श अध्यापकऔर 2014 में विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भारत तथा  अभ्युदय संस्था वर्धा, ने इन्हें पी.एच.डी., सारस्वत विद्या वाचस्पति, तथा हिंदी सरस्वति सम्मानसे  विभूषित किया है।इसके साथडसाथ ग्राम परिषद द्वारा विशिष्ट सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। दरअसल  ऐसे सतत् संघर्षशील हिंदी कार्यकर्ता के माध्यम से ये सम्मान भी सम्मानित हुए हैं। हिंदी भाषा व  साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए संघर्षरत ऐसे संघर्षशील व्यक्ति को वैश्विक हिंदी सम्मेलनद्वारा हिंदी का विश्वदूतघोषित किए जाने से हम सभी स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं कि हम सब के  बीच सभी स्वार्थों और जीवन सुख से परे जाकर इन्द्रदेवजी हिंदी के सच्चे सेवक के रूप में निस्पृह भाव  से जुटे हुए हैं।