बुधवार, 9 जून 2010

इससे बेहतर संस्मरण लिख पाना शायद आसान नहीं

अस्सी से धूमिल क्या गया, जैसे आंगन से बेटी विदा हो गई। घर सूना और उदास। इधर सुनते हैं कि कोई बुढ़ऊ-बुढ़ऊ से हैं कासीनाथ - इनभर्सीटी के मास्टर जो कहानियां-फहानियां लिखते हैं और अपने दो-चार बकलोल दोस्तों के साथ 'मरवाड़ी सेवा संघ' के चौतरे पर 'राजेश ब्रदर्स' में बैठे रहते हैं! अकसर शाम को! 'ऐ भाई! ऊ तुमको किधर से लेखक-कबी बुझाता है जी? बकरा जइसा दाढ़ी-दाढ़ा बढ़ाने से कोई लेखक-कबी थोड़े नु बनता है? देखा नहीं था दिनकरवा को? अरे, उहे रामधारी सिंघवा? जब चदरा-ओदरा कन्हिया पर तान के खड़ा हो जाता था, छह फुटा ज्वान, तब भह-भह बरता रहता था। अखबार पर लाई-दाना फइलाय के, एक पुडि़या नून और एक पाव मिरचा बटोर के भकोसता रहता है! कबी-लेखक अइसै होता है क्या?' 'हम न अयोध्या जाएंगे, न पोखरन, अब हम इटली जाएंगे वकील साहब! आप 'शिथिलौ च सुबद्धौ च' के गिरने की आस लगाए रहिए!' राधेश्याम दूसरे कोने से चिल्लाए। ... और चुनावी मुद्दा ढू़ंढ़ रहे हो? क्यों? अयोध्या ने किसी तरह प्रधानमंत्री दे दिया और अब ऐसा मुद्दा हो, जो बहुमत की सरकार दे दे। देश का कबाड़ा हो जाए, लेकिन तुम्हें सरकार जरूर मिले। डूब मरो गड़ही में सालो! हिकारत से वीरेंद ने बेंच के पीछे थूका और रामवचन की ओर मुखातिब हुए- पांडेजी, आपको बताने की जरूरत नहीं है कि '6 दिसंबर की अयोध्या की घटना की देन क्या है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का बोध नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातोंरात! रातोंरात चंदा करके सारी मस्जिदों का जीणोर्द्धार शुरू कर दिया। पप्पू की दुकान में बैठनेवाले आप्रवासी अस्सीवाले, इस 'विश्व कल्याण' को धंधा बोलते हैं! चले आ रहे हैं दुनिया के कोने-कोने से अंगरेज-अंगरेजिन। हालैंड से, फ्रांस से, हंगरी से, आस्ट्रिया से, स्विट्जरलैंड से, स्वीडेन से, आस्ट्रेलिया से, कोरिया से, जापान से! सैकड़ों नहीं, हजारों की तादाद में - इस घाट से उस घाट तक! किसी को तबला सीखना है, किसी को सितार, किसी को पखावज सीखना है, किसी को गायन-नृत्य-संगीत, किसी को हिंदी, तो किसी को संस्कृत- कुछ नहीं तो किसी को संगीत-समारोहों में घूम-घूमकर सिर ही हिलाना है। मदद के लिए हम आगे न आइए, तो लूट लें साले पंडे, गाइड, मल्लाह, रिक्शेवाले, होटलवाले सभी! और इस मदद को धंधा बोलते हैं। कन्नी गुरू, आपने मुलुक-मुलुक के अंगरेज-अंगरेजिन का नाम लिया, अमेरिका-इंग्लैंड को छोड़ दिया क्यों? नाम मत लीजिए उनका! बड़े हरामी हैं साले! आते हैं, क्लार्क्स, ताज, डी पेरिस में ठहरते हैं, गाड़ी में दो-चार दिन घूमते हैं और बाबतपुर (हवाईअड्डा) से ही लौट जाते हैं। दिल्ली से ही अपना फिट-फाट कर आते हैं! वे क्या जानें बनारस को?

1 टिप्पणी:

Dev K Jha ने कहा…

दिनकर से बाबतपुर तक....
गजब संस्मरण लिख डाले गुरु जी।

वाकई में इससे अच्छा लिख पाना आसान नहीं।