गुरुवार, 22 जनवरी 2009

जो चमचागिरी नहीं करे, तो भरे डिमोशन और स्थानान्तरण

जो चमचागिरी नहीं करे, तो भरे डिमोशन और स्थानान्तरण
रेलवे विभाग के राजभाषा विभाग में अब काम के बजाय चमचागिरी हावी हो गई है, जो साहेब की चमचागिरी नही करता वह अनेकानेक यातनाएं सहन करता है, यही हुआ अब तक और आज भी हो रहा है । हम बार बार कह रहे है कि रेलवे बोर्ड या किसी भी रेल में अधिकारियों को हिन्दी से कोई लेना देना नहीं है यहा तो बोर्ड में राजभाषा निदेशालय में बैठा उपनिदेशक जो कर दे वही फाइनल हो जाता है और वहां पर बैठा है सिंधी, कहते है कि यह कौम ही इस प्रकार की है कि इनसे खतरनाक तो सांप भी नहीं होता, एक बार सांप का काटा बच सकता है सिंधी का काटा नहीं बच सकता । यही किया है हाल में वरिष्ट राजभाषा अधिकारियों की तैनाती में , उसने जो कर दिया उस पर सभी ने अपनी मोहर लगा दी, और बेचारी परेशान हुए है पश्चिम रेल के और इलाहाबाद में नियुक्त राजभाषा अधिकारी ।
ध्यान देने लायक जो तथ्य है उनपर गौर ही नहीं किया गया जैसे कि ः
१ सभी रेलों पर एक एक अधिकारी समान अनुपात से दिया जाना चाहिये था
२ उक्त रेलों पर नियमानुसार ५० प्रतिशत ही संघ लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित तैनात किये जाने चाहिये थे परन्तु यह भी नहीं किया गया ।
३ पश्चिम रेल पर पांच मण्डल है और पांच ही राजभाषा अधिकारी , यदि उक्त तीन अधिकारी आ जाएंगे तो पहले से ही कार्यरत नियमित रूप में चयनित अधिकारी कहां जाएंगे, यह सोचना बोर्ड का काम है ।
४ उत्तर रेल और मध्य रेल में एक भी सीधी भर्गी वाला अधिकारी क्यों नहीं दिया गया, इन रेलों पर क्या मेहरबानी है ।
५ यह ठीक है कि तदर्थ अधिकारियों को पदोन्नत किया जा सकता है लेकिन पदोन्नत होने के बाद वे कहां जाएंगे, क्योंकि उनकी रिक्ती तो नियमित चयन करके भर दी गई है और नियमित चयनित अधिकारियों को पदावनत नहीं किया जा सकता ।
६ इसी प्रकार इलाहाबाद में दो सीधी तैनाती कर दी गई है और वहां पर कार्यरत अधिकारियों केलिए परेशानी खडी की गई है ।
७ यदि सबसे जूनियर को ही पदोन्नति करनी है तो महाप्रबंधक को तदर्थ राजभाषा अधिकारी भरने की पावन बोर्ड ने क्यों नहीं दी ।
८ मोटवानी ने पहले भी हिन्दी कंपटिंग फाउण्डेशन के मामले में अडंगा लगाया था जो कि संसदीय राजभाषा समिति के हस्तक्षेप के कारण ठीक हुआ है , अतः जब बोर्ड जानता है कि यह व्यक्ति गलत है और गलत कार्य कराता है तो उसे रेल क्लेम ट्रीबुनल में क्यों नहीं भेजा जाता ।
९ बोर्ड को पहले भी एक प्रस्ताव भेजा गया था कि निमार्ण विभाग में जिस प्रकार सब विभागों केलिए पद सृजन हेतु एक प्रतिशत निर्धारित कर दिया है उसमें हिनदी केलिए भी कुछ प्रतिशत होना चाहिये, लेकिन ऐसे प्रस्तावों पर बोर्ड विचार ही नहीं करता क्योंकि इनसे रेलों पर नियुक्त कर्मचारियों का भला होता है ।
अब देखते है कि इन रेलों के महाप्रबंधक अपने अधिकारियों को बचाने केलिए क्या करते है, उन्हे करना भी चाहिये और यह फर्ज भी है । जब तक पहले से नियुक्त नियमित अधिकारियों कोपूरा काम नहीं मिलता , हमारा मानना है कि तब तक सीधी भर्ती वालों को ज्वाइन नहीं करने देना चाहिये,

