सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नव वर्ष 2013 की शुभकामनायें

2012 को अलविदा --  तथा नव वर्ष 2013  की शुभकामनायें । इसी उम्मीद के साथ कि नव वर्ष महिला उत्पीड़न मुक्त हो । 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

सरोकार और विमर्श


 समकालीन कविता ' सरोकार और विमर्श ' विषय परके . जे . सोमैया कला  वाणिज्य महाविद्यालय द्वाराआयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद में हिंदी के साथसमकालीन मराठी , गुजराती , संस्कृत कविता में विविधविमर्शों पर चर्चा की गई। उद्घाटन सत्र में बीज वक्तव्य देते हुएराजेश जोशी ने समकालीन कविता को अपने समय कीचुनौतियों को व्याख्यायित करने वाला बताया। अध्यक्षता करतेहुए डॉ . रामजी तिवारी ने कहा कि समकालीन कविताएंमौजूदा परिवेश और उससे उत्पन्न संकटों से परिचित करातीहै। स्वागताध्यक्ष समीर सोमैया के मुताबिक तकनीकी युग मेंभाषा का संरक्षण जरूरी है। प्रमुख अतिथि प्रणतपाल सिंह ने भी समकालीन कविता के विविध सरोकारों परप्रकाश डाला। 

पहले सत्र में वैश्वीकरण , बाजारवाद और समकालीन कविता पर चर्चा हुई , अध्यक्षता डॉ . आलोक गुप्त ने की।मराठी कवि दामोदर मोरे की अध्यक्षता में दूसरा सत्र दलित , आदिवासी एवं ग्रामीण विमर्श पर आधारित था।बाद के सत्रों में स्त्री विमर्श , नगरबोध , सांप्रदायिकता , पर्यावरण एवं अन्य विमर्शों पर हुई चर्चा में डॉ . विनोददास , अनूप सेठी , संवेदना रावत , डॉ . हरिवंश पांडेय , डॉ . संजीव दुबे आदि ने विचार रखे। प्राचार्य डॉ . सुधाव्यास ने सोमैया विद्याविहार में अंतर्भाषिक विमर्शों की उपादेयता बताई। संचालन डॉ . विजयश्री , वीणासानेकर , अभिजित देशपांडे , दिनेश पाठक , मनीष मिश्र , प्रीती दवे ने किया। डॉ . सतीश पांडेय ने आभारमाना। 

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

हिंदी और दूसरे भाषाई अखबारों और समाचार चैनलों में अभी तक 'वी' को 'वी' ही लिखा

कुछ दिन पहले इंडियन फर्राटा रेस दूसरी बार भी सेबेस्टियन वेटल ने जीत ली। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जान पाए कि दोनों बार ये रेस दरअसल सेबेस्टियन वेटल ने नहीं बल्कि सेबेस्तियन फेटल ने जीती। यह भी कम ही लोग जानते हैं कि जर्मन सिम्फनी जादूगर दरअसल बेथोफेन थे, बेथोवेन नहीं। दरअसल जर्मन भाषा में 'वी' का उच्चारण 'फ ' की तरह किया जाता है जैसे बंगाल-बिहार में इस 'वी' या 'व' को 'भ' उच्चारित करते हैं।
कुछ साल पहले तक तो इस 'वी' को हिंदी में 'वी' लिखना और 'वी' उच्चारित करना समझ में आता था क्योंकि तब तक भारत में जर्मन कार कंपनी फोल्क्स्वैगन नहीं आई थी। लेकिन अब तो लगभग हर बड़े शहर में इसके शोरूम हैं और टीवी पर इसका विज्ञापन भी आता है जिसमें साफ -साफ फोल्क्स्वैगन बोला जाता है जो इंग्लिश के शब्द 'वी' से शुरू होता है। टीवी स्क्रीन पर इंग्लिश में लिखकर भी आता है।

