गुरुवार, 30 सितंबर 2010

हम भारत के करोड़ों युवक - युवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं।

शब्दों की आवाजाही पिछले कुछ वर्षों में इंडोनेशिया आदि से 'सूनामी' की लहर ऐसी उठी जिसकी शक्ति सारे संसार ने अनुभव की। 'रेडियो' कहीं भी पैदा हुआ, वह सार्वभौमिक बन गया। अंग्रेजी का 'बिगुल' पूरे दक्षिण एशिया में बजता है। केवल शक्तिशाली शब्द ही दूसरी भाषाओं में नहीं जाते। अनेक साधारण-से दिखने वाले शब्द भी महाद्वीपों को पार कर जाते हैं। जब लोग विदेश से लौटते हैं, तो वे अपने साथ वहां दैनिक व्यवहार में उपयोग होने वाले कुछ शब्दों को भी अपने साथ बांध लाते हैं। अंग्रेज जब इंग्लैंड वापस गए, तो भारत के 'धोबी' और 'आया' को भी साथ ले गए। इसी प्रकार पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीका से लौटे भारतीयों के साथ 'किस्सू' (चाकू), 'मचुंगा' (संतरा) और 'फगिया' (झाड़ू) भी चली आई। धारा और पोखर दूसरी भाषा के शब्द देशी हों या विदेशी, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतर पड़ता है उनकी मात्रा से। दाल में नमक की तरह दूसरी भाषा के शब्द उसे स्वादिष्ट बनाते हैं, लेकिन उनकी बहुतायत उसे गले से नीचे नहीं उतरने देती। जब हिंदी के कुछ हितैषी अपनी भाषा में अंग्रेजी की बढ़ती घुसपैठ का विरोध करते हैं, तो अंग्रेजीवादी अल्पसंख्यक खीज उठते हैं। वे अपने विरोधियों पर आरोप लगाते हैं कि वे लोग हिंदी को सभी अच्छी धाराओं से काटकर उसे पोखर बनाना चाहते हैं। परंतु कोई भी स्वाभिमानी जल प्रबंधक एक स्वच्छ नदी में किसी भी छोटी-मोटी जलधारा को प्रवेश देने की अनुमति देने से पूर्व यह जान लेना चाहेगा कि वह धारा कूड़े-कचरे से मुक्त हो। अंग्रेजी के कुछ समर्थक हिंदी पर अनम्यता और दूसरी भाषाओं के साथ मिलकर काम न करने का आरोप लगाते हैं। लेकिन चौराहा रेलगाड़ी , बमबारी , डॉक्टरी , पुलिसकर्मी और रेडियोधर्मी विकिरण जैसे अनेक शब्द हमने बनाए हैं। उनका प्रयोग करने में किसी भी हिंदीभाषी को आपत्ति नहीं। सौभाग्यवश मैं उस पीढ़ी का व्यक्ति हूं जिसने गणित , भूगोल , भौतिकी और रसायन शास्त्र आदि विषय हिंदी में पढ़े। लघुत्तम , महत्तम , वर्ग , वर्गमूल , चक्रवृद्धि ब्याज और अनुपात जैसे शब्दों से मैंने अंकगणित सीखा। उच्च गणित में समीकरण , ज्या , कोज्या , बल , शक्ति और बलों के त्रिभुजों का बोलबाला रहा। भूगोल पढ़ते समय उष्णकटिबंध , जलवायु , भूमध्यरेखा , ध्रुव और पठार जैसे शब्द सहज भाव से मेरे शब्द - भंडार का अंग बन गए। विज्ञान में द्रव्यमान , भार , गुरुत्वाकर्षण , व्युत्क्रमानुपात , चुंबकीय क्षेत्र , मिश्रण , यौगिक और रासायनिक क्रिया आदि शब्दों ने मुझे कभी भयभीत नहीं किया। और न ही किसी को चिकित्सक या लेखाकार घोषित करते हुए मेरे मन में किसी प्रकार का हीनभाव आया। स्वयं को सिविल अभियंता ( अंग्रेजी के साथ मिलाकर बनाया गया शब्द ) कहने में मैं आज तक