गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

हिन्दी को लागू करने के लिए

मुकेश कुमार जैन एक ऐसे आईआईटियन हैं, जो आपकी मेनस्ट्रीम आकांक्षाओं में बिल्कुल फिट नहीं होंगे। इनके अपने सपने भी हैं। लेकिन, ये सपने 'आईआईटी टाइप्स' से कोसों दूर हैं। सिविल सेवा परीक्षाओं में नए सी-सैट फॉर्मैट के विरोध की आंधी के पीछे आईआईटी रुड़की से ग्रैजुएट 52 साल के जैन का भी हाथ है। वह अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्य विरोधी मंच के मुख्य कर्ताधर्ता हैं। यह संगठन उत्तर हो या दक्षिण, देश के हर हिस्से से अंग्रेजी का सफाया करके उसकी जगह हिन्दी को लागू करने के लिए काम कर रहा है।
इसका संचालन राजधानी के ऐतिहासिक बिड़ला मंदिर कॉम्प्लेक्स के निकट हिंदू महासभा ऑफिस से होता है। इस ऑफिस का अपना ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि यहां आरएसएस की शुरुआती शाखाएं लगाई जाती थीं। जैन के स्वयंसेवकों में से एक ने बताया कि निश्चित तौर पर एक बार नाथुराम विनायक गोडसे ने इसके कमरों का इस्तेमाल किया था। 1986 से ही जैन और उनके दोस्त एकजुट होकर इंग्लिश की जगह हिंदी को लागू करने के लिए विरोध-प्रदर्शन करते आ रहे हैं। वह चाहते हैं कि आईआईटी-जी की परीक्षा हो या फिर एनडीए-सीडीएस, बैंक एग्जाम हो या फिर किसी सरकारी कंपनी का टेस्ट, हर जगह इंग्लिश के बजाय हिंदी को जगह मिले। 

ऑफिस में वीर सावरकर की प्रतिमा से सटे कमरे में बैठे जैन ने अपना छात्र जीवन याद करते हुए बताया कि उन्हें अधिकारियों को यह समझाने में काफी लंबा वक्ता लगा कि उन्हें हिंदी में परीक्षा देने की अनुमति दी जाए। मैन्युफैक्चरिंग फर्म चलाने वाले जैन ने कहा, 'ऐसा इसलिए नहीं था कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती बल्कि मुझे यह बहुत शर्मनाक लगता है कि हमारे नॉलेज और टेस्ट का मीडियम अंग्रेजी है। स्टूडेंट्स मेरा मजाक उड़ाते थे, लेकिन मैं उन्हें कहता था कि वे पश्चिमी देशों के चक्कर में अपनी मातृभाषा का अपमान कर रहे हैं। हमें चीन, जर्मनी और फ्रांस से सीखना चाहिए कि वे किस तरह अपनी भाषा का सम्मान कर रहे हैं।' जैन 1984 आईआईटी रुड़की बैच के इंजीनियर हैं।
जैन ने बताया कि उन्हें पहली कामयाबी उस वक्त मिली जब आईआईटी कानपुर कैंपस में हिंसात्मक विरोध के बाद इंस्टिट्यूट को मजबूर होकर 1986 में हिन्दी में फॉर्म जारी करने पड़े। उन्होंने कहा, 'हमने एक साल पहले से ही अंग्रेजी के प्रश्न पत्र जलाना शुरू कर दिया था, जिसके बाद इंस्टिट्यूट का रवैया नरम पड़ा।' जैन की अंग्रेजी-विरोधी गतिविधियों का दायरा उस वक्त बढ़ा जब उन्हें कई हिंदू संगठनों का समर्थन मिला। जैन के संगठन में 1,200 कार्यकर्ता हैं, जिनमें से ज्यादातर दिल्ली और यूपी से हैं।