लेकिन हिंदी और दूसरे भाषाई अखबारों और समाचार चैनलों में अभी तक इस 'वी' को 'वी' ही लिखा और बोला जा रहा है। बात सिर्फ जर्मनी की ही नहीं, पांच वर्षों तक फ्रांस के राष्ट्रपति रहे निकोलस सर्कोजी दरअसल निकोला सारकोजी थे। फ्रेंच के कई शब्दों, खास तौर पर संज्ञा के आखिर के 'एस' को बोला नहीं जाता, चूंकि निकोला के नाम के आखिर में 'एस' लगा था तो सभी ने उस आशिक बेचारे को पांच साल तक निकोला से निकोलस बनाए रखा। जिस तरह जर्मन चांसलर अंगेला मैरकल को एंजिला मैर्कल बनाए हुए हैं क्योंकि उनके नाम में 'जी' शामिल है।
इसी तरह बुंगा-बुंगा पार्टी वाले इटली के पूर्व प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी नहीं बल्कि सेल्वियो बैर्लुस्कोनी हैं। चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग नहीं, शी जिनपिंग बनेंगे और प्रधानमंत्री ली केमियांग नहीं बल्कि ली क क्यांग होंगे। कामयाब जासूस, नाकाम आशिक सीआईए प्रमुख डेविड पेट्रेयस या पेट्रियस तो हो सकते हैं पर पैट्रियास बिलकुल नहीं, जैसा कि मीडिया में बोला-लिखा जा रहा है। तुर्की के प्रधानमंत्री का नाम रेचेप तय्यब एर्दोआन है न कि रिसेप तय्यप एर्दोगान। चूंकि उनका नाम रेचेप लिखने में इंग्लिश का 'सी' आता है तो रेचेप कर दिया और एर्दोआन के बीच में 'जी' शब्द आता तो एर्दोगान। लेकिन शुक्र है कि एर्दोजान नहीं लिखा गया, जैसा कि अंगेला मैरकल के मामले में किया जा रहा है।

अरब देशों के नामों के साथ भी भद्दा मजाक होता है। अरबी नामों का तर्जुमा करने में 'स' और 'श' के लिए वहां के उच्चारण के अनुसार इंग्लिश में 'डी' या 'टी एच' लिखा जाता है जो यहां अपने ढंग से पढ़ा और लिखा जाता है। और तो और दक्षिण भारत के विख्यात हीरो कमल हासन को कमल हसन लिखा जाता है, उनकी बेटी श्रुति के आगे भी हसन लिखा जाने लगा। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं। उत्तर-पूर्व और दक्षिण के लोगों के नाम हम लोग सही से उच्चारित नहीं करते। लेकिन हैरत है कि 'गुची' पर्स को कोई भी गुक्की या गुस्सी नहीं बोलता है।

हालांकि उसकी स्पेलिंग अपने उच्चारण से बिलकुल मेल नहीं खाती। उसमें दो बार इंग्लिश का 'सी' आया है और अपने यहां इस 'सी' को 'क' के उच्चारण की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा है। ये विरोधाभास फोल्क्सवैगन की तरह ही है, यानी बाजार का दबाव जहां ज्यादा है वहां सब सही है। यह समस्या सिर्फ भारत की नहीं हैदुनियामें सभी जगह यह दिक्कत आती है। अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों के मीडिया संस्थानों ने ऐसे सॉफ्टवेयर तैयारकराए हैं जिनमें जिस देश का शब्द है उस देश के कॉलम में जाकर इंग्लिश में उसे फीड करने पर उस शब्द कासही उच्चारण बोलकर वो सॉफ्टवेयर सुना देता है।

मीडिया की विश्वसनीयता में इस बात का बड़ा हाथ है कि उनकी जानकारियां सही होती हैं। इस तरह कासॉफ्टवेयर तैयार कराना  बहुत खर्चीला काम है और  पेचीदा। लेकिन भारत में हजारों करोड़ रुपये की न्यूजइंडस्ट्री में इस तरह की पहल शायद किसी मीडिया संस्थान ने अभी तक नहीं की है

