मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

पहली ब्लॉगिंग एवं सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट

(www.shabdanagari.in) हिन्दी की ऐसी पहली ब्लॉगिंग एवं सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट है जो की पूर्णतः हिन्दी मे है। उल्लेखनीय है कि भारत में आज भी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी है,फिर भी अगर इंटरनेट की बात की जाये तो मात्र कुछ गिनी- चुनी वेबसाइटें ही हैं जिनके माध्यम से कोई अपनी मन की बात साझा कर सकता है। साथ ही अधिकांश लोग अच्छी अंग्रेज़ी न होते हुए भी किसी न किसी रूप मे अंग्रेज़ी मंच का ही उपयोग करने को विवश हैं। 

ऐसी और भी कई समस्याओं को समझते हुए ही हमने एक ऐसा सर्वकालिक एवं सहज हिन्दी- मंच बनाया है, जहाँ पर कोई भी हिन्दी भाषा में अपनी बात विभिन्न आयामों अथवा वेबसाइटों अथवा ब्लॉगों द्वारा लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है । साथ ही अपने विचारों से समाज के सभी वर्गों को जोड़ सकता हैं।

यदि कोई किसी खास प्रश्न या विषय पर चर्चा करना चाहता है अथवा उस पर लोगों की राय जानना चाहता है, तो ये भी हमारे विशिष्ट माध्यम 'प्रश्नोत्तर' द्वारा आसानी के साथ कर सकता है। वास्तव में, इस मंच के द्वारा हमारा एकमात्र उद्देश्य है - एक स्थिर और सशक्त मंच का निर्माण, जहाँ पर लोग तनाव मुक्त होकर अपने विचारों को प्रस्तुत कर सकें। शब्दनगरी का निर्माण आई आई टी कानपुर में स्थित ट्राइडेंट एनालिटिकल सोलूशन्स (TAS) द्वारा किया गया है । 

मुझसे संपर्क करने के लिए अपना फोन नंबर व ईमेल इत्यादि नीचे हस्ताक्षर में लिख रहा हूँ। किसी भी प्रश्न अथवा सुझाव के लिए निःसंकोच संपर्क करें। 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