सोमवार, 19 जनवरी 2009

सलाहकार समितियों में केवल उन्ही को नामित करना होगा जो वास्तव में इस कार्य को बढाने में सरकार की मदद कर सकते हैं

राजभाषा के रूप में हिन्दी का सपना कब पूरा होगा, यह असाघ्य रोग हो गया है, हम बार बार इस बात की ओर इशारा कर रहे है कि जिनके कधे पर इसकी जिम्मेवारी दी गई है वे इस जिममेवारी को यदि पूरा नहीं कर पाते तो उन्हे पद से हटा दिया जाना चाहिये । यहां हमारा मकसद उन्हे नौकरी से निकालने का नहीं है, वरन् उनकी जगह काबिल कर्मियों को लाने का है । लेकिन जब इसपर भी राजनीति हो तो कोई कुछ नहीं कह सकता । आज सभी जानते है कि जमाना कंप्यूटर का है ओर इस जमाने में यदि हिन्दी को साथ साथ लेकर नहीं चला गया तो वह दिन दूर नहीं , जब सरकारी कार्यालय से हिन्दी नाम समाप्त हो जाएगा ।
मैं रेलवे विभाग के बारे में कुछ कहना अपना फर्ज समझता हू जहां हिन्दी के नाम पर काफी कुछ हो रहा है, लेकिन हिन्दी कहीं भी दिखाई नहीं देती, आज की तारीख में रेलवे के सभी कंप्यूटर सिस्टम केवल इग्रेजी में काम कर रहे है यहां तक कि उनमें हिनदी में काम करने की सहूलियत भी नहीं है । इसका दोषी कोन है, इसपर विचार करने की जरूरत है । रेलवे में प्रयुक्त फायस, एफ एम आय एस, अफ्रेश, स्टोर सिस्टम, पी एम आय एस, आदि सभी केवल अंग्रेजी में ही काम करने के लायक है, हिन्दी उन्हे रास नहीं आती । इसपर संसदीय राजभाषा समिति ने कई बार प्रश्न उठाया, लेकिन वही ढाक के तीन पात, स्थिति वहीं की वहीं है । जरा सी भी नहीं बदली । अतः राजभाषा कानून कहां गया, और इसकी क्या महत्तता है यह भी विचार होना चाहिये, रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति में राजभाषा विभाग जिन्हे प्रतिनिधि के तौर पर भेजता है, वे सभी कैसे है, यह सब जानते है , वे केवल मजा करने केलिए सदस्य बनते है मत्री तक अपनी ताकत रखते है लेकिल केवल अपनेलिए, हिन्दी से उनका कोई लेना देना नहीं होता । प्रश्न यह भी उठता है तो इस प्रकार से देख को धोका देने केलिए ऐसे विभाग की आवश्यकता क्या है , अतः ऐसे विभाग को तुरन्त बन्द कर देना चाहिये ।
लेकिन ऐसा करना भी उचित नहीं है, सवाल यह भारतीय संस्कृति का है और इसे बचाने केलिए यह विभाग बनाया गया है ताकि भारतीय भाषाओं का संवर्धन हो सके, अतः इस विभाग को अब मूक दृष्टा न होकर गंभीर रूप से सोचना होगा और सलाहकार समितियों में केवल उन्ही को नामित करना होगा जो वास्तव में इस कार्य को बढाने में सरकार की मदद कर सकते हैं ।