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

हिंदी का जलवा


 एफडीआई मुद्दे को लेकर लोकसभा में चली बहस में हिंदी का जलवा खूब दिखा। ज्यादातर सांसदों ने अपनी पार्टी और अपनी बात को आम जनता के बीच जोरदार ढंग से पहंचाने के लिए उन्हीं की भाषा हिंदी का सहारा लिया। दो दिन तक चली इस बहस में कुल 18 दलों के सदस्यों ने भाग लिया और ज्यादातर वक्ताओं ने अपनी बात हिंदी में कही। 
खास बात यह कि जहां हिंदीभाषी इलाकों के सांसदों ने अपनी बात हिंदी में रखी, वहीं कुछ गैर हिंदीभाषी सांसदों ने भी अपनी भावनाएं हिंदी में जाहिर करना उचित समझा। हैरानी की बात रही कि जो सांसद ज्यादातर मौकों पर अपनी बात अंग्रेजी में रखते रहे हैं, उन्होंने तमाम झिझक छोड़ हिंदी का सहारा लिया। 
गैर हिंदीभाषियों में जहां टीएमसी के सौगत राय और टीडीपी के सांसद नागेश्वर राव ने हिंदी में बोलना पसंद किया, वहीं ज्यादातर मौकों पर अंग्रेजी में बोलने वाले सीपीआई नेता वासुदेव आचार्य भी खुद को हिंदी में बोलने से नहीं रोक पाए। सौगत राय ने पहले दिन अंग्रेजी में अपना पक्ष रखा, वहीं हिंदी लहर में वह कुछ ऐसे बहे कि उन्होंने अपने प्रस्ताव का जवाब देने के लिए हिंदी का सहारा लिया। इसी तरह से ज्यादातर मौकों पर अंग्रेजी बोलते देखे जाने वाले वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने भी सरकार का पक्ष रखने के लिए हिंदी को चुना। हिंदी में बोलने वाले वक्ताओं में बीजेपी नेता सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, शिवसेना के अनंत गीते, आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, एसपी सुप्रीमो मुलायम सिंह, बीएपी के दारा सिंह चौहान, एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल, कांग्रेस से कपिल सिब्बल और दीपेंदर हुड्डा व आरएलडी के जयंत चौधरी शामिल रहे। दिलचस्प यह कि अंग्रेजी में अपनी बात शुरू करने वाली अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल ने भी अपनी बात पुरजोर ढंग से खत्म करने के लिए हिंदी का सहारा लिया। 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अजमल आमिर कसाब के शव को यरवदा जेल में दफना दिया गया


 आतंकी अजमल आमिर कसाब के शव को यरवदा जेल में दफना दिया गया है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने बताया कि कसाब के शव को पाकिस्तान को न सौंपकर जेल के अंदर ही दफन कर दिया गया। इससे पहले कयास लग रहे थे कि कसाब के शरीर को या तो पाकिस्तान के हवाले किया जाएगा, या ओसामा-बिन-लादेन की ही तरह पर समंदर में दफन किया जाएगा।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान ने जानकारी दी कि कसाब को यरवदा जेल के अंदर ही दफनाया गया है। इस बात के लिए खास इंतजाम किए गए हैं कि कसाब की कब्र की कोई पहचान न हो। मुंबई हमले के दौरान मार गिराए गए कसाब के साथियों के शवों को भी गुमनाम जगह पर दफन किया गया था। उस वक्त समस्या यह थी कि पाकिस्तान ने शव लिए नहीं और भारत में मुस्लिम धर्म गुरुओं ने अपील की थी आतंकियों को यहां न दफनाया जाए। इससे पहले केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सुबह बताया था कि पाकिस्तान को इस बारे में एक लेटर भी भेजा गया था, लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं आया।

कुछ लोग मांग कर रहे थे कि कसाब के शरीर को भारत में दफनाने के बजाए समंदर में दफन कर दिया जाए। आशंका थी कि अगर कसाब को भारत में दफन किया जाता है, तो कट्टरपंथी और राष्ट्र विरोधी लोग उसे हीरो बना सकते हैं। इसी तरह की आशंका के डर से अमेरिका ने 9/11 के गुनहगार ओसामा बिना लादेन को मार गिराने के बाद उसकी डेड बॉडी को समंदर में दफन कर दिया था। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कसाब के शरीर को जेल में दफनाने का फैसला किया, ताकि वहां कोई पहुंच न सके।

रविवार, 18 नवंबर 2012

अगर आपके पास एंड्रॉयड पर चलने वाला स्मार्टफोन है तो बस पांच मिनट में अपने फोन में हिंदी की-बोर्ड इंस्टॉल कर सकते है।

आप अपने मोबाइल में हिंदी पढ़ तो लेते हैं पर लिख नहीं पाते। अगर ऐसा है तो निराश होने की जरूरत नहीं। अगर आपके पास एंड्रॉयड पर चलने वाला स्मार्टफोन है तो बस पांच मिनट में अपने फोन में हिंदी की-बोर्ड इंस्टॉल कर सकते है।

हालांकि मार्केट में GO keyboard, Anysoft keyboard, Multiling keyboard जैसे की-बोर्ड हैं, लेकिन यहां हम Multiling keyboard के बारे में बता रहे हैं। यह फ्री उपलब्ध है। पूरी जानकारी संतोष त्रिवेदी से:

1. सबसे पहले CPLAY STORE (android market) पर जाकर Multiling keyboard सर्च करें और फोटो न. 1 वाला ऐप्लिकेशन डाउनलोड करके इंस्टॉल कर लें। इसके बाद इसे खोलने पर मुख्य पेज या मेनू (फोटो नंबर 2) दिखाई देगा। यही आपको पूरी तरह गाइड करता है। इसके लिए अलग से फोन की सेटिंग में जाने की जरूरत नहीं है।

