बुधवार, 25 नवंबर 2009

आशीर्वाद संस्था के राजभाषा पुरस्कार वितरित हुए

अभी पिछले दिनों आशीर्वाद संस्था के राजभाषा पुरस्कार वितरित हुए हैं। इस संस्था द्वारा पिछले २५ वर्षों से राजभाषा के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य करने वाले कार्यालयों को पुरस्कृत किया जाता है ।इस बाद सॉफ्टवेयर टेक्नॉलाजी पार्क ऑफ इंडिया को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ है और महानगर टेलीफोन निगम , मुंबई रेलवे विकास कॉर्पोरेशन को पुरस्कृत किया गया है । राजभाषा के रूप में हिन्दी के विद्वानों को भी इस मौके पर पुरस्कृत किया गया जिनमें प्रमुख हैः अमीन सयानी, माया गोविन्द, डॉ। सुनील कुमार अग्रवाल, रवीन्द्र जैन, डॉ। रामजी तिवारी, डॉ। सुशीला गुप्ता, मुकेश शर्माआदि ।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

अब तो मेरे बच्चे अंग्रेजी में ही पढ़ेंगे।

मेरे परिवार की अंग्रेजी से मुठभेड़ गुलाम भारत में शुरू हुई थी। दादा जी संस्कृत के अध्यापक थे। एक बार बनारस में रहने वाले गांव के ही एक सज्जन से दादा जी की कुछ झड़प हो गई तो उनके अंग्रेजीदां लड़के ने डैम फूल जैसी कोई गाली बक दी। दादा जी इसका मतलब नहीं समझ पाए, लेकिन लड़के के लहजे से स्पष्ट था कि वह उन्हें अंग्रेजी में गाली दे रहा है। तभी उन्होंने तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, अब तो मेरे बच्चे अंग्रेजी में ही पढ़ेंगे। उस समय, जब संस्कृत मिजाज वाले परिवारों में बच्चों को ईसाई स्कूलों में भेजना विधर्मी कृत्य माना जाता था, उन्होंने मेरे ताऊ, पिता और चाचा का नाम आजमगढ़ शहर के वेस्ली मिशन स्कूल में लिखा दिया। यहां से मेरे परिवार में एक नए युग की शुरुआत हो सकती थी, लेकिन वह नहीं हुई। अंग्रेजी हमारे यहां प्रतिक्रिया की भाषा ही बनी रही। इसका श्रीगणेश गाली से हुआ था और दो-चार जवाबी गालियां दे लेने के बाद इसका काम पूरा हो गया। अलबत्ता इस बीच परिवार की एक शाखा निखालिस अंग्रेजी की राह पर बढ़ चली। अपने चाचा की आलमारियां मैंने सिर्फ अंग्रेजी उपन्यासों से भरी पाईं। चचेरे भाई-बहनों को भी आपस में और माता-पिता से हमेशा अंग्रेजी में ही बात करते देखा। लेकिन जैसे ही वे घर से निकल कर जिंदगी की राह पर लौटे, वैसे ही ठेठ बनारसी या गोरखपुरिया हो गए। वे पढ़े-लिखे पेशों में हैं लेकिन उनकी रोटी अंग्रेजी से नहीं निकलती। अंग्रेजी उपन्यास उन्हें अब भी पसंद हैं, लेकिन उनके हाथ में मैंने कभी कोई क्लासिक चीज नहीं देखी। चर्चित उपन्यासकार चेतन भगत ने भारत में अंग्रेजी अपनाने वालों की दो किस्में बताई हैं। एक ई-1, यानी वे, जिनके मां-बाप अंग्रेजी बोलते रहे हैं, जिनका बोलने का लहजा अंग्रेजों जैसा हो गया है और जो सोचते भी अंग्रेजी में हैं। दूसरे ई-2, यानी वे, जिन्होंने निजी कोशिशों से अंग्रेजी सीखी है और जिनका अंग्रेजी बोलना या लिखना हमेशा अनुवाद जैसा अटकता