भारत के लिए हिन्दी

भाषा तो बहता पानी है जो न केवल अपने कगारों को समृद्ध करता है वरन् उससे स्वयं भी समृद्ध होता है. हिन्दी में विदेशी भाषा के शब्दों के समावेश के पक्ष में हूँ बशर्ते वो शब्द हमारी भाषा को समृद्ध करें. अपनी भाषा के शब्दों का लोप करके दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करने के पक्ष में नहीं हूँ. पर जो शब्द हमारी भाषा में नहीं है, या ऐसे उन वर्तमान शब्दों के दूसरी भाषा के विकल्प शब्द जो तथ्य की अर्थपूर्ण पूर्णरूपेण अभिव्यक्ति ज़्यादा अच्छी तरह करने की सामर्थ्य रखते हैं, ऐसे सक्षम शब्दों का समावेश हानिकारक न होगा. साथ ही जो शब्द हमारी भाषा में नहीं हैं उनको दूसरी भाषा से लेकर हिन्दी को समृद्ध करने के पक्ष में भी हूँ. वो शब्द जो हिन्दी में नहीं थे और जिनकी रचना की गई है, उदाहरणार्थ रेल या ट्रेन हेतु "लौहपथगामिनी", ऐसी स्थिति में प्रचलित छोटे सहज-सुगम शब्द रेल या ट्रेन का समावेश अनुचित नहीं. भाषा जीवंत है. समयानुकूल सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ उसमें नए शब्दों का जुड़ना एक अनिवार्यता है. साथ ही आज की अनिवार्यता है हिन्दी का गर्व के साथ प्रयोग. दूसरी भाषा के शब्दों का समावेश करें या नहीं इससे भी ज़्यादा न केवल यह बात महत्वपूर्ण है वरन् यह आज की अनिवार्यता भी है कि हम हिन्दी का गर्व और गौरव के साथ प्रयोग करें. यदि हमें अपनी भाषा हिन्दी को जीवित रखना है तो उसका निरंतर प्रयोग अति आवश्यक है. और मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगी कि हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं हिन्दी रक्षा न केवल भारतवासियों का कर्तव्य व दायित्व है वरन् यह प्रवासी भारतीयों का भी कर्तव्य व दायित्व है.  भाषा संस्कृति की वाहिनी है. भारतीयता, भारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो हिन्दी को जीवित रखना आवश्यक है. हिन्दी का लोप नए आवश्यक शब्दों के समाबेश से नहीं वरन् हिन्दी के प्रति हमारी मानसिकता से होगा. हिन्दी का लोप हिन्दी के प्रति हमारी हीन भावना से होगा. मुझे इस बात की चिंता है कि हिन्दी कैसे अनवरत प्रगति के पथ पर चलती रहे, उसका प्रचार-प्रसार दिन-दूना रात-चौगुना कैसे हो. अनेक भाषाओं का ज्ञान व्यावहारिक रूप से एवं मस्तिष्क के लिए भी अत्यंत हितकारी है पर अपनी भाषा से नाता तोड़कर नहीं. अपनी भाषा सर्वोपरि होनी चाहिए. अत: शब्दों के समावेश के प्रश्न से ज़्यादा अहम है कि हम हिन्दी के प्रति हीन मानसिकता में परिवर्तन लाएँ. हमारी हिन्दी पर गर्व करने की भावना हिन्दी के उत्थान हेतु अधिक लाभकारी सिद्ध होगी. जब हम देश-विदेश में सर ऊँचा कर गर्व से हिन्दी बोलेंगे तो भाषा अपनी पूर्णता और समृद्धता में स्वयं ही इस प्रकार प्रस्फुटित होगी कि उसके लोप होने का प्रश्न ही न उठेगा.
अँग्रेजी के कई शब्द जन मानस में इतने रच-बस गए हैं, प्रचलित हो गए हैं कि कदाचित उनको भाषा से निकालना असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल अवश्य हो जाएगा. यह हम पर निर्भर करता है कि हम किन शब्दों का समावेश कर रहे हैं. प्रश्न यह है कि जिन अँग्रेजी शब्दों के हिन्दी या हिंदुस्तानी शब्द हैं, जो क्लिष्ट भी नहीं हैं, और प्रचलित भी हैं या आसानी से उपयोग में लाए जा सकते हैं, क्या उनके लिए भी अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग स्वीकार होगा? या होना चाहिए? यदि हाँ, तो ऐसा क्यों? ऐसे शब्दों के लिए हम क्यों नहीं अपनी भाषा के शब्दों के प्रयोग के पक्ष में नहीं हैं! हमें अपनी भाषा को समृद्ध करना है अत: जिन शब्दों का हमारे पास समाधान नहीं है उन्हें विदेशी भाषा से लेना उचित प्रतीत होता है पर जो शब्द हमारे पास हैं उनका प्रयोग अपनी भाषा से निकाल उनकी जगह विदेशी भाषा के शब्दों को ढूँसना क्या उचित है? क्या यह अनावश्यक नहीं है? इसका औचित्य क्या है? इसका उत्तर हर भारतीय व प्रवासी भारतीय हिन्दी भाषी को अपनी अंतरात्मा से पूछना होगा. प्रांतीय भाषाओं की भी अपनी महत्ता है पर हिन्दी ही राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने वाली भाषा है. अत: हिन्दी बड़ी बहन की तरह प्रांतीय भाषाओं व अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने आँचल में सहेज, उनके प्रति बड़ी सहोदरा जैसी स्नेह-सिक्त उदारमना हो, स्वयं को व अपनी जननी को गौरवान्वित ही करेगी.
आपकी अभिव्यक्ति 'हिंदी व भारतीय भाषाओं में रोमन लिपि के प्रचलन को बढ़ावा देने की नीति भारतीय भाषाओं के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र जैसी प्रतीत होती है' के सम्बन्ध में कहना चाहूँगी कि एक बार रोमन लिपि चल गई, नई पीढ़ी में प्रबलतम प्रचलित हो गई, जैसी कि आशंका उठाई गई है, तो हर कोई भाषा को तोड़ेगा, मरोड़ेगा, उसका उच्चारण अपनी सुविधानुसार कर उसके रूप के साथ खिलवाड़ कर अर्थ का अनर्थ कर देगा. अत: भाषा की शुद्धता हेतु हिन्दी की देवनागरी लिपि की सुरक्षा अत्यावश्यक है.
रोमन लिपि में हम न भी लिखें तो भी लिपि की शुद्धता के लिए हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण भी आवश्यक है. अत: जहाँ हमें अपनी भाषा के प्रति सजग होना है वहीं समानांतर में हमें भाषा वर्तनी के मानकीकरण की ओर भी अपना ध्यान आकर्षित करना है. विदेशों के संदर्भ में यहाँ विषेशरूप से हिन्दी का नाम ले रही हूँ. प्रवास मुझे अपनी मातृभाषा हिन्दी के अत्यधिक निकट लाया है. इस प्रवास ने ही अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को जिलाए रखने की एक अदम्य इच्छा मुझमें जाग्रत की है. हम प्रवासी भारतीय व भारतवंशियों को अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति निष्ठावान होते हुए भी एकता के सूत्र में जुड़े रहने के लिए एक सर्वोपरि भाषा की आवश्यकता है और वह हिन्दी है. और हिन्दी भाषा की रक्षा के साथ-साथ उसके सर्वत्र एक स्वरूप के लिए हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण करना होगा. यद्यपि कि हिन्दी का मानकीकरण वर्षों पहले हो चुका है, तथापि आज की स्थिति में उसकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता है.