रविवार, 11 नवंबर 2012

हार्दिक शुभकामनायें


राजभाषा समाचार के पाठकों को दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें 

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं।


दरअसल, हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं। देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं। उन्हें जितना ज्यादा हिंदी में पढ़ा जा रहा है, उतना किसी दूसरी भाषा में नहीं। यह अलग बात है कि आज हिंदी और उर्दू बेहद विपन्न भाषा हो गई हैं। सारे अवसर अंग्रेजी लूट कर ले जा रही है। विपन्न इस अर्थ में कि हिंदी और उर्दू आज रोजगार की भाषा नहीं बन पाई। अंग्रेजी के लेखकों को एक लेख से जो रकम मिल जाती है, एक किताब से जो रॉयल्टी मिल जाती है, वह उन्हें अगले शोध के लिए और तफरीह का अवसर देती है। पर हिंदी के साथ ऐसा नहीं है। हिंदी के अधिकतर लेखकों की ज्यादातर ऊर्जा इसी बात में खप जाती है कि ज्यादा से ज्यादा लिखे और छपे ताकि घर चलाने का इंतजाम हो पाए। यह एक बड़ी वजह है कि अंग्रेजी का औसत लेखक अपने शोध के कारण बड़ा दिखने लग जाता है, जबकि हिंदी-उर्दू के बड़े लेखकों का नाम लेने वाला कोई नहीं हिंदी और उर्दू के बीच दूरी देखने वालों को यह भी देखने की जरूरत है कि आज की हिंदी में शब्दों को लेकर जितने प्रयोग हो रहे हैं, वह किस तरफ इशारा करते हैं। 'अफसोसनाक' के बजाय अधितकर लोग 'अफसोसजनक' लिख रहे हैं। 'तकलीफदेह' शब्द 'तकलीफदेय' में तब्दील होता दिख रहा है। 'प्रभात खबर' शब्द अब जुबां पर है। एतराज जताने वाले पूछ सकते हैं 'प्रभात समाचार' क्यों नहीं? पर सच मानिए कि यह तकलीफ की बात नहीं है। भाषा तभी आगे बढ़ती है जब वह अपनी जरूरत और वक्त के मुताबिक खुद को नए सांचे में ढालती है, वरना वह मृतप्राय हो जाएगी। हिंदी की प्रकृति ऐसी है कि वह बेहद संजीदगी से किसी भी भाषा के शब्द को सहज रूप से अपने में घोल लेती है और उसे जरूरत पड़ने पर हिंदी व्याकरण के हिसाब से नया रूप देती है, ढालती है

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं


भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर पैट्रिक फ्रेंच की किताब 'लिबर्टी और डेथ' का हिंदी अनुवाद हुआ है आजादी या मौत के नाम से। हिंदी अनुवाद के बारे में आए ट्वीट पर किसी ने चुटकी ली कि आजादी और मौत तो उर्दू के शब्द हैं हिंदी में 'स्वतंत्रता अथवा मृत्यु' हो सकता था, यह क्यों नहीं। इस ट्वीट के बाद कई सारे रोचक ट्वीट दूसरों ने किए। किसी ने 'आजादी' और 'मौत' को हिंदी का शब्द माना तो किसी ने इसे खारिज किया। कुल मिलाकर हिंदी और उर्दू को लेकर वहां दो खेमे में लोग बंटे दिखे।

इसके बाद इस संदर्भ में कुछ पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटों पर रोचक लेख और टिप्पणियां मिलीं। ट्वीट से शुरू हुई चुहल एक लंबी बहस में तब्दील होती दिखी। इसी बीच एक लेखक ने लिखा कि 1880-1884 के बीच लार्ड रिपन के समय जब फारसी लिपि वाली उर्दू को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया तो हिंदी वालों ने विरोध शुरू किया। बाद में अंग्रेजों ने दोनों भाषाओं को बराबरी का दर्जा दिया। पर इससे झगड़ा ख़त्म नहीं हुआ, बढ़ गया। लेखक के मुताबिक, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय हिंदी की नुमाइंदगी करने लगा जबकि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी उर्दू की। तब गांधी जी ने हिंदुस्तानी (ऐसी भाषा जिसमें हिंदी और उर्दू के प्रचलित शब्द हों) की वकालत की, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। 1950 में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया और उर्दू पीछे छूट गई। लेकिन लेखक के मुताबिक, अचानक उर्दू नए सिरे से प्रासंगिक हो रही है, लोग सीख रहे हैं। लेख का यह हिस्सा अंग्रेजी की 'बांटो और राज करो' की पुरानी नीति पर खड़ा दिखता है।

