बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं।


दरअसल, हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं। देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं। उन्हें जितना ज्यादा हिंदी में पढ़ा जा रहा है, उतना किसी दूसरी भाषा में नहीं। यह अलग बात है कि आज हिंदी और उर्दू बेहद विपन्न भाषा हो गई हैं। सारे अवसर अंग्रेजी लूट कर ले जा रही है। विपन्न इस अर्थ में कि हिंदी और उर्दू आज रोजगार की भाषा नहीं बन पाई। अंग्रेजी के लेखकों को एक लेख से जो रकम मिल जाती है, एक किताब से जो रॉयल्टी मिल जाती है, वह उन्हें अगले शोध के लिए और तफरीह का अवसर देती है। पर हिंदी के साथ ऐसा नहीं है। हिंदी के अधिकतर लेखकों की ज्यादातर ऊर्जा इसी बात में खप जाती है कि ज्यादा से ज्यादा लिखे और छपे ताकि घर चलाने का इंतजाम हो पाए। यह एक बड़ी वजह है कि अंग्रेजी का औसत लेखक अपने शोध के कारण बड़ा दिखने लग जाता है, जबकि हिंदी-उर्दू के बड़े लेखकों का नाम लेने वाला कोई नहीं हिंदी और उर्दू के बीच दूरी देखने वालों को यह भी देखने की जरूरत है कि आज की हिंदी में शब्दों को लेकर जितने प्रयोग हो रहे हैं, वह किस तरफ इशारा करते हैं। 'अफसोसनाक' के बजाय अधितकर लोग 'अफसोसजनक' लिख रहे हैं। 'तकलीफदेह' शब्द 'तकलीफदेय' में तब्दील होता दिख रहा है। 'प्रभात खबर' शब्द अब जुबां पर है। एतराज जताने वाले पूछ सकते हैं 'प्रभात समाचार' क्यों नहीं? पर सच मानिए कि यह तकलीफ की बात नहीं है। भाषा तभी आगे बढ़ती है जब वह अपनी जरूरत और वक्त के मुताबिक खुद को नए सांचे में ढालती है, वरना वह मृतप्राय हो जाएगी। हिंदी की प्रकृति ऐसी है कि वह बेहद संजीदगी से किसी भी भाषा के शब्द को सहज रूप से अपने में घोल लेती है और उसे जरूरत पड़ने पर हिंदी व्याकरण के हिसाब से नया रूप देती है, ढालती है

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं


भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर पैट्रिक फ्रेंच की किताब 'लिबर्टी और डेथ' का हिंदी अनुवाद हुआ है आजादी या मौत के नाम से। हिंदी अनुवाद के बारे में आए ट्वीट पर किसी ने चुटकी ली कि आजादी और मौत तो उर्दू के शब्द हैं हिंदी में 'स्वतंत्रता अथवा मृत्यु' हो सकता था, यह क्यों नहीं। इस ट्वीट के बाद कई सारे रोचक ट्वीट दूसरों ने किए। किसी ने 'आजादी' और 'मौत' को हिंदी का शब्द माना तो किसी ने इसे खारिज किया। कुल मिलाकर हिंदी और उर्दू को लेकर वहां दो खेमे में लोग बंटे दिखे।

इसके बाद इस संदर्भ में कुछ पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटों पर रोचक लेख और टिप्पणियां मिलीं। ट्वीट से शुरू हुई चुहल एक लंबी बहस में तब्दील होती दिखी। इसी बीच एक लेखक ने लिखा कि 1880-1884 के बीच लार्ड रिपन के समय जब फारसी लिपि वाली उर्दू को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया तो हिंदी वालों ने विरोध शुरू किया। बाद में अंग्रेजों ने दोनों भाषाओं को बराबरी का दर्जा दिया। पर इससे झगड़ा ख़त्म नहीं हुआ, बढ़ गया। लेखक के मुताबिक, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय हिंदी की नुमाइंदगी करने लगा जबकि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी उर्दू की। तब गांधी जी ने हिंदुस्तानी (ऐसी भाषा जिसमें हिंदी और उर्दू के प्रचलित शब्द हों) की वकालत की, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। 1950 में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया और उर्दू पीछे छूट गई। लेकिन लेखक के मुताबिक, अचानक उर्दू नए सिरे से प्रासंगिक हो रही है, लोग सीख रहे हैं। लेख का यह हिस्सा अंग्रेजी की 'बांटो और राज करो' की पुरानी नीति पर खड़ा दिखता है।