हुआ होता है। भगत का कहना है कि वे अपने पाठक ई-1 के बजाय ई-2 में खोजते हैं, और भारत में अंग्रेजी का भविष्य भी इसी वर्ग पर निर्भर करता है। अंग्रेजी के साथ भारतीयों के बहुस्तरीय रिश्तों को देखते हुए कोई चाहे तो ई-1, ई-2 के सिलसिले को ई-3 और ई-4 तक फैला सकता है। मसलन, वे लोग जिनका अंग्रेजी में पहली पीढ़ी का दखल भी दहलीज लांघने तक ही सीमित है, या वे, जो बस इतना जान पाए हैं कि अंग्रेजी का अखबार किधर से पकड़ने पर सीधा और किधर से उल्टा होता है। सवाल यह है कि ये सारी श्रेणियां क्या अनिवार्यत: ई-1 की ओर बढ़ रही हैं? या फिर ई-2 जैसी कोई बहुत बड़ी स्थायी श्रेणी ही भारत में अंग्रेजी का प्रतिनिधित्व करेगी? जो लोग भी अभी ई-1 में शामिल हैं, या होने का दावा करते हैं, उनके पीछे की पीढि़यां कभी न कभी ई-4, ई-3 या ई-2 जैसे मुकामों से जरूर गुजरी होंगी, लिहाजा गणितीय तर्क से इस नतीजे तक पहुंचा जा सकता है कि एक दिन भारत के ज्यादातर लोग अंग्रेजी मुहावरे में ही सोचने, बोलने और लिखने लगेंगे। लेकिन तजुबेर् से लगता है कि ई-1 की तुलना में ई-2 का अनुपात तेजी से बढ़ने के साथ ही अंग्रेजी कुलीनता का मिथक कमजोर पड़ने लगा है और एक किस्म के लेवल प्लेइंग फील्ड की शुरुआत हो जाती है। किसी धौंस, अनुशासन या मजबूरी के तहत नहीं, सहज जीवनचर्या के तहत अंग्रेजी अपना कर उसी में सोचने-समझने और मजे करने वाली कोई पीढ़ी मेरे परिवार में अब तक नहीं आई है। अमेरिका, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में रह रहे सबसे नई पीढ़ी के छह-सात लड़के, लड़कियां और बहुएं अंग्रेजी में लिखते-पढ़ते जरूर हैं, लेकिन इसके लिए मेरे चाचा और उनके बेटे-बेटियों की तरह कई साल तक सचेत ढंग से हिंदी से कटने की जरूरत उन्हें कभी नहीं पड़ी। वे इंजीनियर, डॉक्टर या सीए होकर ग्लोबल हुए हैं, अंग्रेज होकर नहीं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का दखल उनकी जिंदगी में कहां शुरू होता है और कहां पहुंच कर खत्म हो जाता है।

रविवार, 22 नवंबर 2009

रविवार शाम राजभवन में गवर्नर बी.एल. जोशी ने मौर्या को शपथ दिलाई।

आशीर्वाद संस्था का राजभाषा पुरस्कार सम्पन्न
आशीर्वाद संस्था का राजभाषा पुरस्कार समारोह आज हुआ हालांकि इस समारोह के निमंत्रण में एक मंत्री का नाम था परन्तु वह नहीं आए क्योंकि राजनेता की अपनी मजबूरियां होती है उन्हें हिन्दी समारोह से कुछ ज्यादा नहीं मिल पाता ।
इस समारोह में ६० प्रसिद्ध् हिन्दीप्रेमियों को सम्मानित किया गया जिनमें प्रसिद्ध् आवाज के जादूगर अमीन सयानी, हरीश भीमानी, रामजी तिवारी, मुकेश शर्मा, रवीन्द्र जैन, माया गोविन्द, डॉ। सुनील कुमार अग्रवाल, आदि का समावेश है ।
राजभाषा पुरस्कार तथा चल वैजयन्तियां भी प्रदान की गई । इस मौकेपर एक स्वर से यह बात सामने आई ​कि अब हमें राजभाषा के रूप में हिन्दी को बनाए रखने के लिए एक जागरण अभियान चलाने की आवश्यकता है