वर्तनी - अर्थात् अक्षर-विन्यास, अक्षर-न्यास, अक्षरी, वर्ण-विन्यास, वर्णन्यास, लेख-नियम, हिज्जे, विवरण आदि. अँग्रेजी में यही 'स्पेलिंग' है. 'वर्तनी' वैसे तो बहुअर्थी है, पर अब हिन्दी में शब्दों की लिपिबद्धता के संदर्भ में वर्ण-विन्यास के लिए रूढ़ हो चुका है. संस्कृत मूल से बना वर्तनी - अर्थात् मार्ग, सड़क, जीना, जीवन, पीसना, चूर्ण बनाना आदि. इस तरह हिन्दी-लेखन की दृष्टि से 'वर्तनी' का भाव निकलेगा - वर्णों के शब्द-रूप तक पहुँचने का मार्ग. यानी, प्रकारांतर से कहा जा सकता है कि किसी शब्द को लिपिबद्ध करने में वर्णों को जिस प्रक्रिया में लिखा जाए वह है वर्तनी. इसे वर्तन शब्द के 'टिकाऊ' तथा 'ठहरने वाला' जैसे अर्थों के आलोक में देखें तो वर्तनी का अर्थ और चमक उठेगा. यानी किसी शब्द के लिए टिकने वाला, ठहरने वाला या एक स्थिर स्वरूप वाला वर्ण-क्रम. यही आशय ज्ञानमंडल, वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'वृहद हिन्दी कोश' में दी गई वर्तनी की निम्नांकित परिभाषा में व्यक्त होता है - 'भाषा-साम्राज्य के अंतर्गत भी शब्दों की सीमा में अक्षरों की जो आचार-संहिता अथवा उनका अनुशासनगत संविधान है, उसे ही हम वर्तनी की संज्ञा दे सकते हैं....वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है. वर्तनी शब्दों का संस्कारित पद विन्यास है....यह अक्षर-संस्थान और वर्ण-क्रम विन्यास है.'
हिन्दी-लेखन में वर्तनी के मानक स्वरूप की आवश्यकता क्यों है? क्या हम हिन्दी के शब्दों की वर्तनी स्थिर करने के प्रयास में इसका सहज विकास बाधित नहीं करेंगे?
भाषा लोक-व्यवहार के सहज प्रवाह के वशीभूत अवश्य होती है, पर साथ ही भाषा में हो रहे व किए जा रहे परिवर्तनों को उच्छृंखल भी नहीं छोड़ा जा सकता. भाषा लोक-व्यवहार के स्तर पर बोलचाल की हो या साधारण या विशिष्ट लेखन की, भाषा के एक मानक स्वरूप की आवश्यकता अवश्य होती है. बिना मानकता या शब्द व अर्थ का एक निश्चित स्वरूप निर्धारित किए बिना भावों का आदान-प्रदान भी सदा यथोचित रूप से सम्भव नहीं हो पाता. भाषागत मानकता भाव-सम्प्रेषण को यथोचित सम्भव बनाती है. एक क्षेत्र का व्यक्ति दूसरे क्षेत्र की अपने समान भाषा होने पर भी उच्चारण सम्बन्धी भिन्नता होने पर असमंजस में पड़ सकता है. हिन्दी अनेक क्षेत्रों में समझी, बोली, लिखी जाती है. विभिन्न क्षेत्रों की हिन्दी में उच्चारण भिन्नता के साथ लेखन में भी भिन्नता आना स्वाभाविक है जिससे अर्थ के अनर्थ होने की सम्भावना होती है. बोलचाल में तो फिर भी आमने-सामने के संवाद की स्थिति में स्पष्टीकरण सम्भव है पर लेखन में वर्तनी की मानकता न होने पर यह अहितकारी है. शब्दों की वर्तनी में एकरूपता का अभाव भ्रम उत्पन्न कर सकता है जिससे अर्थभेद हो सकता है.
हिन्दी को जीवित रखना है तो उसकी वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है; नहीं तो 'अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग' के अनुसार बोलचाल की भाषा का विभक्तीकरण होता जाएगा, वह खंडित होती जाएगी, अपने-अपने खेमे में बँटती जाएगी और कई खाँचों में बँटकर अपना अस्तित्व खो बैठेगी. लोक-व्यवहार की भाषा में कदाचित सम्पूर्ण एकरूपता लाना सम्भव न हो तथापि जितनी अधिकाधिक एकरूपता लेनी सम्भव हो, लेनी चाहिए. वर्तनीगत एकरूपता भाषा के दीर्घ जीवन के लिए आवश्यक है.
वस्तुत: हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिन्दी ही है. मूलत: खड़ी बोली से विकसित होने के बावजूद हिन्दी विभिन्न बोलियों के तत्वों से मिल कर बनी भाषा है. किसी भी देश की राष्ट्रभाषा एक होती है. हाँ! बोले जाने वाले डॉयलेक्ट, बोलियाँ, अनेक हो सकती हैं. हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द्र का रिश्ता है. इतिहास की सुई उलटी दिशा में नहीं जाती. हमें क्षेत्रीय भाषाओं से सामंजस्य बनाते हुए, उनसे पूर्ववत हिन्दी की शब्दावली को समृद्ध करते हुए, उसे इसका अभिन्न अंग बनाते हुए, स्थापित सौहर्द्रता का रिश्ता पुख्ता करते हुए हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण करना होगा. हिन्दी आम जनता के बीच सम्मान पाती हुई अपना राष्ट्रीय क्षितिज तैयार कर चुकी है. स्वतंत्रता की लड़ाई में तो यह सम्पूर्ण देश की अस्मिता के साथ जुड़ चुकी थी और भाषा के तौर पर इसने नेतृत्व किया था.
भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को बोलकर या लिखकर दूसरों तक पहुँचाता है तथा दूसरे के भावों और विचारों को सुनकर या पढ़कर समझता है.
भाषा के दो रूप होते हैं - उच्चरित रूप और लिखित रूप. उच्चरित रूप भाषा का मूल रूप है, जबकि लिखित रूप गौण एवं आश्रित. फिर भी उच्चरित रूप में दिया गया संदेश सम्मुख अथवा समीप-स्थित श्रोताओं तक सीमित रहता है और क्षणिक होता है. अर्थात् बोले जाने के तुरंत बाद नष्ट हो जाता है. इसके विपरीत लिखित रूप में दिया गया संदेश समय की सीमा तोड़कर, व्यापक होकर सुदूर विदेशों में स्थित पाठकों तक पहुँचने की क्षमता रखता है. स्थायी और व्यापक बना रहना ही लिखित रूप की शक्ति है. यह लिखित रूप स्थायी और व्यापक बना रहे इसके लिए आवश्यक है कि लेखन-व्यवस्था, शब्द-विन्यास - लिपिचिह्न, लिपिचिह्नों के संयोजन, शब्द स्तर की वर्तनी, विराम चिह्न आदि लम्बे समय तक एक-से बने रहें.
वर्तनी का शाब्दिक अर्थ है वर्तन अर्थात् अनुवर्तन करना, यानी पीछे-पीछे चलना. लेखन व्यवस्था में वर्तनी शब्द स्तर पर शब्द की ध्वनियों का अनुवर्तन करती है. दूसरे शब्दों में, शब्द विशेष के लेखन में शब्द की एक-एक करके आनेवाली ध्वनियों के लिए लिपिचिह्नों के क्या रूप हों और उनका कैसा संयोजन हो, यह वर्तनी (वर्ण संयोजन = अक्षरी) का कार्य है.
इस शताब्दी के आरम्भ में जब हिन्दी का प्रयोग प्रचलित होने लगा तो साहित्यकारों, लेखकों, कवियों, सम्पादकों, जन सामान्य ने स्थानीय परम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार शब्दों की वर्तनियों को अपनाया और वर्तनी में थोड़ी-बहुत अनेकरूपता आ गई. अत: वर्तनी में एकरूपता लाने के लिए इसका मानकीकरण आवश्यक है. मानकीकरण भाषा को परिमार्जित, परिनिष्ठित करने में सहायक सिद्ध होगा. साथ ही मानकीकरण से भाषा के स्वीकार्य व अस्वीकार्य रूपों में भेद करना सरल हो जाएगा. शुद्ध भाषा लिखने-पढ़ने के लिए शुद्ध उच्चारण बहुत  महत्वपूर्ण है. हिन्दी के संदर्भ में तो यह कथन और भी सत्य है, क्योंकि हिन्दी ध्वन्यात्मक भाषा है. हिन्दी जिस प्रकार बोली जाती है, प्राय: उसी प्रकार लिखी भी जाती है. इसीलिए हिन्दी लिखने-पढ़ने वालों के लिए इसका शुद्ध उच्चारण आवश्यक है. जो शुद्ध उच्चारण करेगा, वह शुद्ध लिखेगा भी. हिन्दी में वर्तनी की जो अनेक अशुद्धियाँ दिखाई देती हैं उसका एक प्रधान कारण अशुद्ध उच्चारण है. असावधानी के कारण प्राय: लोग अशुद्ध उच्चारण करते हैं, फलत: लिखने में भी अशुद्धियाँ होती हैं. वर्तनी के मानकीकरण से लिखने के साथ-साथ उच्चारण में भी शुद्धता आएगी.
वास्तव में हिन्दी के लेखन-विधान के प्रकृतिनुसार इसमें वर्तनी की समस्या उत्पन्न नहीं होनी चाहिए क्योंकि हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है. देवनागरी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है, जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है. यह ध्वन्यात्मक लिपि है, जबकि दूसरी भाषाओं में यह बात नहीं है. अत: वहाँ रटना ही विकल्प बन जाता है. जबकि हम हिन्दी में जो बोलते हैं, वही लिखते हैं इसलिए हमें रटने की आवश्यकता नहीं होती. तथापि हम अपने हिन्दी के उच्चारण के प्रति असावधानी से गलत लिखने लगते हैं. यद्यपि विभिन्न अँग्रेजी भाषी क्षेत्रों में भी उच्चारण की भिन्नता है परन्तु लेखन के स्तर पर उनका एक मानक रूप है जिसका वे सब पालन करते हैं.
