गुरुवार, 30 मई 2013

कंप्यूटर समेत टेक्नॉलजी की सारी खबरें-हिंदी में

कैसा है आपका मोबाइल फोन? क्या आप उससे खुश हैं या उसे बदलना चाहते हैं? यदि बदलना चाहते हैं तो हम आपको बताएंगे, कौन-सा फोन अच्छा है, किसमें क्या खूबियां हैं और क्या कमियां हैं। nbt लाए हैं एक नई माइक्रोसाइट -www.tech.nbt.in जहां आप न केवल हर मोबाइल फोन के बारे में सबकुछ जान सकते हैं बल्कि आप अपना रिव्यू भी लिख सकते हैं ताकि बाकी पाठकों को उससे लाभ हो। मोबाइल के अलावा इस साइट पर कंप्यूटर समेत टेक्नॉलजी की सारी खबरें तुरंत मिलेंगी, वह भी हिंदी में।
ब्राउज़र में
 tech.nbt.in या nbt.in/tech टाइप करते ही खबरों के साथ आपको मिलेगी ऐप्स की जानकारी और टेक टिप्स, जिससे टेक्नॉलजी से जुड़ी आपकी उलझन सुलझेगी।
यहां आप लॉन्च हो चुके मोबाइल्स पर एक्सपर्ट के रिव्यू पढ़ सकते हैं, आप खुद भी रिव्यू लिख सकते हैं और फोन को रेटिंग दे सकते हैं। दूसरे पाठकों के रिव्यू पढ़ सकते हैं और उस पर अपनी राय दे सकते हैं। कंपेयर करके यह भी जान सकते हैं कि कौन-सा मोबाइल किस मामले में बेहतर है।


फोटो सेक्शन में आप मोबाइल्स समेत कई लेटेस्ट गैजट्स की तस्वीरें देख सकते हैं और खासियतें जान सकते हैं। विडियो सेक्शन में भी आपको काम की जानकारी मिलेगी।
हमें पता है कि हम अभी यहां उन सभी मोबाइल्स के रिव्यू नहीं दे पा रहे हैं, जिनके बारे में आप जानना चाहते हैं, लेकिन हम जल्दी ही इन्हें देने की कोशिश करेंगे। और मोबाइल ही क्यों, हमारी कोशिश है कि हम आपको लैपटॉप और टैबलेट्स जैसे कई गैजट्स के बारे में रिव्यू और कंपेयर की सुविधा जल्द से जल्द दें। 

गुरुवार, 23 मई 2013

हिंदी के बाद अब इंग्लिश को लेकर तमिलनाडु में राजनीति गरमा गई


हिंदी के बाद अब इंग्लिश को लेकर तमिलनाडु में राजनीति गरमा गई है। राज्य की मुख्यमंत्री जयललिता जहां सभी सरकारी स्कूलों में तमिल के साथ इंग्लिश मीडियम लागू करना चाहती हैं, वहीं डीएमके सुप्रीमो करुणानिधि ने इसका जोरदार विरोध करना शुरू कर दिया है। करुणानिधि का कहना है कि इससे तमिल भाषा पिछड़ जाएगी। तमिल कल्चर भी खत्म हो जाएगा। 
गौरतलब है कि पहले भी काम राज के बाद तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. एम. जी. रामचंद्रन ने हिंदी के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया था। इन्होंेने तमिलनाडु में हिंदी पढ़ाने का विरोध किया था। लोगों से कहा गया था कि इससे तमिल भाषा पिछड़ जाएगी और हिंदी हावी हो जाएगी। इस पर जोरदार तरीके से राजनीति करके उन्होंेने खूब वोट भी बटोरे। 
क्या है मौजूदा सिस्टम : जयललिता ने सत्ता में आने के बाद तमिलनाडु के कुछ बड़े शहरों में कुछ सरकारी स्कूलों में इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई शुरू करवाई। इसका पॉजिटिव नतीजा भी मिला। जया अब इसे पूरे तमिलनाडु खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में लागू करना चाहती हैं। उनका कहना है कि अगर शहर के साथ ग्रामीण लोग तमिल के साथ अंग्रेजी सीखेंगे तो युवाओं को अन्य राज्यों में भी नौकरी मिलेगी। 
दूसरी तरफ करुणानिधि, जो एक राजनेता के अलावा कहानीकार और कवि भी हैं, का मानना है कि सरकारी स्कूलों में इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई ठीक नहीं है। इससे तमिल भाषा के साथ तमिल कल्चर पर नेगेटिव असर पड़ेगा। 
भाषा पर राजनीति छोड़ो : एआईएडीएमके के सीनियर नेता थम्बी दुरई का कहना है कि राज्य के नेताओं को भाषा पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। तमिलनाडु को आगे बढ़ाना है तो राज्य के शहरों के साथ गांवों को भी आगे बढ़ाना होगा। मुख्यमंत्री जयललिता यही चाहती हैं। बच्चों के पास तमिल के साथ इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई करने का विकल्प रहेगा। 