दरअसल, हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं। देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं। उन्हें जितना ज्यादा हिंदी में पढ़ा जा रहा है, उतना किसी दूसरी भाषा में नहीं। यह अलग बात है कि आज हिंदी और उर्दू बेहद विपन्न भाषा हो गई हैं। सारे अवसर अंग्रेजी लूट कर ले जा रही है। विपन्न इस अर्थ में कि हिंदी और उर्दू आज रोजगार की भाषा नहीं बन पाई। अंग्रेजी के लेखकों को एक लेख से जो रकम मिल जाती है, एक किताब से जो रॉयल्टी मिल जाती है, वह उन्हें अगले शोध के लिए और तफरीह का अवसर देती है। पर हिंदी के साथ ऐसा नहीं है। हिंदी के अधिकतर लेखकों की ज्यादातर ऊर्जा इसी बात में खप जाती है कि ज्यादा से ज्यादा लिखे और छपे ताकि घर चलाने का इंतजाम हो पाए। यह एक बड़ी वजह है कि अंग्रेजी का औसत लेखक अपने शोध के कारण बड़ा दिखने लग जाता है, जबकि हिंदी-उर्दू के बड़े लेखकों का नाम लेने वाला कोई नहीं।

हिंदी और उर्दू के बीच दूरी देखने वालों को यह भी देखने की जरूरत है कि आज की हिंदी में शब्दों को लेकर जितने प्रयोग हो रहे हैं, वह किस तरफ इशारा करते हैं। 'अफसोसनाक' के बजाय अधितकर लोग 'अफसोसजनक' लिख रहे हैं। 'तकलीफदेह' शब्द 'तकलीफदेय' में तब्दील होता दिख रहा है। 'प्रभात खबर' शब्द अब जुबां पर है। एतराज जताने वाले पूछ सकते हैं 'प्रभात समाचार' क्यों नहीं? पर सच मानिए कि यह तकलीफ की बात नहीं है। भाषा तभी आगे बढ़ती है जब वह अपनी जरूरत और वक्त के मुताबिक खुद को नए सांचे में ढालती है, वरना वह मृतप्राय हो जाएगी। हिंदी की प्रकृति ऐसी है कि वह बेहद संजीदगी से किसी भी भाषा के शब्द को सहज रूप से अपने में घोल लेती है और उसे जरूरत पड़ने पर हिंदी व्याकरण के हिसाब से नया रूप देती है, ढालती है

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

भारत की भिकारी देश वाली छबि भाषा को लेकर ही है.


भाषा को लेकर भारत मे आज तक ग़ुलामी की नीतीया ही चल रही है. भारत की भिकारी देश वाली छबि इसलिये ही है. हिन्दी को राज काज ,पढ़ने ,कानून, की भाषा नही बनाना देश की उन्न्नति मे सबसे बड़ा रोडा है. आपनी भाषा मे ही मौलिक चिंतन हो सकता है. विदेशी भाषा मे किसी देश ने उन्नति नही की है. चाइना,जापान,रूस,फ़्राँस,जर्मनी,.......सभी आपनी भाषा से आगेबढे है. विदेशी भाषा वाला देश नकलची और भिकारी ही रहता हे.भारत मे जब तक अंग्रेज़ी रहेगी देश ग़ुलामी ढोतारहेग.वार्त्मान आजादी ग़ुलामी पर शक्कर् चडी गोली की तरह ही जिसकी चासनी अब खतम हो गयी है और ग़ुलामी की कड़वाहट आने लगी है. इसका मूल कारण आपनी भाषा का रास्ट्र भासा नही होना है

हमारी भाषा खो गई तो सब कुछ खो जा जाएगा


सार्क देशों का भाषा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में काफी सुनहरा भविष्य है। कंप्यूटिंग टेक्नॉलजी में लोगों की रुचि काफी बढ़ी है। पीसी और इंटरनेट का तेजी से विस्तार आफिस तक ही सीमित नहीं। यह घर-घर तक पहुंच चुका है। लोगों में आगे बढ़ने और नई तकनीक अपनाने की ललक दिखाई देती है। मुझे विश्वास है कि निरंतर विकास करती हमारी टेक्नॉलजी सार्क देशों को अपनी भाषा के प्रसार के लिए नई दिशा प्रदान करती रहेगी। इस स्थिति को और विकसित करने एवं बढ़ाने की आवश्यकता है। सार्क देशों में कंप्यूटर और उसके प्रयोग की असीम संभावनाएं हैं। बहुत सारी पुस्तकें, पत्रिकाएं ऑडियो प्रशिक्षण सामग्री तथा प्रशिक्षण केंद्र का विस्तार किया जाना चाहिए