गर्व अनुभव करता हूं। जयशंकर प्रसाद , सुमित्रानंदन पंत , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला , मैथिलीशरण गुप्त , देवराज दिनेश , रामधारी सिंह दिनकर और गोपालदास नीरज आदि को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अंग्रेजी की शरण में जाने की आवश्यकता कभी नहीं हुई। महादेवी वर्मा बिना अंग्रेजी की सहायता के तारक मंडलों की यात्राएं करती रहीं , हरिवंशराय बच्चन ने अंग्रेजी की सरिता में गोते खूब लगाए , अपने पाठकों को उसके अनेक रत्न भी निकालकर सौंपे , परंतु उस भाषा को अपने मूल लेखन में फटकने तक नहीं दिया। आचार्य चतुरसेन शास्त्री , वृंदावनलाल वर्मा और प्रेमचंद अपनी भाषा से करोड़ों पाठकों के पास पहुंचे। बिना किसी मीठी लपेट के मैं कहना चाहूंगा कि यह सब अंग्रेजी के पक्षधरों के गुप्त षडयंत्र का परिणाम है। जिस भाषा को अस्थायी रूप से सह - राष्ट्रभाषा की मान्यता दी गई थी , उसके प्रभावशाली अनुयायी एक ओर जय हिंदी का नारा लगाते रहे और दूसरी ओर हिंदी की जड़ें काटने में लगे रहे। उन्होंने पहले उच्च शिक्षा और फिर माध्यमिक शिक्षा , हिंदी के बदले अंग्रेजी में दिए जाने में भरपूर शक्ति लगा दी। यदि हिंदी किसी प्रकार उनके चंगुल से बच भी गई , तो तमाम अंग्रेजी तकनीकी शब्द उसमें ठूंस दिए गए , यह बहाना बनाकर कि हिंदी के शब्द संस्कृतनिष्ट और जटिल हैं। भौतिकी कठिन है , फिजिक्स सरल है। विकल्प आंखों के आगे अंधेरा ला देता है , ऑल्टरनेटिव तो भारत का जन्मजात शिशु भी समझता है। धीरे - धीरे चलनेवाली इस मीठी छुरी से कटी भारत की भोली जनता पर इन पंद्रह - बीस वर्षों में एक ऐसा मुखर अल्पमत छा गया है , जो सड़क को रोड , बाएं - दाएं को लैफ्ट - राइट , परिवार को फैमिली , चाचा - मामा को अंकल , रंग को कलर , कमीज को शर्ट , तश्तरी को प्लेट , डाकघर को पोस्ट ऑफिस और संगीत को म्यूजिक आदि शब्दों से ही पहचानता है। उनके सामने हिंदी के साधारण से साधारण शब्द बोलिए , तो वे टिप्पणी करते हैं कि आप बहुत शुद्ध और क्लिष्ट हिंदी बोलते हैं। मेरा हस्बैंड बिजनेसमैन वे कहते हैं - एक्सक्यूज मी , अभी आप पेशंट को नहीं देख सकते। या , मैं कनॉट प्लेस में ही शॉपिंग करता हूं। या , मेरा हस्बेंड बिजनेसमैन है। यह भाषाई दिवालियापन नहीं तो और क्या है। विदेशी ग्राहकों से अंग्रेजी में बात करने की क्षमता वाले लोगों की सेना तैयार करने की धुन में हम भारत के करोड़ों युवक - युवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं। उनकी क्षमताओं का पूर्णत : विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। हिंदी केवल चलचित्र बनाने वालों की भाषा नहीं है। न ही यह केवल उनके लिए है जो अपने कुछ मित्रों के साथ बैठकर वाह - वाह करने से संतुष्ट हो जाते हों। यह उन सभी के लिए होनी चाहिए जिनमें अपना जीवन विज्ञान , न्याय , शिक्षा , शोध और विकास के क्षेत्र में लगाने की क्षमता हो।