सोमवार, 16 नवंबर 2009

हिंदी के विकास से ज्यादा चिंता आज हिंदी को बचाने के बारे में दिखाई देती है।

आजाद भारत के एक सबसे महत्वाकांक्षी मिशन में गहरी दरारें पड़ चुकी हैं। यह मिशन था पूरे देश की एक राष्ट्रभाषा के विकास का। संवैधानिक रूप से न सही भावनात्मक रूप से ही सही, हिंदी में एक राष्ट्रभाषा बनने की भरपूर संभावनाएं देखी गई थीं। महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल, बंगाल, उड़ीसा और पंजाब सभी प्रदेशों के नेताओं में इसे लेकर आम सहमति थी। आज नजारा पूरी तरह बदला हुआ है। हिंदी के विकास से ज्यादा चिंता आज हिंदी को बचाने के बारे में दिखाई देती है। महाराष्ट्र या तमिलनाडु ही नहीं, खुद हिंदी क्षेत्र में हिंदी सहमी हुई है। अंग्रेजी के आतंक से सिमटी-सकुचाई हिंदी से अब उर्दू ही नहीं, भोजपुरी और मैथिली वाले भी दूरी बनाने की कोशिश करते नजर आने लगे हैं। मोटे तौर पर पिछले साठ सालों में हिंदी के विकास की तीन धाराएं देखने को मिलती हैं। एक तो वह जो हिंदी विभागों में पलती रही है। यह साहित्यिक और संस्कृतनिष्ठ हिंदी है। विभाग के बाहर आकर इस हिंदी की सांस फूलने लगती है। इस हिंदी के वक्ता को शब्द नहीं मिलते और श्रोता को अर्थ समझ में नहीं आता। एक और हिंदी है। मीडिया और बाजार के मंच पर सवार यह हिंदी इंडियन आइडल बनकर पुरस्कार और प्यार तो पा रही है पर बाजार के इस मंच ने इसे एक विशेषण भी दिया है - बाजारू हिंदी। भाषा को लेकर गंभीर लोग इसे बोलने में अपनी हेठी समझते हैं। तीसरी है सरकारी हिंदी। यह सरकार के अपने विभागों द्वारा रचे गए शब्दकोषों से निकलकर सरकारी कागजों पर सिमटकर रह गई है। इससे बाहर इसके वक्ताओं और श्रोताओं, दोनों का टोटा है। हिंदी का यह खंडित विकास गवाह है कि हिंदी के विकास के लिए की गई कोशिशों में समग्र दृष्टि का अभाव रहा है। प्राय: हिंदी को वर्चस्व के राजनीतिक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया। इसके लिए जिस सांस्कृतिक श्रम और कोशिश की जरूरत थी, वह काम नहीं किया गया। हिंदी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है- यह तर्क देने वाले भूल गए कि बहुमत के आधार पर सरकार भले ही बन जाए, पर भाषाएं नहीं बनतीं। भाषा का काम समाज में ज्ञान का संरक्षण, संवर्धन और संप्रेषण होता है। इसके लिए राजनीतिक आधार और संख्या बल से ज्यादा जरूरी होता है सांस्कृतिक श्रम और मनोबल। हिंदी समाज में न तो नए ज्ञान-विज्ञान को हिंदी में समेट लेने की आकुलता दिखी और न ही अशिक्षितों को साक्षर बनाकर अपनी सांस्कृतिक स्वीकार्यता बढ़ाने की ललक। आज भी हिंदी प्रदेशों में साक्षरता दर देश में सबसे कम है। इसलिए कहने वाले इसे अनपढ़ों की भाषा कहने से भी बाज नहीं आते। और इतिहास गवाह है कि त्रिभाषा फॉर्म्युला अपनाने में सबसे ज्यादा बेईमानी भी हिंदी वालों ने ही दिखाई। नतीजा हुआ कि हिंदी के राष्ट्रभाषा बन जाने का दावा राजनीतिक मुहावरे में ही व्यक्त होता रहा। इस प्रकार राष्ट्रभाषा का मुद्दा वर्चस्व की लड़ाई की तरह प्रकट हुआ। इसलिए पूरे देश में इसकी प्रतिक्रिया भी राजनीतिक मुहावरे में ही हुई और आज भी हो रही है। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई ने जो हिंदी के लिए जो जगह बनाई थी, हिंदी उसको भर नहीं सकी। अपनी वैधता के लिए हिंदी वालों ने संविधान की दुहाई देने और हिंदी के राष्ट्रभाषा होने के अंधविश्वास को फैलाने के अलावा कुछ नहीं किया। हिंदी के विकास के लिए श्रम के नाम पर जो कुछ किया गया, वह शब्दकोष और पारिभाषिक शब्दकोष के निर्माण से आगे आज तक नहीं जा पाया है। और खुद हिंदी समाज में इन शब्दकोषों की स्वीकार्यता नहीं है। इस प्रकार बनी हिंदी रघुवीरी हिंदी नाम से मजाक-मखौल का विषय बन गई है। हिंदी समाज आज तक इस भुलावे में जी रहा है (खुद भारत सरकार का राजभाषा विभाग उसे उस मुगालते में रखे हुए है) कि राष्ट्रभाषा जैसा कोई संवैधानिक पद है और इस सम्मान पर हिंदी का जन्मजात हक है और यह उसे मिलना ही चाहिए। जन्मजात हक की इस मानसिकता से संचालित हिंदी के मठाधीश आज तक यह नहीं समझ सके हैं कि आज के आधुनिक-लोकतांत्रिक युग में हर सत्ता को, चाहे वह राजनीतिक हो या शैक्षिक हो या फिर भाषाई, सभी को अपनी वैधता हासिल करनी होती है और बार-बार हासिल करनी होती है। इस वैधता का अंतिम स्त्रोत जनता खुद होती है। आज हिंदी की वैधता के दूसरे स्त्रोत भी सूख रहे हैं। वह भी खुद हिंदी वालों के कारण। हिंदी की जो तीन धाराएं पहचानी गई हैं, उनमें तालमेल की कोई कोशिश तक देखने को नहीं मिलती है। बल्कि इन धाराओं से जुड़े लोग एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने का कोई मौका भी नहीं चूकते। साहित्यिक हिंदी पर आरोप है कि वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी है और उससे आलोचकों को हिंदूवाद की दकियानूसी बू आती है। इसी तरह बाजार की अंग्रेजी मिश्रित हिंदी पर आरोप है कि वह बाजारू हो चली है। उधर सरकारी हिंदी को न किसी के आरोपों की परवाह है और न किसी की तारीफ की। महज शब्दकोष गढ़ने वाली इन संस्थाओं को तो यह परवाह भी नहीं है कि वे कम से कम अपने शब्दकोषों का ऑनलाइन उपलब्ध तो करा दें। इससे शायद उनके कुछ नए शब्द प्रचलन में आ जाएं! वैसे यह हिंदी पर बाजारू होने का आरोप काफी रोचक है। यह ठेठ हिंदी वालों का आरोप है। यह एक विडंबना है कि बाजार और कैंप की भाषा के रूप में विकसित हुई उर्दू को उर्दू वालों ने कभी इस तरह नहीं धिक्कारा, लेकिन कुछ हिंदी वाले हिंदी को बाजारू कह कर जरूर तिरस्कृत करते हैं। ऐसा आरोप लगाने वालों को यह जानना चाहिए कि ज्ञान कक्ष में बैठ कर साहित्य रचने वालों की भाषा जल्दी ही किताबों में दम तोड़ देती है, लेकिन बाजारों में फलने-फूलने वाली भाषा सबसे ज्यादा विकसित होती है। इसलिए हिंदी वालों को हिंदी की इस दशा के लिए दूसरों को कोसने की बजाय इस पर गौर करना चाहिए कि एमएनएस कार्यकर्ताओं का गुस्सा हिंदी पर ही क्यों उतरा? अंग्रेजी में शपथ लेने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई। कहीं हमारी सुस्ती की वजह से ही तो देश के लिए एक राष्ट्रभाषा का सपना यूं मुक्कों और घूसों के नीचे दम नहीं तोड़ रहा है। हिंदी अगर पढे़-लिखों की भाषा होती, तब भी क्या उसे बोलने वाले यूं अपमानित होते?