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

बदलाव का विरोध वही करते हैं जो भाषा को अपनी जागीर समझते हैं,


हिंदी प्रेमियों को इसकी अपनी लिपि, अपने शब्द और इसके व्याकरण वगैरह पर एक हद से ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए। अगर हिंदी फैलती है, इसका दायरा व्यापक बनता है तो इन सब में बदलाव आना लाजिमी है। बदलाव का विरोध वही करते हैं जो भाषा को अपनी जागीर समझते हैं, जबकि कोई भाषा किसी की निजी संपत्ति नहीं बनी रह सकती। यह उन सब की साझा संपत्ति होती है, जो उससे जुड़े होते हैं। इस तर्क से सहमत होते हुए भी कुछ सवाल मेरे मन में रह गए थे। शायद इसलिए कि मैं भी उन लोगों में हूं, जो हिंदी के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। मगर हाल में मैंने एक अंग्रेजी दैनिक में जस्टिस मार्कंडेय काटजू की एक टिप्पणी देखी, जो कि नीचे प्रस्तुत है ।

कुछ समय पहले जस्टिस काटजू ने चेन्नै के किसी आयोजन में अपने भाषण में तमिलभाषियों के हिंदी सीखने की जरूरत पर बल दिया था। इसका वहां कुछ लोगों ने विरोध किया। जस्टिस काटजू ने उन्हीं विरोधियों के तर्कों का जवाब देने के लिए अखबार में यह टिप्पणी लिखी थी। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि वह तमिलनाडु ही नहीं, कहीं भी किसी पर भी हिंदी थोपने के खिलाफ हैं और नहीं मानते कि हिंदी भाषा तमिल से बेहतर है। वे हर भाषा का समान आदर करते हैं, किसी को ऊपर या नीचे नहीं रखते। उनके मुताबिक तमिल की हिंदी से तुलना नहीं की जा सकती इसलिए नहीं कि हिंदी बेहतर है, बल्कि इसलिए कि हिंदी कहीं ज्यादा व्यापक है। तमिल सिर्फ तमिलनाडु में बोली जाती है, जिसकी आबादी 7.2 करोड़ है। जबकि हिंदी न केवल हिंदी भाषी इलाकों में, बल्कि गैर हिंदी भाषी राज्यों में भी दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल होती है। हिंदी भाषी राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में 20 करोड़, बिहार में 8.2 करोड़, मध्य प्रदेश में 7.5 करोड़, राजस्थान में 6.9 करोड़, झारखंड में 2.7 करोड़, छत्तीसगढ़ में 2.6 करोड़, हरियाणा में 2.6 करोड़ और हिमाचल प्रदेश में 70 लाख लोग हिंदी बोलते हैं। अगर पंजाब, प. बंगाल और असम जैसे गैर हिंदी भाषी राज्यों के हिंदीभाषियों को जोड़ लिया जाए, तो संख्या तमिल भाषियों के मुकाबले 15 गुनी ज्यादा हो जाती है। तमिल एक क्षेत्रीय भाषा है जबकि हिंदी राष्ट्रभाषा है और इसकी वजह यह नहीं कि हिंदी तमिल के मुकाबले बेहतर है। इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं। 

कहते हैं इंग्लिश पूरे देश की संपर्क भाषा है, मगर नहीं। इंग्लिश एलीट तबके की संपर्क भाषा हो सकती है, आम लोगों की नहीं। जस्टिस काटजू ने इस संदर्भ में एक घटना का जिक्र किया है। जब वह मद्रास हाई कोर्ट के जज थे, एक दिन उन्होंने एक दुकानदार को फोन पर हिंदी में बात करते सुना। उसके फोन रखने पर जस्टिस काटजू ने तमिल में उससे पूछा कि वह इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेता है? दुकानदार ने जवाब दिया, नेता कहते हैं हमें हिंदी नहीं चाहिए पर हमें बिजनस करना है, इसलिए मैंने हिंदी सीख ली है। जस्टिस काटजू का यह अनुभव पढ़कर मुझे भी लगता है कि तमिलनाडु के हिंदी विरोधी और इलाहाबाद, वाराणसी के विशुद्ध हिंदी का आग्रह पालने वाले हिंदी समर्थक अनजाने में एक ही पाले में खड़े हैं। अगर तमिलनाडु के लोग हिंदी को अपनाएंगे तो क्या वे उसमें तमिल के प्रचलित शब्द नहीं डालेंगे? क्या उनका प्रयोग और उच्चारण वगैरह बिलकुल वैसा ही होगा, जैसा उत्तर प्रदेश या बिहार के लोगों का होता है? साफ है कि ऐसा नहीं होगा। वह एक नए तरह की हिंदी होगी, जो शायद यूपी और एमपी के लोगों को थोड़ी अजीब लगे। जैसी कि मुंबइया हिंदी लगती है, लेकिन वह होगी हिंदी ही। क्या हम देश-विदेश में जन्म ले रही, फल-फूल रही ऐसी तमाम हिंदियों को अपना मानने की उदारता नहीं दिखा सकते?