शनिवार, 18 सितंबर 2010

हिंदी पखवाड़ा

हिंदी पखवाड़ा 13 सितम्बर 2010 से 24सितम्बर 2010 तक मनाया जा रहा है । आप सभी से अनुरोध है कि आप इस पखवाड़े को सफल बनाने के लिए अपना सारा काम हिंदी में करें ।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस मनाते हुए भाषा के प्रश्न पर आधुनिक भारत के स्वप्नदष्टा जवाहरलाल नेहरू के विचारों को याद करना समीचीन होगा। आजादी के प्रारंभिक वर्षों में राजभाषा के मुद्दे पर उत्तर और दक्षिण के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा दिखाई देने लगी थी। नेहरू ने इंग्लिश को देश की राजभाषा घोषित करने की दक्षिण के कुछ नेताओं की मांग दृढ़तापूर्वक खारिज कर दी, लेकिन इस बात का भी पूरा ध्यान रखा कि इस संवेदनशील मुद्दे पर दक्षिण की जनता की भावनाओं को कोई ठेस न पहुंचे। उन्होंने प्रमुख राजनीतिज्ञों, मंत्रियों, नेताओं और सरकारी अधिकारियों को लिखे अपने पत्रों में भाषा के सवाल पर अपना रुख साफ करते हुए जन-जन की भाषा के रूप में हिंदी की अहमियत समझाई और बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षित करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं के विकास पर जोर दिया था। पंडित नेहरू ने अपने बेबाक अंदाज में सरकारी भाषा की सरलता और अनुवाद की जटिलता पर भी चर्चा की और समय के साथ चलने के लिए विदेशी भाषाएं सीखने की जरूरत बताई। इस संबंध में नेहरू जी के पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
6 जनवरी 1958 को मदास में तमिल इनसाइक्लोपीडिया के पांचवें खंड के विमोचन के मौके पर अपने भाषण में नेहरू ने भाषा के सवाल का खासतौर से उल्लेख किया था। उन्होंने कहा, ''आज भारत में भाषा को लेकर बड़ी बहस चल रही है, लेकिन इस मुद्दे के सबसे खास हिस्से का समाधान हो चुका है। भले ही बारीकियां कुछ भी हों, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, भारत में यह बात स्थापित और स्वीकार हो चुकी है कि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा ही होनी चाहिए। यह तमिल, बांग्ला या गुजराती जैसी महान भाषाओं या अन्य भाषाओं पर ही नहीं, बल्कि पूवोर्त्तर भारत की आदिवासी बोलियों पर भी लागू होना चाहिए, जिनकी कोई लिखित भाषा नहीं है। व्यावहारिक तौर पर यह कठिन हो सकता है, लेकिन थ्योरी यह है कि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षित करने की व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए, भले ही बच्चा कहीं का भी हो। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के निर्णय के साथ ही भारत में एक बड़ा परिवर्तन आ गया है। इंग्लिश अभी तक शिक्षा का माध्यम थी, जबकि इस निर्णय से वह तत्काल दूसरी श्रेणी में आ जाती है।'' नेहरू जी ने 26 मार्च 1958 को सी. राजगोपालाचारी को भेजे अपने पत्र में लिखा कि ''भारत में वास्तविक और बुनियादी परिवर्तन इस बात से नहीं आ रहा है कि हिंदी धीरे-धीरे इंग्लिश का स्थान ले रही है, बल्कि इससे आ रहा है कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हो रहा है और उनका इस्तेमाल बढ़ रहा है। ये क्षेत्रीय भाषाएं शिक्षा का माध्यम बनेंगी और सरकारी कार्यों में इनका इस्तेमाल होगा। ये ही बुनियादी तौर पर इंग्लिश का स्थान लेंगी। यह अच्छा परिवर्तन है या नहीं, इसपर बहस हो सकती है लेकिन यह परिवर्तन अनिवार्य रूप से होगा और इससे भारत