दरअसल, हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं। देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं। उन्हें जितना ज्यादा हिंदी में पढ़ा जा रहा है, उतना किसी दूसरी भाषा में नहीं। यह अलग बात है कि आज हिंदी और उर्दू बेहद विपन्न भाषा हो गई हैं। सारे अवसर अंग्रेजी लूट कर ले जा रही है। विपन्न इस अर्थ में कि हिंदी और उर्दू आज रोजगार की भाषा नहीं बन पाई। अंग्रेजी के लेखकों को एक लेख से जो रकम मिल जाती है, एक किताब से जो रॉयल्टी मिल जाती है, वह उन्हें अगले शोध के लिए और तफरीह का अवसर देती है। पर हिंदी के साथ ऐसा नहीं है। हिंदी के अधिकतर लेखकों की ज्यादातर ऊर्जा इसी बात में खप जाती है कि ज्यादा से ज्यादा लिखे और छपे ताकि घर चलाने का इंतजाम हो पाए। यह एक बड़ी वजह है कि अंग्रेजी का औसत लेखक अपने शोध के कारण बड़ा दिखने लग जाता है, जबकि हिंदी-उर्दू के बड़े लेखकों का नाम लेने वाला कोई नहीं।

हिंदी और उर्दू के बीच दूरी देखने वालों को यह भी देखने की जरूरत है कि आज की हिंदी में शब्दों को लेकर जितने प्रयोग हो रहे हैं, वह किस तरफ इशारा करते हैं। 'अफसोसनाक' के बजाय अधितकर लोग 'अफसोसजनक' लिख रहे हैं। 'तकलीफदेह' शब्द 'तकलीफदेय' में तब्दील होता दिख रहा है। 'प्रभात खबर' शब्द अब जुबां पर है। एतराज जताने वाले पूछ सकते हैं 'प्रभात समाचार' क्यों नहीं? पर सच मानिए कि यह तकलीफ की बात नहीं है। भाषा तभी आगे बढ़ती है जब वह अपनी जरूरत और वक्त के मुताबिक खुद को नए सांचे में ढालती है, वरना वह मृतप्राय हो जाएगी। हिंदी की प्रकृति ऐसी है कि वह बेहद संजीदगी से किसी भी भाषा के शब्द को सहज रूप से अपने में घोल लेती है और उसे जरूरत पड़ने पर हिंदी व्याकरण के हिसाब से नया रूप देती है, ढालती है

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

भारत की भिकारी देश वाली छबि भाषा को लेकर ही है.


भाषा को लेकर भारत मे आज तक ग़ुलामी की नीतीया ही चल रही है. भारत की भिकारी देश वाली छबि इसलिये ही है. हिन्दी को राज काज ,पढ़ने ,कानून, की भाषा नही बनाना देश की उन्न्नति मे सबसे बड़ा रोडा है. आपनी भाषा मे ही मौलिक चिंतन हो सकता है. विदेशी भाषा मे किसी देश ने उन्नति नही की है. चाइना,जापान,रूस,फ़्राँस,जर्मनी,.......सभी आपनी भाषा से आगेबढे है. विदेशी भाषा वाला देश नकलची और भिकारी ही रहता हे.भारत मे जब तक अंग्रेज़ी रहेगी देश ग़ुलामी ढोतारहेग.वार्त्मान आजादी ग़ुलामी पर शक्कर् चडी गोली की तरह ही जिसकी चासनी अब खतम हो गयी है और ग़ुलामी की कड़वाहट आने लगी है. इसका मूल कारण आपनी भाषा का रास्ट्र भासा नही होना है

हमारी भाषा खो गई तो सब कुछ खो जा जाएगा


सार्क देशों का भाषा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में काफी सुनहरा भविष्य है। कंप्यूटिंग टेक्नॉलजी में लोगों की रुचि काफी बढ़ी है। पीसी और इंटरनेट का तेजी से विस्तार आफिस तक ही सीमित नहीं। यह घर-घर तक पहुंच चुका है। लोगों में आगे बढ़ने और नई तकनीक अपनाने की ललक दिखाई देती है। मुझे विश्वास है कि निरंतर विकास करती हमारी टेक्नॉलजी सार्क देशों को अपनी भाषा के प्रसार के लिए नई दिशा प्रदान करती रहेगी। इस स्थिति को और विकसित करने एवं बढ़ाने की आवश्यकता है। सार्क देशों में कंप्यूटर और उसके प्रयोग की असीम संभावनाएं हैं। बहुत सारी पुस्तकें, पत्रिकाएं ऑडियो प्रशिक्षण सामग्री तथा प्रशिक्षण केंद्र का विस्तार किया जाना चाहिए