रविवार, 15 नवंबर 2009

सचिन सरीखा बनें नेक नैनों का तारा

राज ठाकरे जैसे कट्टरपंथी नेता जब मराठी मानुष के नाम पर राजनीति करते हैं , तो अक्सर प्रसिद्ध मराठी हस्तियों की राय पूछी जाती है। ज्यादातर हस्तियां इस बात से कन्नी काटती रही हैं। लेकिन सचिन तेंडुलकर ने इस मुद्दे पर बोलने की हिम्मत दिखाई है। हालांकि , सेफ खेलते हुए उन्होंने बीच का रास्ता अपनाया है। सचिन तेंडुलकर ने कहा है कि मुंबई भारत की है। उन्होंने कहा कि मैं मराठी हूं , मुझे मराठी होने पर गर्व है लेकिन मुंबई पूरे भारत की है और मैं भारत के लिए खेलता हूं। तेंडुलकर 15 नवंबर को क्रिकेट में अपने 20 साल पूरे कर रहे हैं। इसके लिए आजकल वह कई कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे हैं। ऐसे ही एक कार्यक्रम में जब उनसे मराठी मानुष के मुद्दे पर पूछा गया तो उन्होंने यह बात कही। सचिन ने कहा कि मैं मराठी हूं और इस पर मुझे गर्व है , लेकिन मैं भारतीय भी हूं। मुंबई में शुक्रवार को मीडिया से मुखातिब सचिन तेंडुलकर ने बहुत की खूबसूरती से पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए। वे हिंदी , मराठी और अंग्रेजी में सवालों के जवाब ठीक उसी तरह दे रहे थे जैसे क्रिकेट के मैदान में शॉट खेलते हैं। करीब दो दशक पहले कराची के नैशनल स्टेडियम में सर्दियों की एक सुबह सचिन ने अपने सपनों सरीखे क्रिकेट करियर की शुरुआत की
बकौल सचिन वह लम्हा उनके क्रिकेट जीवन का सबसे खुशगवार क्षण था। सचिन तेंडुलकर कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण ( डेब्यू ) उनके लिए एक सपने जैसा था , जिसे आज भी वह जी रहे हैं। सचिन यहीं नहीं रुकते। जब बात क्रिकेट और देश की हो रही हो तो सचिन चुप भी कैसे रहें। उन्होंने कहा , '' भारतीय क्रिकेट टीम की कैप पहनने के बाद मैंने जो कुछ भी हासिल किया वह सब देश के लिए था। क्रिकेट को पसंद करने वालों का प्यार मेरे लिए सबसे अहम है। आप को अपनी कामयाबी की खुशी बांटने के लिए लोगों की जरूरत महसूस होती है और मेरे पास एक अरब से ज़्यादा लोग हैं और ये मेरे लिए काफी है। '' कामयाबी का मंत्र क्या है ? सचिन ने इस सवाल का जवाब दिया कि घर में एक अलिखित नियम था : लोगों को भूत ( जो बीत गया ) के बारे में बात करने दो , आप सिर्फ आगे की सोचो। सचिन ने इस मौके पर पूरे धीरज के साथ मीडिया के सवालों का घंटों सामना किया। जितनी देर वह मीडिया से मुखातिब रहे , आमतौर पर , उतनी देर में वह क्रिकेट मैदान पर सैकड़ा ठोक देते हैं। लेकिन मास्टर ब्लास्टर घबराए नहीं और सवालों के सटीक जवाब दिए।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