सोमवार, 24 सितंबर 2012

शपथ समारोह में संसद में बहुत से नेताओं ने अँग्रेज़ी में शपथ ग्रहण


ये मैं नहीं कहता| ये कहते हैं आज के हालत| जानना चाहेंगे कैसे? तो शुरुआत करते हैं हमारे आसपास के माहौल से| आज दिल्ली में कितने माँ बाप होंगे जो अपने बच्चे का दाखिला हिन्दी मध्यम के विधयालयों मे करना पसंद करेंगे? बहुत कम या फिर ना के बराबर|
इसकी वजह साफ है| कोई भी अभिभावक अपने बच्चे के भविष्य से खेलना नहीं चाहेगा| जिस भाषा का अपना भविष्य ख़तरे मे है वो भाषा किसी का क्या उद्धार कर पाएगी| इसमें हमारी हिन्दी भाषा का दोष नहीं है| ये दोष है हमारी सोच का|
मैं आजतक भारत की आज़ादी के भाषण का हिन्दी अनुवाद डूंड रहा हूँ| जिस देश की आबादी का 80% से ज़्यादा लोगों को अँग्रेज़ी नहीं आती थी उन्हें भी अपनी आज़ादी का संदेश अँग्रेज़ी में सुनना पड़ा| या फिर में ग़लत हूँ| क्यों की मैने जब भी नेहरू जी को सुना टी वी या रेडियो के ज़रिए आज़ादी का भाषण अँग्रेज़ी में सुनाई दिया|
इस बार के शपथ समारोह में संसद में बहुत से नेताओं ने अँग्रेज़ी में शपथ ग्रहण की| इनमे से बहुत से ऐसे थे जो वोट माँगते वक़्त खालिस हिन्दी का प्रयोग कर रहे थे| क्यों भाई जिस भाषा ने वोट दिलाए उसी भाषा में आपको शपथ लेने में क्या शर्मिंदगी महसूस हो रही थी|
नेता हुए अब आते हैं अभिनेताओं की ओर| ऐसे कितने अभिनेता हैं जिन्होने नाम और शोहरत तो हिन्दी फिल्मों से कमाई| मगर जब जब इन्हे समारोहों में बोलने का मौका दिया गया, ये यकायक हिन्दी भूल गए| या फिर शर्म आती है इन्हें भी हिन्दी में अभिवादन करने में|
पिछले ही वर्ष एक अख़बार में पढ़ा कॉलेज के कुछ छात्रों ने कहा अँग्रेज़ी की गाली भी बहुत कूल लगती है मगर कोई हिन्दी में प्यार का इज़हार भी करे तो गाली लगती है|
भारत की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो यहाँ हर चीज़ जो बिकती है उसमे हिन्दी दूर दूर तक नज़र नहीं आती| अभी हाल ही में मैने धौला कुआँ के मेट्रो स्टेशन के नाम को देखा यहाँ अँग्रेज़ी में उप्पर और हिन्दी को नीचला स्तर दिया गया था| कम से कम जगहों के नाम पहले हिन्दी में फिर किसी और भाषा में लिखे जाते थे| और फिर आइ टी ओ में पुलिस मुख्यालय बड़े बड़े अक्षरों मे लिखा गया है हिन्दी में नहीं अँग्रेज़ी में| मैने इस बात की शिकायत मंत्रालया को की है देखते हैं सरकार क्या कदम उठाती है|
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सितंबर जिसे हमारी सरकार हिन्दी दिवस के नाम से मनाती है| इसी अवसर पर मेरी तरफ से ये भेंट स्वीकार करे

