मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

वोट पॉलिटिक्स के लिए स्कूलों में अंग्रेजी के बदले हिंदी लागू कराते हैं।

किसी भी राइटर या जर्नलिस्ट के बच्चे हिंदी मीडियम स्कूलों में नहीं पढ़ते। पिछले दिनों एक सर्वे किया, जिसका उद्देश्य यह जानना था कि हिंदी माध्यम से काम करने वाले लोग अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा किन स्कूलों में करा रहे हैं। और नौकरी के माध्यम से हिंदी की सेवा करने के अलावा अपनी निजी जिंदगी में हिंदी भाषा के उत्थान के लिए वे और क्या-क्या करते हैं। इस सर्वे के लिए दो बेहद साधारण से सवाल पूछे गए। एक, आपने अपनी पढ़ाई किस तरह के स्कूल में की है -सरकारी या प्राइवेट -हिंदी मीडियम वाले या इंग्लिश मीडियम वाले? और दो, आपके बच्चे किस मीडियम से पढ़ाई कर रहे हैं? सर्वे में पाया गया कि इस हिंदी अखबार के संपादकीय विभाग में काम करने वाले 80 प्रतिशत लोगों ने अपनी स्कूली शिक्षा सरकारी स्कूलों में प्राप्त की है और उनका सीखने का प्रारंभिक माध्यम हिंदी रही है। जिन लोगों ने अंग्रेजी मीडियम से पढ़ाई की है, उनमें से सिर्फ पांच प्रतिशत लोग संपादकीय विभाग में हैं। ये नए जर्नलिस्ट हैं, जिनकी उम्र अभी 25 साल से कम है और इनकी स्कूलिंग हिंदी प्रदेशों की राजधानियों या अपेक्षाकृत छोटे शहरों में हुई है। एनबीटी से जुड़े और अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में पढ़े शेष 15 प्रतिशत एंप्लॉईज या तो इंजीनियरिंग और डिजाइनिंग वाले कामकाज से जुड़े हैं या दूसरे टेक्निकल कामकाज से। इस सर्वे में संपादकीय विभाग के अलावा इस अखबार से जुड़ी इंजीनियरिंग, डिजाइनिंग, फोटोग्राफी और प्रॉडक्शन जैसी यूनिट्स को भी रखा गया। क्या हिंदी मीडियम से पढ़ाई करके आए लोग अब अपने बच्चों को हिंदी माध्यम वाले स्कूलों में भेज रहे हैं? इसका जवाब पूरी तरह से 'ना' में मिलता है। सर्वे में पाया गया कि पिअन और क्लर्क/ टाइपिस्ट भी अब अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही भेज रहे हैं। नौकरी में आने से जिन लोगों का एम्पावरमेंट हुआ है, उनमें से किसी का भी बच्चा हिंदी माध्यम वाले स्कूलों में नहीं जाता। इस सर्वे में वे लोग भी शामिल हैं जो आज से 25-30 साल पहले नौकरियों में आए थे। तब देश में उदारीकरण का दौर पूरी तरह से शुरू नहीं हुआ था। इसका मतलब यह है कि हिंदी मीडियम में काम करने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम वाले स्कूलों में पढ़ाने की जरूरत लिबरलाइजेशन शुरू होने के पहले से ही महसूस कर रहे थे। एनबीटी में सिर्फ एक तिहाई लोग ऐसे हैं, जिनके बच्चे फिलहाल पढ़ रहे हैं या अपनी पढ़ाई पूरी कर चुके हैं। शेष कर्मचारियों की अभी या तो शादी नहीं हुई है या बच्चे स्कूल जाने लायक नहीं हैं। ऐसे छोटे बच्चों वाले ये माता/पिता स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे उन्हें अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही पढ़ाएंगे। एनबीटी ने अपने ही बेडरूम से पर्दा क्यों उठाया? ऐसा इसलिए किया गया ताकि हम अपनी सोच के दोहरेपन को समझ सकें। यह छोटा सा सर्वे किसी भी अन्य दफ्तर में किया जा सकता है। चाहे वे हिंदी के दूसरे अखबार हों या कॉलेजों-यूनिवर्सिटियों के हिंदी विभाग। अन्य विभागों में भी हिंदी का कोई लेक्चरर या स्कूली शिक्षक या अनुवादक अपने बच्चों को हिंदी माध्यम से पढ़ाने में सहज नहीं महसूस करता। उसका प्रयास अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने का ही रहता है। ऐसा वह हिंदी के प्रति अपने प्रेम के कम होने के कारण नहीं, बल्कि भविष्य और नौकरी की बेहतर संभावनाओं को देखते हुए करता है। एनबीटी लंबे समय से अपने पाठकों को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि हिंदी हमारी सांस्कृतिक भाषा है, लेकिन इसके प्रति अपने तमाम भावनात्मक लगाव के बावजूद फ्यूचर टूल के रूप में हमारे लिए अंग्रेजी सीखना जरूरी है। हिंदी के अनेक प्रतिष्ठित विद्वान इससे असहमति व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि यह बाजारवाद के समर्थन में गढ़ा गया तर्क है। जब अंग्रेजी सीखने की सलाह दी जाती है तो वे कहते हैं कि ऐसा इसलिए कहा जा रहा है ताकि हिंदी को कमजोर भाषा साबित किया जा सके और धीरे-धीरे उसे नष्ट कर दिया जाए। कुछ विद्वान इससे भी एक कदम आगे जाते हैं। हिंदी भाषा पर आयोजित होने वाली कार्यशालाओं और गोष्ठियों में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि यह एक अंतरराष्ट्रीय साजिश है। हिंदी को कमजोर बना कर दरअसल हमारी संस्कृति की जड़ें काटने की कोशिश की जा रही है, ताकि इस पूरे क्षेत्र को नए किस्म के उपनिवेश में बदला जा सके। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि ये बातें वे किसके लिए कहते हैं, क्योंकि हमारी संस्कृति तो पहले ही काफी कुछ बदल चुकी है। हिंदी के पक्ष में ऐसे सारगर्भित भाषण देने वालों में से अब शायद ही कोई धोती-कुर्ता पहनता हो या अपने बैंकिंग ऑपरेशंस हिंदी के माध्यम से चलाता हो। यदि किसी की निजी या पारिवारिक जिंदगी में हिंदी का हिस्सा घटता जा रहा हो, लेकिन वह दूसरों पर हिंदी विरोधी होने का आरोप लगा रहा हो- तो लगता है कि ऐसा वह अपने पद और प्रतिष्ठा के बचाव के लिए कर रहा है, जो फिलहाल उसे हिंदी की वजह से प्राप्त है। हिंदी का महत्व बढ़ाना उसका वास्तविक मिशन नहीं है। इसके अलावा वह भाषा के प्रति भावुक बना कर उस नई पीढ़ी को भी गुमराह कर रहा है, जिसे नौकरियों और बाहरी जरूरतों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हमने अनेक ऐसे नेताओं को देखा है जिनके बच्चे उम्दा अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े हैं, लेकिन जो अपने भाषणों में अंग्रेजी हटाने की बातें कहते हैं या सत्ता में आने पर वोट पॉलिटिक्स के लिए स्कूलों में अंग्रेजी के बदले हिंदी लागू कराते हैं।

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