भाषा में वर्तनी की अनेकरूपता से बचने के लिए, लिखने-पढ़ने की एकरूप सुविधा के लिए, व्याकरण और शब्दों की वर्तनी, दोनों स्तर पर हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है. विषेशरूप से आज जब हिन्दी की वैश्विक पहचान बन रही है - आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयॉर्क में जब यू.एन.ओ. के मुख्य सभागार में हिन्दी का परचम लहराया था और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव वान की मून ने हिन्दी में उद्घाटन सत्र का आरम्भ किया था, क्रिया ने हिन्दी की चेतना, उसकी विशिष्टता को चार-चाँद लगा उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया और अब १०वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन भाषागत पक्ष को उभार रहा है, ऐसी स्थिति में हिन्दी की यथोचित संवर्धक मानक वर्तनी के अभाव में अन्य भाषा-भाषियों के लिए हिन्दी सीखना सहज न होगा वरन् कठिनतम हो जाएगा. जो भी लोग हिन्दी सीखना चाहते हैं या जो सीख रहे हैं, उनके सामने कई तरह की उलझनें पैदा हो रही हैं.
इस दिशा में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि जब हिन्दी देवनागरी लिपि के रूप में संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि हमें परम्परा से प्राप्त है तो फिर हम क्यों न इसका सदुपयोग करें. हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण करके इसकी रक्षा करते हुए इसे उपयोगी बनाएँ. कम्प्यूटर के इस युग में सार्वभौम लिपि के रूप में खरा उतर सकने की सामर्थ्य देवनागरी लिपि में ही है. सबसे अधिक शुद्धता के साथ सभी भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने की क्षमता इस लिपि में है. इस अक्षरात्मक लिपि की ध्वन्यात्मक विशेषता इसमें शब्दों को उनके उच्चारणों के ही अनुरूप लिपिबद्ध किए जा सकने की सामर्थ्य पैदा करती है.
बिन्दु - अनुस्वार और चंद्र-बिन्दु - अनुनासिकता चिह्न को लेकर भी हिन्दी की वर्तनी में समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं. पहले शिरोरेखा पर बिन्दु और चंद्रबिंदु शब्द संरचना के अनुसार लगाये जाते थे परंतु अब चंद्रबिंदु का प्रचलन हटा केवल बिन्दु लगाने की प्रथा का प्रचलन हो गया है.
संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो, तो एकरूपता और मुद्रण, लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का प्रयोग प्रचलित है; जैसे गंगा, चंचल, ठंडा, संध्या आदि में पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग का वर्ण आगे आता है, अत: पंचमाक्षर पर अनुस्वार का प्रयोग मान्य है. और यदि पंचमाक्षर दोबारा आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा; जैसे अन्न, अन्य, सम्मेलन, सम्मति, उन्मुख आदि के लिए.
वैसे देखा जाए तो आधा म के लिए भी आधा न की तरह शिरोरेखा के ऊपर बिन्दु लगाना नई पीढ़ी के लिए शब्द संरचना में भ्रामक हो सकता है. पाठक, लेखक को शब्दों की संरचना में याद रखना पड़ेगा, रटना पड़ेगा कि शिरोरेखा पर बिन्दु आधा म का प्रतिनिधित्व करता है या आधा न का. यदि केवल न की ध्वनि के लिए अनुस्वार लगाया जाए तो रटने की समस्या नहीं रहेगी. दो ध्वनियों को पहचानने की समस्या नहीं होगी.
आजकल जो चंद्रबिंदु की जगह केवल बिन्दु के प्रयोग का प्रचलन हो गया है वहाँ ऐसी अवस्था में भ्रम की गुंजाइश रहती है. यह बात अलग है कि आप वाक्य संरचना देखकर उसका यथोचित सही अर्थ अपने-आप लगा लेते हैं. अत: यहाँ भी हिन्दी की नई पीढ़ी को रटना ही पड़ेगा क्योंकि चंद्रबिंदु की जगह बिन्दु लगाने से प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है; जैसे हंस और हँस, अंगना और अँगना आदि में. अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए. यथास्थान चंद्रबिंदु न लगाने की प्रथा भाषा के लिए हितकारी नहीं है.
हिन्दी की वर्तनी के मानकीकरण से ही हम शब्दों को उनके मूल रूप में रख सकेंगे. यदि ऐसा न हुआ तो अंतत: प्रचलित उच्चारण वाले शब्द ही मान्य हो जाएँगे और शब्द अपना मूल-स्वरूप खो देंगे. उदाहरणार्थ अधिकांशत: देखा जा रहा है कि लोग ब्रह्मा को ब्रम्हा, चिह्न को चिन्ह, उऋण को उरिन आदि बोल और लिख रहे हैं.
यदि मूल स्वरूप बदलना भी है तो भी वर्तनी का मानकीकरण दिशा निर्देश देकर भाषा को एकरूप, एक स्वरूप प्रदान करेगा. श्रुत अवस्था में याद रखने की समस्या बनी रहती है. मानकीकरण हिन्दी वर्तनी को स्थायी व प्रामाणिक बनाएगा. यद्यपि कि काल परिवर्तनशील है. और काल के साथ ही साथ भाषा को समयानुसार, परिस्थितिनुसार सामंजस्य बैठाना ही होगा. क्योंकि भाषा तो वही जीवित रह सकती है जो सहज, सुगम हो, नदी के समान सतत प्रवाहशील हो. यदि प्रवाह अवरुद्ध हो गया तो सड़ांध से उसका दम घुट जाएगा. तथापि समयानुसार हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण भी आवश्यक है क्योंकि यह प्रवाह को अवरुद्ध करने के लिए नहीं वरन् उसे सहज, सुगम बनाए रखने के लिए काम करेगा.
भाषा भी माँ के समान है. भाषा हमें माँ की तरह पालती है. पर हमें माँ के लिए अपने प्यार का एहसास, जज़्बे की गहराई का सही अंदाज़, अधिकतर माँ के चले जाने के बाद ही होता है. कहीं यही दशा हिन्दी की न हो!
हमारी भाषा हमें अपने आप से हमारी पहचान कराती है. भारत में अँग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है. इसलिए हिन्दी को कमजोर करके भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को, देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है. हिन्दी और उसके साहित्य को अगर बचाने की चिंता है तो हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है.
भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम होती है. यह अभिव्यक्ति का माध्यम है. यह इतिहास की संरक्षिका है. संस्कृति की वाहिनी है. भविष्य के सतत अविष्कारों के लिए जरूरी है कि किसी विषय को सही ढंग से अपने दिमाग में उतारना और उसकी गहराई तक पहुँचना. उसके लिए अपनी सोच अपनी भाषा ही एक श्रेष्ठ उपाय है. वही राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा अविष्कारों की श्रेणी में खड़ा होता है और अपनी उन्नति करता है जिसकी अपनी भाषा और अपनी सोच होती है. अत: इस दृष्टि से भी वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक हो जाता है जिससे भ्रमितावस्था न उत्पन्न हो.