बुधवार, 12 सितंबर 2012

राजभाषा विभाग का गठन हिन्दी को राजभाषा के रूप मे विकसित करने और उसका इस्तेमाल सरकारी कार्यालयों मे बढ़ाने के लिए किया गया


कल हिन्दी दिवस है ।  इस दिन अनेकानेक सरकारी कार्यालयों मे हिन्दी के कार्यक्रम होंगे । प्रश्न है कि क्या अब राजभाषा विभाग को वास्तविकता  मे हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए कदम उठाने चाहिए । यह कहना गलत नहीं होगा कि इस दिन अनेकानेक सरकारी कार्यालयों मे हिन्दी के कार्यक्रम हिन्दी का साहित्य रूप प्रदर्शित करते है । राजभाषा विभाग का गठन हिन्दी को राजभाषा के रूप मे विकसित करने और उसका इस्तेमाल सरकारी कार्यालयों मे बढ़ाने के लिए किया गया था लेकिन आज सरकारी कार्यालयों मे यह नहीं हो रहा है । इसका आडिट होना चाहिए । 

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

आज यहां हम जिस हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस में उलझे हुए हैं

भाषाओं का संसार बेहद रोचक है। आज यहां हम जिस हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस में उलझे हुए हैं, ये दोनों मूलरूप से एक ही परिवार की सदस्य हैं। हिंदी, रूसी, जर्मन और अंग्रेजी- ये सभी भारतीय-यूरोपीय परिवार की भाषाएं मानी जाती हैं, क्योंकि इनका जन्म एक साथ हुआ है। हालांकि इनके जन्मस्थान को लेकर विवाद रहा है।

पिछले दिनों इस संबंध में एक नई बात सामने आई है, जो वर्तमान धारणा से अलग है। यूनिवसिर्टी ऑफ ऑकलैंड (न्यूजीलैंड) के जीव विज्ञानी क्वेंटीन एटकिंसन के नेतृत्व में कुछ रिसर्चरों ने एक शोध किया है, जिसके मुताबिक भारतीय-यूरोपीय भाषाओं का जन्म एंटोलिया में हुआ था, जिसे आज तुर्की कहा जाता है। इन रिसर्चरों का कहना है कि करीब 8000 से 9500 साल पहले यहीं से ये सभी भाषाएं पूरी दुनिया में फैलीं। इस स्टडी के लिए एटकिंसन की टीम ने कंप्यूटेशनल तकनीक का सहारा लिया। उन्होंने बीमारियों के प्रसार का अध्ययन करने के साथ 103 प्राचीन और समकालीन भारोपीय भाषाओं की मूल शब्दावली का तुलनात्मक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी, ग्रीक और हिंदी के अनेक शब्द भले ही अलग-अलग सुनाई देते हों, लेकिन इनमें कई समानताएं हैं। जैसे मदर शब्द को जर्मन में मुटर, रूसी में मैट, फारसी में मादर और हिंदी में मातृ कहते हैं। इन सभी का आपस में संबंध है। ये सभी मूल भारोपीय शब्द मेहटर से विकसित हुए हैं।

इसके पहले भाषा विज्ञानियों की मान्यता यह रही है कि भारतीय-यूरोपीय भाषाएं आज से 6000 साल पहले स्टेपीज में विकसित हुईं, जो आज का रूस है। इसके पीछे दलील यह रही है कि चक्के और गाड़ी के लिए इन सभी भाषाओं में एक ही जैसे शब्द हैं। ऐसा इसलिए है कि उस क्षेत्र में रथ या उस जैसी एक गाड़ी तब तक बनाई जा चुकी थी। भाषा विज्ञानी मानते हैं कि स्टेपीज में रहने वाले लोग पशुपालक थे। वे चारे और पानी की तलाश में अपने मूल स्थान से दूसरे क्षेत्रों की ओर बढ़े। और करीब चार हजार साल पहले यूरोप और एशिया के मूल निवासियों पर जीत हासिल कर वहीं बस गए। पर एटकिंसन की थ्योरी के मुताबिक नौ हजार साल पहले भारतीय-यूरोपीय भाषाएं बोलने वाले एंटोलिया के लोग शांतिप्रिय किसान थे, जो खेती का प्रसार करते हुए दुनिया भर में फैले, युद्ध करते हुए नहीं। लगता है, भाषा के जन्म को लेकर चलने वाला विवाद फिलहाल तो खत्म नहीं होने वाला

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय

राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय
एनडीसीसी-II (नई दिल्ली सिटी सैंटर) भवन, 'बी' विंग
चौथा तल, जय सिंह रोड़
नई दिल्ली - 11000