गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

साहित्य का नोबेल पुरस्कार पेरू के स्पैनिश लेखक मारियो वर्गास लोसा को देने की घोषणा

इस वर्ष साहित्य का नोबेल पुरस्कार पेरू के स्पैनिश लेखक मारियो वर्गास लोसा को देने की घोषणा हुई है। लैटिन अमेरिका के इस चर्चित लेखक को नोबेल देने की हर कोई सराहना कर रहा है, पर भारत में ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि लंबे अरसे से भारतीय साहित्य को नोबेल के उपयुक्त क्यों नहीं माना जा रहा है? रवींद्र नाथ टैगोर के बाद करीब सौ साल की इस अवधि में किसी अन्य भारतीय साहित्यकार की रचनाएं इस काबिल नहीं मानी गईं कि उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता। अक्सर इसके लिए हमारे साहित्य का अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में समुचित अनुवाद नहीं हो पाने को समस्या बताया जाता है। कहा जाता है कि नोबेल के ज्यूरी मेंबर भारतीय भाषाओं के बारे में जरा भी नहीं जानते, लिहाजा हम साहित्य का नोबेल पाने में पिछड़ जाते हैं। पर यह जरूरी नहीं है कि दुनिया की जिन अन्य भाषाओं के साहित्यकारों को नोबेल मिला है, उनके साहित्य का हमेशा अच्छा अनुवाद होता रहा हो। पोलिश, नॉवेर्जियन, फिनिश और आइसलैंडिक भाषाओं का कोई उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय दखल नहीं है। यूगोस्लाविया की सर्बो-क्रोएशियन और इस्राइल की हिब्रू आदि भाषाओं में लिखी रचनाओं को इन देशों से बाहर कितने मुल्कों के लोग जानते होंगे? फिर भी इन भाषाओं के रचनाकार नोबेल पाते रहे हैं। अनुवाद से ज्यादा महत्वपूर्ण बात साहित्य की स्तरीयता और रचनाकार के नजरिए की है। भारतीय भाषाओं के लेखक ग्लोबल अपील वाले विषयों को अपनी रचनाओं में उठाने में असफल रहते हैं। समाज और संसार के बड़े सरोकारों के संदर्भ से उनमें अपेक्षित गहराई नहीं होना भी एक समस्या हो सकती है। सिर्फ अनुवाद को ही समस्या बताने की जगह अगर हमारी साहित्यकार बिरादरी इन दूसरे पहलुओं पर नजर डाले और अपनी रचनाओं में वैसा पैनापन ला सके, तो भारत साहित्य का नोबेल एक बार फिर पाने का गौरव हासिल कर सकता है।

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