परम्परा संस्कृति की मानक होती है. लम्बी अवधि के दौरान समाज के इकट्ठे हुए अनुभव, तज़ुर्बे मिल कर समाज की परम्परा का स्वरूप निर्धारित करते हैं. परम्परा बीते समय के अनुभवों की इकट्ठी तस्वीर होती है. इस दौरान मिले संकटों और सुयोगों के माध्यम से, लाभ-हानि से गुजरने से प्राप्त शिक्षाओं से, गलत-सही की सीखों से संस्कृति का निर्माण होता है. किसी भी देश की संस्कृति का वर्तमान स्वरूप उस समाज द्वारा अपनायी गई दीर्घकालीन पद्धतियों का समुच्चय रूप, उनका परिणाम होता है. किसी भी देश की संस्कृति उसके समाज में गहराई तक धँसे हुए, काल-कालांतर से चले आ रहे व्याप्त गुणों का समग्र रूप है जो उस समाज के साहित्य, कला, विचार-शैली, कार्य-शैली में परिलक्षित होती है. और इसका सीधा सम्बन्ध भाषा से है. इस दृष्टि से भी भाषा की अस्पष्टता हितकारी नहीं है. वर्तनी का मानकीकरण स्पष्टता प्रदान करता है.
भाषा संस्कृति की वाहिनी है. भाषा बिना राष्ट्र गूँगा है. किसी भी भाषा का साहित्य उस देश व समाज का सच्चा दर्पण होता है. उसमें उसकी संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, इतिहास, रहन-सहन, वेशभूषा के साथ ही उसकी प्रगति का सही दर्शन होता है. उसकी भाषा ही अपने साहित्य के माध्यम से विश्व के सामने अपनी सही अभिव्यक्ति करती है.
विश्व के जितने भी उन्नतिशील देश हैं, उनकी विकास की आधार शिला भाषा की एकता ही रही है. कोई भी राष्ट्र चाहे वह कितना भी छोटा या विशाल क्यों न हो वगैर अपनी राष्ट्रभाषा के वह गूंगों के समान है. आपसी संवाद के लिए उसे एक भाषा का सहारा लेना ही होता है. भाषा और एकता का सम्बंध चोली दामन के समान है. भाषा अभिव्यक्ति का एक अच्छा माध्यम है. जिसके माध्यम से देश का मानव समाज एक दूसरों के विचारों को सुनकर आत्मसात करके एकता के बंधन में बँधता है. यह एकता का भाव आपसी सहकार के भावों को जगाता है. फिर यह सहकारिता का भाव ही हमारे बीच में प्रगति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा जाग्रत करता है.
एक स्थान में रहने, सुख, दुख-दर्दों के सहभागी बनने के कारण यह एकता के भाव आपसी प्रगाढ़ता को जन्म देते हैं. इनकी आपसी आत्मीयता की अभिवृद्धि में अभिव्यक्ति अर्थात भाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है. अत: जनता के लिए अपनी अभिव्यक्ति हेतु एक राष्ट्र भाषा का होना नितांत आवश्यक है. राष्ट्रीय एकता के लिए एक ऐसी सशक्त भाषा हो जो विशाल जन समूह को एकता-सूत्र में पिरोने की सामर्थ्य रखती हो. जो उनकी आपसी विभिन्नताओं के बावजूद एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य करती हो. उनमें राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाकर उनकी एकता का शंखनाद करती हो, उन्हें सदा आगे बढ़ने को उत्साहित करती हो. भारत के लिए यह सामर्थ्य, यह क्षमता हिन्दी में है. हिन्दी को भारत के कोने-कोने में सशक्त बनाने के लिए उसकी वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है जिससे भारत के हर कोने में उसका एक ही स्वरूप हो.
हिन्दी की वर्तनी के मानकीकरण से भारत की नई पीढ़ी सबसे ज्यादा लाभान्वित होगी. स्वतंत्रता के बाद अँग्रेजी समर्थक जो पीढ़ी हिन्दी के विकास में कपोलकल्पित कारणों से बाधक बनती आ रही है, नयी पीढ़ी उनसे मुक्त हो जाएगी. हिन्दी की वर्तनी के मानकीकरण से दिशा निर्देश उनकी समस्याओं का अंत कर उनके लिए लाभकारी सिद्ध होगा.
हिन्दी का दीप अनेक देशों में जल रहा है. जहाँ-जहाँ हिन्दी भाषी हैं वहाँ-वहाँ यह प्रज्वलित है. विश्व की तीन-चार प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का नाम है.
जब हम वैश्विक स्तर पर बात करते हैं तो हिन्दी का उद्गम स्थान भारत ही है. जहाँ-जहाँ हिन्दी भाषी हैं वे हिन्दी के नवोन्मेष के लिए भारत की ओर ही देखते हैं. खटकने वाली बात यह है कि हिंदुस्तान में आज भी प्रभावशाली वर्ग हिन्दी की तुलना में अँग्रेजी को अधिक महत्ता देता है, जबकि आवश्यकता है कि हिन्दी भाषी होने में हमें अधिकाधिक गर्व का अनुभव होना चाहिए.
आज की दुनिया में विज्ञान के चरण निरंतर बढ़ते जा रहे हैं. रोज़ नई उद्भावनाएँ हो रही हैं. नए आविष्कार हमारे समक्ष आ रहे हैं. अत: हमारी वैश्विक चेतना को प्रगति के बढ़ते चरणों के साथ जुड़ा होना चाहिए.
आज सूचना तंत्र की क्रांति ने सारे विश्व को समेटकर एक ग्राम में, विश्व ग्राम में, ग्लोबल विलेज कान्सैप्ट में परिवर्तित कर दिया है. मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट, अंतर्जाल, संग्रणक आदि उदाहरण हैं अत: अब वैश्विक चेतना की बात की जानी अत्यंत समीचीन और सामयिक है.
हिन्दी भाषा ने संपर्क भाषा के रूप में, कामकाज की भाषा के रूप में, बाज़ार की भाषा के रूप में अपनी भूमिका का सफल निर्वाह किया है. हिन्दी भाषा साहित्य के रूप में अद्वितीय रही है. विश्व की किसी भी भाषा से कम नहीं. सूर, तुलसीदास, मीरा, प्रेमचंद सभी का आभामण्डल प्रदीप्त रहा. भक्तिकाल, छायावाद काल अद्वितीय रहा. हिन्दी साहित्य की महिमा और गरिमा, हिन्दी साहित्य का स्त्रोत चारों तरफ फैला रहा. इसकी महिमा कैनेडा, इंग्लैंड, अमेरिका व अन्य देशों में अपनी छटा बिखेर रही है, हिन्दी की शोभा व्याप्त हो रही है.
जैसा कि मैं कह चुकी हूँ कि आज का समय वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के साथ नवोन्मेष और नवउद्भावना का है - कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, आज हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन गए हैं. हमें आज हिन्दी को विज्ञान और तकनीक की भाषा बनाने के लिए कृत-संकल्प होना पड़ेगा. मैं जानती हूँ कि हम लोगों ने वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों के हिन्दी समानार्थी शब्द काफी हद तक बना लिए हैं किन्तु यह काम इस अर्थ में अधूरा है कि आज भी वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी के शब्द उस सीमा तक प्रचलित नहीं हैं जितना अपेक्षित था. और अभी इस दिशा में अनेक नए शब्दों का निर्माण होना है और उन्हें प्रचलन में लाना है.
हमें यदि आज के समय से और विश्व के सतत परिवर्तनशील परिदृश्यों से जुड़ना है तो हमें इन नयी चुनौतियों को न केवल स्वीकार करना पड़ेगा अपितु कृत-संकल्प होकर इस दिशा में प्रभावी कार्य करना होगा. जिस परिमाण में अँग्रेजी का प्रभुत्व है उसी परिमाण में प्रतिबद्ध हो हमें हिन्दी के लिए काम करना होगा.
आज़ादी की लड़ाई में हिन्दी भाषा ने जिस तरह भारत के पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण को जोड़ा, तथा गैर हिन्दी भाषी जिस तरह हिन्दी से जुड़े, वह अद्वितीय था. भारत की स्वतंत्रता संग्राम को दिशा और गति देने में साहित्यकारों ने अपूर्व योगदान दिया, महत्वपूर्ण कार्य किया.