सोमवार, 20 मई 2013

सुप्रीम कोर्ट और हर हाई कोर्ट में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी


सुप्रीम कोर्ट ने हाल के अपने एक फैसले में निर्देश दिया है कि यदि कोई चाहता है कि उससे संबंधित फैसले की प्रति उसे उसी की भाषा में मुहैया कराई जाए, तो इसे सुनिश्चित किया जाए। लेकिन क्या यह निर्देश न्याय मांगने वाले के लिए पर्याप्त होगा? हिंदी को व्यवहार में लाने की सरकारी अपील आपने रेलवे स्टेशनों और अन्य सरकारी कार्यालयों में पढ़ी होगी, लेकिन विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के 65 साल बाद भी सुप्रीम कोर्ट की किसी भी कार्यवाही में हिंदी का प्रयोग पूर्णत: प्रतिबंधित है। और यह प्रतिबंध भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है। संविधान के अनुच्छेद 148 के खंड 1 के उपखंड (क) में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हर हाई कोर्ट में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। हालांकि इसी अनुच्छेद के खंड 2 के तहत किसी राज्य का राज्यपाल यदि चाहे तो राष्ट्रपति की पूर्व सहमति सेहाई कोर्ट में हिंदी या उस राज्य की राजभाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है। पर ऐसी अनुमति उस हाई कोर्ट द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होती। यानी हाई कोर्ट में भी भारतीय भाषाओं के सीमित प्रयोग की ही व्यवस्था है।
संविधान लागू होने के 63 वर्ष बाद भी केवल चार राज्यों राजस्थान, यूपी, मध्य प्रदेश और बिहार के हाई कोर्ट में किसी भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति है। सन 2002 में छत्तीसगढ़ सरकार ने हिंदी और 2010 तथा 2012 में तमिलनाडु और गुजरात की सरकारों ने अपने-अपने हाई कोर्ट में तमिल और गुजराती के प्रयोग का अधिकार देने की मांग केंद्र सरकार से की। पर इन तीनों मामलों में उनकी मांग ठुकरा दी गई। सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी के प्रयोग की अनिवार्यता हटाने और एक या एक से अधिक भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति देने का अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है। इसके लिए संविधान संशोधन ही उचित रास्ता है। संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड 1 में संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और प्रत्येक हाई कोर्ट में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी अथवा कम से कम एक भारतीय भाषा में होंगी।


ध्यान रहे, भारतीय संसद में सांसदों को अंग्रेजी के अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी 22 भारतीय भाषाओं में बोलने की अनुमति है। श्रोताओं को यह विकल्प है कि वे मूल भारतीय भाषा में व्याख्यान सुनें अथवा उसका हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद सुनें, जो उन्हें उसी समय उपलब्ध कराया जाता है। अनुवाद की इस व्यवस्था के तहत उत्तम अवस्था तो यह होगी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में एक या एक से ज्यादा भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अधिकार जनता को उपलब्ध हो, परंतु इन न्यायालयों में एक भी भारतीय भाषा के प्रयोग की स्वीकार्यता न होना हमारे शासक वर्ग द्वारा जनता के खुल्लमखुल्ला शोषण की नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है। किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे वह न्यायालय में बोल सके। परंतु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत सिर्फ चार को छोड़कर शेष सभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में यह अधिकार अंग्रेजी न बोल सकने वाली देश की 97 प्रतिशत जनता से छीन लिया गया है। इनमें से कोई भी इन न्यायालयों में मुकदमा करना चाहे, या उस पर किसी अन्य द्वारा मुकदमा दायर कर दिया जाए तो मजबूरन उसे अंग्रेजी जानने वाला वकील रखना ही पड़ेगा, जबकि अपना मुकदमा बिना वकील के ही लड़ने का हर नागरिक को अधिकार है। वकील रखने के बाद भी वादी या प्रतिवादी यह नहीं समझ पाता है कि उसका वकील मुकदमा सही ढंग से लड़ रहा है या नहीं। निचली अदालतों और जिला अदालतों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति है। हाई कोर्ट में जब कोई मुकदमा जिला अदालत के बाद अपील के रूप में आता है तो मुकदमे से संबंधित निर्णय व अन्य दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है। वैसे ही बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान हाई कोर्ट के बाद जब कोई मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में आता है तो भी अनुवाद में समय और धन की बर्बादी होती है। प्रत्येक हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में एक-एक भारतीय भाषा के प्रयोग की भी अगर अनुमति हो जाए तो हाई कोर्ट तक अनुवाद की समस्या पूरे देश में लगभग समाप्त हो जाएगी। अहिंदी भाषी राज्यों के भारतीय भाषाओं के माध्यम से संबद्ध मुकदमों में से जो मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में आएंगे, केवल उन्हीं में अनुवाद की आवश्यकता होगी।