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

बदलाव का विरोध वही करते हैं जो भाषा को अपनी जागीर समझते हैं,


हिंदी प्रेमियों को इसकी अपनी लिपि, अपने शब्द और इसके व्याकरण वगैरह पर एक हद से ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए। अगर हिंदी फैलती है, इसका दायरा व्यापक बनता है तो इन सब में बदलाव आना लाजिमी है। बदलाव का विरोध वही करते हैं जो भाषा को अपनी जागीर समझते हैं, जबकि कोई भाषा किसी की निजी संपत्ति नहीं बनी रह सकती। यह उन सब की साझा संपत्ति होती है, जो उससे जुड़े होते हैं। इस तर्क से सहमत होते हुए भी कुछ सवाल मेरे मन में रह गए थे। शायद इसलिए कि मैं भी उन लोगों में हूं, जो हिंदी के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। मगर हाल में मैंने एक अंग्रेजी दैनिक में जस्टिस मार्कंडेय काटजू की एक टिप्पणी देखी, जो कि नीचे प्रस्तुत है ।

कुछ समय पहले जस्टिस काटजू ने चेन्नै के किसी आयोजन में अपने भाषण में तमिलभाषियों के हिंदी सीखने की जरूरत पर बल दिया था। इसका वहां कुछ लोगों ने विरोध किया। जस्टिस काटजू ने उन्हीं विरोधियों के तर्कों का जवाब देने के लिए अखबार में यह टिप्पणी लिखी थी। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि वह तमिलनाडु ही नहीं, कहीं भी किसी पर भी हिंदी थोपने के खिलाफ हैं और नहीं मानते कि हिंदी भाषा तमिल से बेहतर है। वे हर भाषा का समान आदर करते हैं, किसी को ऊपर या नीचे नहीं रखते। उनके मुताबिक तमिल की हिंदी से तुलना नहीं की जा सकती इसलिए नहीं कि हिंदी बेहतर है, बल्कि इसलिए कि हिंदी कहीं ज्यादा व्यापक है। तमिल सिर्फ तमिलनाडु में बोली जाती है, जिसकी आबादी 7.2 करोड़ है। जबकि हिंदी न केवल हिंदी भाषी इलाकों में, बल्कि गैर हिंदी भाषी राज्यों में भी दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल होती है। हिंदी भाषी राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में 20 करोड़, बिहार में 8.2 करोड़, मध्य प्रदेश में 7.5 करोड़, राजस्थान में 6.9 करोड़, झारखंड में 2.7 करोड़, छत्तीसगढ़ में 2.6 करोड़, हरियाणा में 2.6 करोड़ और हिमाचल प्रदेश में 70 लाख लोग हिंदी बोलते हैं। अगर पंजाब, प. बंगाल और असम जैसे गैर हिंदी भाषी राज्यों के हिंदीभाषियों को जोड़ लिया जाए, तो संख्या तमिल भाषियों के मुकाबले 15 गुनी ज्यादा हो जाती है। तमिल एक क्षेत्रीय भाषा है जबकि हिंदी राष्ट्रभाषा है और इसकी वजह यह नहीं कि हिंदी तमिल के मुकाबले बेहतर है। इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं। 

कहते हैं इंग्लिश पूरे देश की संपर्क भाषा है, मगर नहीं। इंग्लिश एलीट तबके की संपर्क भाषा हो सकती है, आम लोगों की नहीं। जस्टिस काटजू ने इस संदर्भ में एक घटना का जिक्र किया है। जब वह मद्रास हाई कोर्ट के जज थे, एक दिन उन्होंने एक दुकानदार को फोन पर हिंदी में बात करते सुना। उसके फोन रखने पर जस्टिस काटजू ने तमिल में उससे पूछा कि वह इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेता है? दुकानदार ने जवाब दिया, नेता कहते हैं हमें हिंदी नहीं चाहिए पर हमें बिजनस करना है, इसलिए मैंने हिंदी सीख ली है। जस्टिस काटजू का यह अनुभव पढ़कर मुझे भी लगता है कि तमिलनाडु के हिंदी विरोधी और इलाहाबाद, वाराणसी के विशुद्ध हिंदी का आग्रह पालने वाले हिंदी समर्थक अनजाने में एक ही पाले में खड़े हैं। अगर तमिलनाडु के लोग हिंदी को अपनाएंगे तो क्या वे उसमें तमिल के प्रचलित शब्द नहीं डालेंगे? क्या उनका प्रयोग और उच्चारण वगैरह बिलकुल वैसा ही होगा, जैसा उत्तर प्रदेश या बिहार के लोगों का होता है? साफ है कि ऐसा नहीं होगा। वह एक नए तरह की हिंदी होगी, जो शायद यूपी और एमपी के लोगों को थोड़ी अजीब लगे। जैसी कि मुंबइया हिंदी लगती है, लेकिन वह होगी हिंदी ही। क्या हम देश-विदेश में जन्म ले रही, फल-फूल रही ऐसी तमाम हिंदियों को अपना मानने की उदारता नहीं दिखा सकते?