जिस तरह की एकता और एकजुटता पराधीन भारत के लिए हिन्दी वालों ने दिखाई थी, आज पुन: नई चुनौतियों के सापेक्ष हिन्दी भाषी विश्व को एकजुट होकर उसे प्रदर्शित करना है तथा नए प्रतिमान स्थापित करने हैं.

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

हिंदी सरल और बोल चाल की भाषा होनी चाहिए

हिंदी सरल और बोल चाल की भाषा होनी चाहिए, इस में दो राय नहीं, किंतु सरलीकरण के नाम पर प्रचलित शब्दों को निकाल कर अनावश्यक अंग्रेजी के शब्द ठूंसना हिंदी को दुरूह बनाना होगा .आज हिंदी के दॆनिक समाचार पत्र यही कर रहे हॆं आठ शब्दों के एक वाक्य में छह शब्द आप को अग्रेजी के मिल जाएगे  जिन में से कुछ तो शायद आम पाठकों की समझ से भी परे हों . भारत सरकार का आदेश हॆ   कि नए विभाग खोलते समय उनके हिदी नाम  पर पहले विचार किया जाए फिर अग्रेजी पर  कितु हो उलटा रहा हॆ .आज हिंदी में भी अंग्रेजी के ही नाम रखे जा रहे हॆं .

  हम हिंदी को दुनिया की सब से बडी भाषा बताते नहीं थकते .किंतु विडंबना यह हॆ कि हिंदी बोली तो खूब जारही हॆ.हिंदी लिखी नहीं जारही .सब युवक रोमन लिपि का ही प्रयोग करते मिलेंगे . ऐसा क्यों हॆ  .कारण यह हॆ कि हम ने हिंदी की लिपि देव नागरी पर उचित ध्यान नही दिया . कंप्यूटर पर नागरी लिपि को लोकप्रिय बनाया जाए प्राथमिक कक्षाओ से ही कप्यटर पर नागरी लिपि का अ्भ्यास कराया जाए  भाषा  और विज्ञान के लेखकों को सम्मानित किया जाए.

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

शुभकामनायें

साथियों ,

आप सभी को तथा सभी के परिवार को  मेरी और मेरी पत्नी की ओर से दीपावली की  हार्दिक
शुभकामनायें