अनुच्छेद
 343 में कहा गया है कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी। जबकि अनुच्छेद 351 के मुताबिक संघ का यहकर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए और उसका विकास करे। अनुच्छेद 348 में संशोधन करने कीहमारी प्रार्थना एक ऐसा विषय है, जिसमें संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है। यहशासक वर्ग द्वारा आम जनता का शोषण करते रहने की मंशा का खुला प्रमाण है। यह हमारी आजादी कोनिष्प्रभावी बना रहा है।
क्या
 स्वाधीनता का अर्थ केवल 'यूनियन जैक' के स्थान पर 'तिरंगा झंडा' फहरा लेना है? कहने के लिए भारतविश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, परंतु जहां जनता को अपनी भाषा में न्याय पाने का हक नहीं है, वहां प्रजातंत्रकैसा? दुनिया के तमाम उन्नत देश इस बात के प्रमाण हैं कि कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा में काम करके उन्नति नहींकर सकता। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व के वही देश अग्रणी हैं, जो अपनी जनभाषा में काम करते हैं और वेदेश सबसे पीछे हैं, जो विदेशी भाषा में काम करते हैं। विदेशी भाषा में उन्हीं अविकसित देशों में काम होता है,जहां का बेईमान अभिजात वर्ग विदेशी भाषा को शोषण का हथियार बनाता है और सामाजिक-आर्थिक विकास केअवसरों में अपना पूर्ण आरक्षण बनाए रखना चाहता है

सोमवार, 13 मई 2013

ऐसे परीक्षा प्रमाण पत्र का क्या अर्थ व औचित्य है जिसमें छात्र शुद्ध पढना व लिखना तक न जान पाए

आज ही अखबार में पढ़ा कि परीक्षा परिणाम को अच्छा बना कर अपनी साख को बचाने के लिये विभाग के आला अफसरों ने एक नया किन्तु विचित्र सुझाव दिया है कि उत्तर-पुस्तिकाओं के परीक्षण में छोटी--मोटी भूलों(??) जैसे छात्र ने पवन की जगह पबन लिखा हो या छोटी बड़ी मात्राओं की गलती हो तो उसके अंक न काटे जाएं।
आहा, ऐसी उदारता पर कौन न मर जाए!! छात्र सूरदास को सुरदास या रमानाथ को रामनाथ लिखदे तो कोई गलती नही मानी जाएगी। फिर तो गजवदन गजबदन भी हो सकते हैं और कृष्ण, कृष्णा(द्रौपदी)(अंग्रेजी की कृपा से कृष्ण को कृष्णा बोला भी जारहा है)। लुट गया व लूट गया तथा पिट गया व पीट गया में कोई फर्क नही होगा। अब जरा समान लगने वाले वर्ण,अनुस्वर व मात्राओं के हेर-फेर वाले कुछ और शब्दों पर भी ध्यान दें---सुत-सूत, कल-कलि-कली, अंश-अंस, सुरभि-सुरभी, अशित-असित, चिता-चीता,कुच-कूच,सुधि--सुधी, शिरा-सिरा,चिर--चीर, कहा-कहाँ, लिखे-लिखें, गई--गईं, तन-तना-तान-ताना, तरनि-तरनी, मास--मांस, रवि-रबी, जित-जीत, शोक--शौक, पिसा-पीसा, आमरण--आभरण, पिला--पीला, सुना-सूना, गबन-गवन, अजित-अजीत, पुरुष-परुष, शन्तनु-शान्तनु, वसुदेव-वासुदेव आदि। विराम चिह्नों की तो बात पीछे आती है किन्तु वह क्या कम महत्त्वपूर्ण है?--रुको, मत जाओ। तथा रुको मत, जाओ। इसी तरह --वह गया।, वह गया!, तथा वह गया? में विराम चिह्न का ही चमत्कार है। 
ये तो बहुत छोटे-मोटे उदाहरण हैं। अखबारों,टेलीविजन,व सस्ती पत्रिकाओं और जगह--जगह अशिक्षित पेंटरों द्वारा बनाए गए बोर्ड व पोस्टरों ने वैसे ही हिन्दी की हालत खराब कर रखी है। पाठ्य-पुस्तक निगम की पुस्तकों में भी हिन्दी के साथ कम छेडछाड नही की। ऊपर से इस तरह के प्रस्ताव भाषा पर क्या प्रभाव छोडने वाले हैं उसका कथित विद्वानों को अनुमान तक न होगा। प्रश्न यह है कि क्यों परीक्षा परिणाम ही शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य रह गया है? क्या अध्ययन की उपेक्षा करके परीक्षा को ही लक्ष्य बनाना उचित है? बार-बार परीक्षा लेने से और किसी भी तरीके से परिणाम के आँकडे इकट्ठे करने से शिक्षा का स्तर क्या उठ पाएगा? ऐसे परीक्षा प्रमाण पत्र का क्या अर्थ व औचित्य है जिसमें छात्र शुद्ध पढना व लिखना तक न जान पाए। अर्थ की समझ तो बहुत बाद की बात है। भाषा की इस दशा पर विचार करने की अत्यन्त आवश्यकता है। गलत तरीके से गलत परिणाम देकर शिक्षा का ढिंढोरा पीटने से बेहतर है