रविवार, 5 अप्रैल 2015

एक विचार हिन्दी के बारे में

बात शायद सही है कि आज भारत में अंग्रेजी ऊंचीभाषा समझी जाती है। हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के हितैषी सिर लटकाए परेशान हाल, बैठे हुए हैं। चाहे हिंदी के प्राद्यापक वर्ग से बात करें, या लेखकों से अथवा मीडियाकर्मियों से - हर जगह एक निराशा नजर आती है। विद्यार्थी वर्ग तो और भी अधिक निराशाजनक तस्वीर देखता/ दिखाता है। इनका मानना है कि चाहे कोई और भाषा आए न आए, अंग्रेजी के बिना गुजारा नहीं है। इसके बिना रोजगार पाना असंभव है। लोगों को लगता है कि भारतीय मातृभाषाओं को हाशिए पर डाल दिया गया है। एकमात्र अंग्रेजी ही कुलीन होने का अहसास दिलाती है, हिंदी-समर्थकों के हौसले पस्त हुए जा रहे हैं और हिंदी के लिए चेतन भगत जैसे अधपके चिंतक कहते हैं कि हमें देवनागरी छोड़ कर रोमन लिपि अपना लेनी चाहिए, तभी हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं का बचना संभव है। किताबों के शोरूमों में भारतीय भाषाओं में किताबें मिलना दुष्कर है, बमुश्किल एक या दो अलमारियां नॉन-अंग्रेजी किताबों को नसीब होतीं हैं। इन सभी शोरूमों में इंग्लिश ही हर तरफ दिखाई देती हैं। शिक्षण संस्थाओं में हिंदी पढ़ने और पढ़ाने वालों को ढीलासमझा जाता है- छात्रों को रोजगार के अवसर नजर नहीं आते। उधर, पत्रकारगण बार-बार लिखते जा रहे हैं कि हिंदी के खिलाफ कोई साजिश है शायद जिसके चलते हिंदी लड़ाईहार रही है। मतलब ये कि सामूहिक सामाजिक चेतना में बार-बार ये बात अंकित होती है कि भाषाओं की इस लड़ाईमें हिंदी पिछड़ती जा रही है। अफसोस यह कि सभी आलिम-ओ-फाजिल कह रहे हैं कि ना तो वो लिखने वाले बचे हैं, न ही पढ़नेवाले (जो कि गलत है), इस वजह से भारतीय भाषाएं लुप्त भले ही न हों, हाशिए पर आ गई हैं और शायद वहीं बनी रहेंगी।
मेरा मानना है कि ये सब गलत है, बकवास है। अभी मनोबल गिराने की जरूरत नहीं है, पिक्चर अभी बाकी है दोस्त! हिंदी के आगे तमाम संभावनाएं बिखरी पड़ी हैं... और अगर मानसिकता बदली जाए और पासा ठीक पड़े तो हिंदी क्या, सभी भारतीय भाषाएं एक चमकीला भविष्य अगले 10-15 सालों में बड़े आराम से जी सकती हैं।
 बहुत अच्छा, बहु-आयामी, आला-दर्जे के साहित्य की रचना हिंदी और अन्य भाषाओं में बखूबी हो रही है। अच्छा पढ़ने के भूखे लोग भी हैं। हां मार्केटिंग की कमी है, साहित्यकारों में गुट बने हुए हैं, प्रकाशकों में आत्मविश्वास की कमी है, एडवरटाइजिंग नहीं के बराबर की जाती है... वगैरह कुछ मसले हैं जो आसानी से सुलझाए जा सकते हैं।
भारत में आज भी हिंदीभाषी सबसे ज्यादा हैं। इतना बड़ा बाजार है, बस व्यापारिक अदूरदर्शिता की वजह से इसका दोहन नहीं किया जा रहा है। कोई साजिश नहीं है हिंदी के खिलाफ, अभी तक इस मार्केट को ठीक से दुहने का कुशल और बुद्धिमान प्रयास नहीं किया है।
 English is the new normal. आज कोई किसी फर्राटेदार इंग्लिश बोलने वाले को देख प्रभावित नहीं होता जैसे पहले होता था। पिछले एक दशक में काफी कुछ बदला है। जहां अभिजात वर्ग की देखादेखी मध्यमवर्ग अंग्रेजी अपना रहा है, वहां सुपर-एलीट तबके में अंग्रेजी प्रेम घटा है और मातृभाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा है। अगर हम उस अभिजात वर्ग को बदल पाए तो संभव है उनका अनुसरण कर आगे चल कर बाकी लोग भी मातृभाषाओं की ओर झुकें। उनका रवैया बदलने का हमारा एक छोटा-सा प्रयोग youtube का हिंदी कविताचैनल है जहां प्रसिद्ध रंगकर्मी और अदाकार हिंदी के नए और पुराने लेखकों की रचनाओं का पाठ कर रहे हैं। यहां कुछ लाख लोगों को हिंदी स्टाइलिश और अच्छी लगी। वैसे तो यह सागर में एक छोटी-सी बूनद के समान है, पर इस प्रयास ने मुझे उम्मीदों से भर दिया है।
 बाजारीकरण और उपभोक्तावाद असल में हिंदी और अन्य भाषाओं के बहुत मददगार हो सकते हैं। हमारे विस्तृत (व्यक्तिगत) सर्वेक्षण से कुछ आसान निष्कर्ष उभरे हैं- हमारी सरकार जिस तरह दुनिया को रिझा रही है कि आइए, हमारी औद्योगिक उत्पादन क्षमता का, हमारे शिक्षण संस्थानों का, हमारे हस्पतालों का, हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में छिपी व्यापारिक संभावनाओं का लाभ उठाएं - उसी तरह हिंदी के क्षेत्र में निवेश के कितने अवसर हैं, ये बता पाएं (मोदीजी, मेरे पास विस्तृत रिपोर्ट है, अगर आप निगाह डालना चाहें), तो बाजार की शक्तियां अपने आप ही इसे दुहने का रास्ता ढूंढ लेंगी।
और भी बहुत सारे कारण हैं मेरी इस ना-बेउम्मीदी के जो मनोवैज्ञानिक हैं और समाजशास्त्र के सिद्धांतों पर भी खरे उतरते हैं। बस, एक सुनियोजित प्रयास की जरूरत है, उसे चतुरता और कूटनीति से निष्पादित करने की जरूरत है। भाषा को थोप कर तो हम इसे और अनाकर्षक बना रहे हैं। हम सब ने देखा है कि एक घटिया-सी डाक्यूमेंट्री को बैन करके हमने उसे कितना लुभावना बना दिया... दुनिया हिटलरी से नहीं चलनेवाली। भावुकता या द्वेषभाव नहीं, हमें हिंदी के लिए एक चाणक्यनीति की जरूरत है। हिंदी का सामृध्य वापस लाना बिलकुल संभव है।