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

नयनतारा सहगल

यदि साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी उसके काल सापेक्ष होने और घटनाक्रम के ईमानदार उद्घाटन में निहित होती है तो मानना पड़ेगा कि भेड़चाल में पुरस्कार लौटा रहे साहित्यकार अपने रचनात्मक धर्म और समाज के प्रति अपनी जवाबदेही से भटक गए हैं। उनके अतिरंजित विचार-वमन से यह भी मानना पड़ेगा कि उनकी रचनाधर्मिता किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित है।
कर्नाटक में वामपंथी विचारक प्रो. एमएम कलबुर्गी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या और उसके बाद उत्तर प्रदेश के बिसाहड़ा की दुखद घटना के बाद कुछ लेखकों की कथित तौर पर आत्मा जाग गई है। इसकी शुरुआत करने वालों में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल शामिल थीं। बिसाहड़ा में गोमांस खाने के संदेह में इखलाक की हत्या आक्रोशित भीड़ ने की। यह निंदनीय है और कानून को उसका काम स्वतंत्र रूप से करने देना चाहिए। किंतु प्रश्न नयनतारा और उनके पीछे चल पड़ने वालों के विरोध, उनके निशाने और उनके समय को लेकर है।
कर्नाटक में कलबुर्गी की हत्या हुई। वहां सरकार किसकी है? उत्तर प्रदेश में सरकार किसकी है? फिर निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा क्यों? क्यों कुछ लेखकों को केवल इसी समय देश में कथित सांप्रदायिक उन्माद का ज्वार नजर आ रहा है? क्या मुजफ्फरनगर के दंगों, बरेली, मेरठ, सहारनपुर के बलवों से इन लेखकों की आत्मा द्रवित नहीं हुई? 1989 के भागलपुर के दंगों में 1161 लोगों की असामयिक मौत हुई, तब बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। 1990 में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। तब हैदराबाद में हुए दंगों में 365 लोग मारे गए। 1992 में गुजरात के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री थे। तब सूरत दंगों में 152 निरपराध मारे गए। कांग्रेस की सरकार के काल में दर्जनों बार अहमदाबाद सांप्रदायिक आग में झुलसा। किंतु इन लेखकों को केवल 2002 के गुजरात दंगे ही भयावह नजर आते हैं। क्यों? गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एस6 बोगी को घेरकर दंगाइयों ने 59 लोगों (24 पुरुष, 15 महिलाएं और 20 बच्चों) को जिंदा जला डाला। उस हृदयविदारक घटना की निंदा करना तो दूर; ऐसे साहित्यकारों, पत्रकारों और सेक्युलरिस्टों ने मरने वाले कारसेवकों को ही कसूरवार ठहरा दिया।
पुरस्कार लौटा रहे लेखकों की आत्मा जिस तथाकथित दक्षिणपंथी विचारधारा के उभार से आर्तनाद कर रही है, वह वामपंथी विचारधारा से जन्मी माओ-नक्सलवादी हिंसा पर खामोश रहती है। मार्क्सवादी विचारधारा में विरोधी स्वर का हिंसा से दमन प्रमुख अस्त्र है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का तीन दशकों से अधिक का राजपाट रहा। 1997 में विधानसभा में पूछे गए एक प्रश्न का जवाब देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बताया था कि 1977 (जब मार्क्सवादी सत्ता में आए) से 1996 के बीच 28000 राजनीतिक हत्याएं हुईं। इसी तरह केरल में विरोधी विचारधारा के संगठन और कार्यकर्ता मार्क्सवादी हिंसा के आए दिन शिकार बनते रहे हैं।
मार्क्सवादियों के संरक्षण में जिहादी तत्व भी निरंतर पोषित हुए। ईसाई प्रोफेसर टीजे जोसफ का हाथ काटने वाले जिहादियों की असहिष्णुता पर किसी की आत्मा नहीं रोती। ओडिशा में दलित-वंचित आदिवासियों के लिए दशकों से काम कर रहे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की नक्सलियों ने बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। मार्च 2014 के आंकड़ों के अनुसार पिछले बीस सालों में 12000 से अधिक बेकसूर नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं। इस तरह की हिंसा में उन्हें असहिष्णुता नहीं दिखती। क्यों?
नयनतारा सहगल को 1986 में रिच लाइक अस नामक उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। इससे दो साल पूर्व 1984 के सिख नरसंहार हुए थे। कांग्रेस प्रायोजित उक्त नरसंहार में देशभर में हजारों सिख मारे गए। नयनतारा के भतीजे और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। नयनतारा की आत्मा तब सोई थी। क्यों?
नयनतारा कश्मीरी पंडित हैं। कश्मीर घाटी से वहां की संस्कृति के मूल वाहक कश्मीरी पंडितों को तलवार के दम पर मार भगाया गया, उनकी संपत्तियों पर जिहादियों ने कब्जा कर लिया, हिंदुओं के आराधना स्थल तबाह कर दिए गए, किंतु नयनतारा की आत्मा सुकून से बैठी रही। रिच लाइक अस में नयनतारा ने शिक्षित महिलाओं की समस्याओं और दुश्वारियों को उठाया है। समस्याओं से जूझते और समझौते करते हुए शिक्षित महिला कैसे शक्तिमान बनती है, उपन्यास का मोटा थीम यही है। अपने साहित्य से समाज को सकारात्मक संदेश देने वाली नयनतारा फिर शाहबानो के मामले में क्यों चुप रह जाती हैं? एक मुस्लिम महिला को तलाक के बाद पति से भरणपोषण पाने का अधिकार इस देश की सर्वोच्च न्यायपालिका दिलाती है तो कांग्रेस संविधान में संशोधन कर आदेश को ही पलट देती है। इस अधिनायकवादी और महिला विरोधी मानसिकता की निंदा क्यों नहीं की गई?
नयनतारा की एक अन्य पुस्तक है, जवाहरलाल नेहरू : सिविलाइजिंग अ सैवेज वर्ल्ड। इसमें पं. नेहरू की नीतियों से लेखिका अभिभूत दिखती हैं। पं. नेहरू ने जंगली दुनिया को सभ्य बनाया या नहीं और उनकी गुटनिरपेक्ष नीति का दुनिया पर क्या प्रभाव पड़ा, यह इस लेख का विषय नहीं है। किंतु इतना स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों से इस देश को कंगाल करने वाली कांग्रेस नयनतारा को ज्यादा प्रिय है और उनके पीछे कूद पड़ने वाले लेखक भी उसी मानसिकता से ग्रस्त लगते हैं।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