हिंदी या अन्य किसी भारतीय भाषा के विरोध से बचें

वीएचपी ने कहा है कि मराठी भाषी लोग हिंदी या अन्य किसी भारतीय भाषा का विरोध नहीं करें, ऐसा क

रना राष्ट्रीय अखंडता का अपमान है। वीएचपी के महासचिव प्रवीण तोगड़िया ने यहां एक बयान में कहा, 'वीएचपी मराठी लोगों से दरख्वास्त करती है, जो लोग हिंदुओं के हितों के लिए लड़ते रहे हैं,हिंदी या अन्य किसी भारतीय भाषा के विरोध से बचें। ऐसे काम राष्ट्रीय अखंडता के खिलाफ हैं।'

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

श्रद्धांजलिः जोशी बड़े प्रभाष काल दे गए गवाही

वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी का गुरुवार

की रात निधन हो गया। वह 72 साल के थे। उनके शोक संतप्त परिवार में पत्नी , 2 पुत्र , एक पुत्री और नाती - पोते हैं। दिल का दौरा पड़ने के कारण मध्य रात्रि के आसपास गाजियाबाद की वसुंधरा कॉलोनी स्थित उनके निवास पर उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पार्थिव देह को विमान से आज दोपहर बाद उनके गृह नगर इंदौर ले जाया जाएगा जहां उनकी इच्छा के अनुसार , नर्मदा के किनारे अंतिम संस्कार कल होगा।

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

एशियन हार्ट इंस्टीटयूट इज दा बैस्ट

लोग कहते है ​कि जब से प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सर्जरी हुई है, डॉ. रमाकान्त पाण्डा का नाम बहुत आगे आ गया है । लेकिन यह सत्य है ​कि डॉ. रमाकान्त पाण्डा ने कडी मेहनत और लग्न से यह मुकाम हासिल किया है । अभी कुछ दिन पहले दिनांक 23 अक्टूबर 2009 को ​बिमला गुप्ता का एसेण्डिग अरोटा रूट इन्कलूडिंग वाल चेंज का सफल आपरेशन डॉ. पाण्डा ने किया । ज्ञातव्य है ​कि इससे पहले इस आपरेशन के लिए जसलोक हस्पताल के डॉ. हेमन्त कुमार , बोम्बे हास्पीटल के डॉ. भट्टाचार्य आ​दि तथा अनेकानेक डॉक्टरों से इसके बारे में चर्चा की जा चुकी थी, सभी का मत था ​कि आपरेशन का निर्णण् मेरी जिन्दगी का अहम निर्णय होगा क्यों​कि इसमें यह तो दिमागी हालत खराब हो जाएगी या पेरेलॉसिस होने की आशंका 80 प्रतिशत रहेगी । श्रीमती बिमला गुप्ता नहीं चाहती थी ​कि वे आपरेशन के बाद अपंगों की जिन्दगी जिऐं । इसमें डॉ. रमाकान्त पाण्डा नेविश्वास दिलाया ​कि वे इस आपरेशन को पूरी लगन से करेंगे और 95 प्रतिशत ठीक ही करेंगे । हुआ भी वही, जो डॉ. पाण्डा ने कहा , वही हुआ ।आज श्रीमती बिमला गुप्ता स्वस्थ है और रूम में शिफ्ट हो गई हैं शायद दो या तीन दिन में उनके घर आने की संभावना है ।और इसका श्रेय जाता है डॉ.पाण्डा और उनकी टीम को।