शनिवार, 4 अप्रैल 2015

मन की बात

मैं आजकल हिन्दुस्तानी प्रचार सभा में कार्यरत हूँ और क्रिया कोश पर काम कर रहा हूँ .
मुझे पता लगा कि हिन्दुस्तानी प्रचार सभा में हमारे सहकर्मी और उर्दू विभाग के अध्यक्ष श्री मुहम्मद हुसैन पारकर जी को 31 मार्च 2015 की शाम को बुलाकर कह दिया गया कि आप कल से सभा में काम पर न आएँ और उनकी सेवाएँ समाप्त कर दी गई . मैं आश्चर्य में भी हूँ और इस संस्था के अधिकारियों के इस व्यहार से दुखी भी .
मैंने पहली बार सुना कि पारकर जी को पहले इस प्रकार की सूचना नहीं दी गई और उन्हे बिना किसी पूर्व सूचना के बाहर का रास्ता दिखा दिया गया जो कि हिन्दुस्तानी प्रचार सभा जैसी संस्था के लिए अशोभनीय भी है .यदि इस प्रकार श्रीमती डॉ. सुशीला गुप्ता को हटाया जाता और यही व्यवहार उनके साथ किया जाता तो न जाने कितने हिंदी के समर्थक इक्ट्ठे होकर हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के सचिव श्री पैच  को गालियाँ देते परंतु श्री पारकर तो मुसलमान हैं अत: उनके लिए तो कोई भी नहीं कहेगा . अत: मैं केवल अपनी संवेदनाएं ही प्रकट कर सकता हूँ .

मुझे यहाँ काम करते हुए एक साल से भी कम समय हुआ है और इस समय में श्री पारकर जी का व्यवहार मैंने तो ठीक ही पाया है वह एक निष्ठावान कर्मी हैं , उन्हें पैंशन भी नहीं मिलती अत: यकायक उन्हे  इस प्रकर हटा देना ठीक नहीं है . यह सबके साथ हो सकता है विशेषकर मेरे साथ -  क्योंकि मैं भी डॉ सुशीला गुप्ता का चमचा नहीं हूँ और उनकी तरह हिन्दुस्तानी प्रचार सभा को लूट्ने का प्रयास भी नहीं कर रहा हूँ . यह सभी जानते हैं कि हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के सचिव जी केवल और केवल सुशीला गुप्ता की ही सुनते हैं हालांकि हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के ट्रस्टीजनों की इनकी वजह से काफी बेइज्जती हो चुकी है और जब तक यह महिला रहेगी तब तक होती रहेगी परंतु न जाने इस महिला में क्या है कि हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के ट्रस्टीजनों को इसकी एक भी शिकायत उचित नहीं लगती .मेरा भगवान से आग्रह है कि हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के ट्रस्टीजनों को सुबुद्धी दे . साथ ही साथ प्रार्थना है कि श्री पारकर जी को भविष्य में सेहत दे . लगता है कि आज ट्रस्टीजनों ने हिन्दुस्तानी प्रचार सभा में जो सरल हिन्दी कक्षाओं के नाम पर भोज का प्रबंध किया है वह श्री पारकर जी को बाहर का रास्ता दिखाने की खुशी में किया गया है . इस तरह हिन्दी का विकास संभव नहीं है .