पत्रकार भी एक बड़े लेखक पर हावी

देश में कट्टरता,साम्प्रदायिकता, जातीयता लगातार बढ़ रही है, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन ऐसा कोई पैमाना नहीं है जो बता सके कि ऐसा अभी हो रहा है, और ऐसा पहले कभी नहीं था । देखा जाये तो कट्टरता, साम्प्रदायिकता, जातिवादी सोच पहले से ही समाज में विद्ममान है और ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि इतना निराश हुआ जाये कि अपने पुरस्कार ही वापिस कर दियें जाये । समाज को सही दिशा प्रदान करना भी लेखको, सामाजिक चिन्तकों का काम है और अगर उन्हें लगता है कि समाज गलत दिशा में जा रहा है तो इसमें उनकी भी असफलता है कि वो समाज को सही दिशा प्रदान करने में कामयाब नहीं हो पाये । समाज की बदलती परिस्थितियों के लिये किसी संगठन और दल को जिम्मेदार ठहराना कहाँ से उचित है । अगर समाज सही दिशा में नहीं जा रहा है तो इसमें लेखकों की भी जिम्मेदारी है और पुरस्कार लौटाना एक प्रकार से अपनी जिम्मेदारियों से भागना ही है । अगर वो समझते है कि ये उनका काम नहीं है तो उनका पुरस्कार लौटाना ही उचित है ।
दादरी काण्ड के बाद कई नामी लेखकों द्वारा अपने पुरस्कारों की वापिसी की होड़ लग गई है, ऐसा करने का कारण ज्यादातर लेखकों द्वारा यह बताया जा रहा है कि देश में साम्प्रदायिकता बढ़ रही है और वो सरकार को इसके लिये दोषी मानते हैं, इसलिये अपना विरोध जताने के लिये वो पुरस्कारों की वापिसी कर रहे हैं । लेखकों के कथन में सत्यता है, क्योकिं हमारा समाज वास्तव में ही साम्प्रदायिकता की ओर बढ़ रहा है, और इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता । लेखकों को इसके लिये समर्थन भी मिल रहा है । अब सवाल उठता है कि लेखकों का ऐसा करना क्या उचित है, विरोध जताना तो ठीक है, लेकिन अचानक ऐसा क्या हो गया है कि वो इस तरह से एक लोकतान्त्रिक देश द्वारा दिये गये पुरस्कार वापिस कर रहे हैं ।
 बड़े लेखकों की बहुमूल्य कृतियाँ समाज के काम नहीं आ रही है, वो या तो पुस्तकालयों की अलमारियों में बन्द है या अमीरों के ड्राईंगरूम की शोभा बढ़ा रही है । प्रकाशक पुस्तकों का मूल्य इतना ज्यादा रखते हैं कि आम आदमी उनकों खरीदने की सोचता ही नहीं है, कितने अचरज की बात है कि जिस समाज को लक्ष्य करके पुस्तकें लिखी जाती है, जिस समाज की समस्याओं का जिक्र होता है, वो ही समाज इन पुस्तकों से दूर रहता है । मेरा मानना है कि आज जो लेखक अपने पुरस्कार वापिस कर रहे है, वो कोई आम लेखक नहीं है, उन्हें मिलें पुरस्कार उनके काम को देखते हुए दिये गये है, लेकिन उनका काम केवल साहित्य की शोभा बढ़ाने के काम आ रहा है, समाज को उसका कोई फायदा नहीं हो रहा है । एक छोटा सा पत्रकार भी एक बड़े लेखक पर हावी है, क्योंकि उसकी बात आम लोगों तक पहुँचती है और हमारी समस्या भी यही है कि लोगों तक सही बात नहीं पहुँच रही है । टीवी पर चल रहे सीरीयल वास्तविक दुनिया से दूर है, उन पर दिखायी जा रही कहानियाँ एक बनावटी दुनिया की लगती है, लेकिन पैसे कमाने की होड़ में चैनल वाले लोगों को ऐसी दुनिया में ही व्यस्त रखना चाहते हैं और वैसे भी आज टीआरपी का जमाना है और तड़क-भड़क वाले सीरियल ही लोगों को रास आ रहे हैं । कौन से लेखक की कृति टीवी के माध्यम से जनता तक पहुँच रही है ।
कितने अचरज की बात है कि  अंग्रेजी भाषा के लेखकों की बातें तो फिर भी लोगों तक पहुँच रही है जबकि अंग्रेजी के पाठक कम है, लेकिन हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के लेखक अपनी बात लोगों तक नहीं पहुँचा पा रहे है, यूँ भी कह सकते है कि वो इसके लिये प्रयास भी नहीं कर रहे है । साहित्य समाज का आईना होता है और समाज उस आईने को देखकर अपने बिगड़े चेहरे को सुधार सकता है, लेकिन वो आईना समाज तक पहुँचता ही नहीं है तो आप ऐसी उम्मीद भी कैसे कर सकते है । आज जनता स्वार्थी नेताओं की बातों में आकर अपने फैसले कर रही है और समाज को यही लोग दिशा दे रहे है, इसमें कोई शक नहीं है कि एक गलत दिशा ही दे रहे है, इसलिये लेखक समाज को आगे आना  चाहिये और उन्हें समाज के हित में अपनी कलम की ताकत का इस्तेमाल करना चाहिये, पुरस्कारों को लौटाकर वो कुछ हासिल नहीं कर सकते, सरकार को विरोध जताकर कुछ समय के लिये परेशान जरूर कर सकते है, लेकिन कुछ ही समय में ये मुद्दा खत्म हो जाने वाला है । अपनी कलम का प्रयोग करके वो लगातार अपना विरोध जता सकते है और समाज को सही दिशा देते हुए सरकार को भी गलत रास्ते पर जाने से रोक सकते है, अगर वो ऐसा करने में कामयाब नहीं हो पाते है तो ये समाज के लिये ही घातक होगा । हर इन्सान में आज एक गुस्सा दिखायी दे रहा है, धैर्य तो जैसे खत्म ही हो गया है, छोट-छोटी बातों पर लोग किसी की जान ले लेते हैं, आज धर्म और जाति के नाम पर इन्सान ही जानवर बनने को तैयार हो जाता है ।

लेखकों को विरोध जायज है लेकिन विरोध करने का तरीका नाटकीय लगता है, समाज में बढ़ रही हिंसा, कट्टरता और असहनशीलता के लिये केवल नेता ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि वो लोग भी जिम्मेदार है जो समाज को एक सही दिशा दे सकते थे, इसमें लेखक बहुत ऊपर आते है, लेकिन आज लेखक होने का मतलब केवल पत्रकारो से रह गया है, इसलिये लेखक अपनी जिम्मेदारी को समझे और अपनी बात कहने के लिये समाज के बीच जायें । लेखको की चिन्ता, इस समाज की चिन्ता है, लेकिन जो विरोध करने का तरीका उन्होंने अपनाया है, उससे समाज को कोई अच्छा संदेश नही जा रहा है, उल्टे लेखक बिरादरी पर नये इल्जाम लग रहे हैं, यह एक लम्बी लड़ायी है और दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अभी तक इस लड़ायी की शुरूआत ही नहीं हुई है तो इसमे जीत की उम्मीद कैसे की जा सकती है । जिस लड़ायी में गर्दन भी कटाकर जीतने की आशा कम हो, उस लड़ायी को ऊंगली कटाकर नहीं जीता जा सकता । केवल सरकार से लड़कर इस लड़ायी को नहीं जीता जा सकता, इसके लिये समाज से भी लड़ना पड़ेगा, क्योंकि सरकार ज्यादातर काम समाज की खुशी के लिये करती है, अब ये अलग बात है कि उसमें केवल समाज की खुशी तो हो सकती है, समाज का भला नहीं । समाज का भला और बुरा किसमें है, ये समझाने का कुछ काम  तो लेखको के हिस्से में भी आता है । राजनीतिक दल वोटो की राजनीति करते है और वो वोट पाने के लिये काम करते है, इसलिये उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिये । साहित्य समाज के लिये एक आईना होता है, लेकिन आपका आईना तो उस समाज तक पहुँचता ही नहीं है, दूसरी बात ये है कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, लेकिन ये आईना कई कारणों से झूठ भी बोलता है, कोई भी स्त्री आईने को देखकर ही अपना श्रंगार करती है, लेकिन अगर आईना उसे जरूरत से ज्यादा कुरूप दिखाये तो वो स्त्री आईने को तोड़कर फैंक देगी और हो सकता है कि श्रंगार करना भी बन्द कर दे, इसलिये समाज को उसके अच्छे और बुरे दोनों ही रूप दिखाने पड़ते है, लेकिन लेखकों का ऐसा विरोध समाज की कुरूपता को कुछ बढ़ाकर पेश कर रहा है, इसलिये ये समाज इस आईने से और भी दूरी बना सकता है । लेखको को समाज के लिये संघर्ष करना चाहिये न कि संघर्ष के नाम पर नाटक और राजनीति से अपने आपको दूर रखना होगा तभी माना जायेगा कि  वो समाज के लिये लड़ रहे है और जनता को उनका साथ मिल सकता है ।