में इंग्लिश के दर्जे पर जबर्दस्त असर पडे़गा। भारत में इंग्लिश इसलिए फली-फूली क्योंकि वह शिक्षा के माध्यम के साथ-साथ हमारे सरकारी और सार्वजनिक कामकाज की भी भाषा थी। इंग्लिश और हिंदी के बीच कथित टकराव इस बडे़ सवाल का एक छोटा सा पहलू है। इन दोनों में से कोई भी भाषा गैर-हिंदीभाषी राज्यों में शिक्षा का माध्यम नहीं होंगी। शिक्षा और कामकाज का आधार क्षेत्रीय भाषा होगी और ये दोनों द्वितीय भाषाएं होंगी। मेरे मन में यह जरा भी संदेह नहीं है कि हमारी जनता के विकास के लिए क्षेत्रीय भाषा आवश्यक है और गैर-हिंदीभाषी राज्यों में अंग्रेजी या हिंदी के माध्यम से लोगों का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता।'' इसी पत्र में उन्होंने लिखा- ''हमें आधुनिक समय में हो रहे परिवर्तनों को समझने के लिए विदेशी भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित करना चाहिए। यह स्पष्ट है कि सभी बड़ी विदेशी भाषाओं में इंग्लिश हमें ज्यादा माफिक पड़ती है। अत: हमें इंग्लिश को एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में जारी रखना होगा। लेकिन मेरा मानना है कि भारत में व्यापक रूप से दूसरी विदेशी भाषाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है। कांग्रेस के गौहाटी अधिवेशन में भाषा के प्रश्न पर पारित प्रस्ताव में इस पहलू पर विशेष जोर दिया गया था और कहा गया था कि हमारी वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली अंतरराष्ट्रीय टमिर्नोलॉजी से मेल खानी चाहिए। साथ ही हमारी भाषा में अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रचलित वैज्ञानिक शब्दों को ज्यादा से ज्यादा शामिल किया जाना चाहिए। स्वाभाविक है कि ये शब्द ज्यादातर इंग्लिश के होंगे। इनके अलावा ये शब्द भारतीय भाषाओं में साझा होंगे या होने चाहिए ताकि मानव ज्ञान के इस विस्तृत क्षेत्र में वे एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक आ सकें।'' राजगोपालाचारी को भेजे उपरोक्त पत्र में नेहरू ने हिंदी के बारे में लिखा कि ''यह अभी विकासशील अवस्था में है। लेकिन यह भी तथ्य है कि अपने विविध रूपों में इसकी पहुंच भारत के बहुत बड़े हिस्से तक है। उर्दू के तौर पर इसका दायरा पाकिस्तान तक फैला हुआ है। पाकिस्तान से आगे मध्य एशिया में काफिलों के गुजरने वाले रास्तों में भी उर्दू का ज्ञान काफी उपयोगी होता है। अत: हिंदी और उर्दू के जरिए, जिनमें लिपियां शामिल हैं, हम भारत से भी आगे दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं। राजगोपालाचारी के ही नाम एक अन्य पत्र में नेहरू ने लिखा कि मुझे यह तर्कसंगत नहीं लगता कि इंग्लिश को भारत की राष्ट्रीय या केंद्रीय भाषा घोषित किया जाए। इससे मुझे ठेस लगती है। यदि मेरे मामले में ऐसा है तो लाखों लोगों को कैसा लगता होगा। अनेक देशों की यात्राएं करने के बाद मैं जानता हूं कि इंग्लिश को औपचारिक रूप से अपनाने पर कुछ देश आश्चर्य करेंगे और कुछ हमें नफरत से देखेंगे। सच यह है कि वे हमसे अपनी ही भाषा या अंग्रेजी को छोड़कर किसी अन्य भारतीय भाषा में बात करना ज्यादा पसंद करेंगे। ''

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

मुबरकबाद और शुभकामनाएं

ईद और गणेषोत्सव पर हमारी तरफ से मुबरकबाद और शुभकामनाएं

मुबरकबाद और शुभकामनाएं

ईद और गणेषोत्सव पर हमारी तरफ से मुबरकबाद और शुभकामनाएं