गुरुवार, 24 जून 2010

राजभाषा के रूप में हिंदी को उसकी गरिमा दिलाने में सरकार की कोई खास रुचि नहीं

ग्लोबलाइजेशन और बाजार के बढ़ते दबाव के कारण हिंदी को लेकर एक बार फिर बहस तेज हो गई है। आज हिंदी का विकास भले ही रुका न हो , लेकिन सरकारी कामकाज में उसकी गति लगातार और तेजी से घट रही है। आजादी के तुरंत बाद 14 सितंबर , 1949 को संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता देने की घोषणा की गई थी मगर इस संबंध में कानून नहीं बना और हिंदी को राजभाषा का जामा पहना दिया गया। पांच वर्षों के बाद 1954 में राजभाषा आयोग गठित किया गया जिसने 1956 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और इस रिपोर्ट पर अमल 9 वर्षों के बाद यानी 10 मई 1963 को राजभाषा अधिनियम बना कर किया गया। 1965 में दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु में हिंदी विरोध शुरू हो गया और इसके चलते 1965 में सरकार ने राजभाषा संशोधन अधिनियम बना दिया। 11 साल बाद सरकार ने राजभाषा नियम (1976) बनाया। इस तरह हिंदी की गाड़ी रुक - रुक कर चली और आज आजादी के 60 वर्ष बाद भी उसी तरह चल रही है। इस स्थिति में कुछ बदलाव जरूर हुए। सरकारी मंत्रालयों और कार्यालयों में हिंदी अधिकारियों के पद बना कर भरे गए जो बाद में इन संगठनों में दूसरे दर्जे के कर्मचारी बन गए। इनके द्वारा हिंदी को एक कृत्रिम अनुवाद की भाषा का रूप दिया गया। हजारों अनुवादकों और हिंदी अधिकारियों की मौजूदगी के बावजूद सरकारी हिंदी एक ऐसी बेजान भाषा बन गई जो आम जन के पल्ले नहीं पड़ती। सरकारी दफ्तरों में मूल हिंदी में तो काम होता नहीं। अनुवाद इसका एक विकल्प बन गया है क्योंकि सभी मंत्रालयों , उसके अंतर्गत आने वाले विभागों और उपक्रमों का कामकाज अंग्रेजी में होता है। मंत्रालयों के सचिव और बड़े अधिकारी तथा उपक्रमों के मुखिया और वरिष्ठ अधिकारी अंग्रेजी में सोचते और लिखते हैं। जरूरत के हिसाब से उनके लिखे का अनुवाद होता है और यह काम करने वाला अधिकारी अपने ही संगठन में पदोन्नति के अभाव में उपेक्षित , हताश हिंदी का नाम लेता कार्यालय के किसी कोने में आंकड़े पकाता पड़ा रहता है। विभिन्न मंत्रालय , सरकारी कार्यालय , उपक्रम आदि हिंदी दिवस और हिंदी सप्ताह मना कर बाकी पूरे साल हिंदी के नाम पर मौन धारण कर लेते हैं। प्रगति रिपोर्ट राजभाषा विभाग की जरूरत के मुताबिक बना दी जाती है। हिंदी को देश भर के सरकारी विभागों और निगमों आदि में लागू करने के लिए संसदीय राजभाषा समिति भी बनी है , जिसमें कुल 30 संसद सदस्य ( लोकसभा के 20 और राज्यसभा के 10) होते हैं। इस समिति को तीन उप समितियों में बांटा गया है। इस समिति के अध्यक्ष गृह मंत्री होते हैं तथा तीनों समितियों के ऊपर एक उपाध्यक्ष होता है। संसदीय समिति का काम विभिन्न सरकारी कार्यालयों और उपक्रमों का निरीक्षण करना है और यह पता लगाना है कि इनमें हिंदी का काम ढंग से हो रहा है या नहीं। पर यह बात केवल सिद्धांत में है। सचाई यह है कि निरीक्षण का यह कार्यक्रम दफ्तरों के परिसर में न होकर शहर के किसी बड़े फाइव स्टार होटल में आयोजित किया जाता है। एक बार में 2 या 3 कार्यालयों का निरीक्षण किया जाता है जिस पर 5 से 10 लाख रुपये खर्च होते हैं। यह खर्च वे कार्यालय उठाते हैं जिनका निरीक्षण होता है। हालांकि नियमत : यह खर्च संसद द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार होना चाहिए। समिति के माननीय सदस्यों को कार्यालयों द्वारा भारी - भरकम उपहार भी दिए जाते हैं। कुल मिलाकर यह आयोजन पिकनिक मनाने जैसा होता है। नवंबर 2008 तक के आंकड़ों के अनुसार इन समितियों ने 9475 निरीक्षण किए थे। समिति सीधे राष्ट्रपति को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है और इन सिफारिशों पर राष्ट्रपति अपना आदेश देते हैं। इन संसदीय राजभाषा समितियों को 59 पृष्ठों की एक निरीक्षण प्रश्नावली , संगठन प्रमुखों द्वारा भर कर दी जाती है। वह जादुई आंकड़ों का एक ऐसा पुलिंदा होता है संसद सदस्य जिसकी सचाई जांचने की कभी जरूरत नहीं समझते। और इन्हीं आंकड़ों के आधार पर महामहिम राष्ट्रपति द्वारा आदेश जारी किया जाता है। अब तक इसके 8 खंड जारी किए जा चुके हैं। इस आदेश को कभी कोई पलट कर नहीं देखता , न उसके हिसाब से कामकाज में बदलाव किया जाता है। उन कारणों की पड़ताल करना जरूरी है , जिनकी वजह से तमाम संवैधानिक नियमों , अधिनियमों और राष्ट्रपति के अध्यादेशों के बावजूद इन साठ वर्षों में हमारे कार्यालयों में हिंदी की दशा नहीं सुधरी। यह बाधा है हिंदी का विकास सुनिश्चित करने के लिए गठित समितियों , विभागों और अफसरों का रवैया। सभी जानते हैं कि सामान्य नियमों और अधिनियमों की अवहेलना करने पर दंड का प्रावधान है , लेकिन सरकारी कार्यालयों में राजभाषा की खुलेआम अवहेलना की जाती है। अब तक इस अवहेलना के लिए किसी भी अधिकारी को कभी दंडित नहीं किया गया है। सभी संगठनों में हिंदी का स्टाफ नियुक्त है और यह समझ लिया गया है कि हिंदी में काम करने तथा नियमों के अनुपालन की सारी जिम्मेदारी केवल इन्हीं की है। इन संगठनों में काम करने वाले हिंदी अधिकारियों को किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। अपने ही संगठन में पराया तथा सबसे अधिक गैरजरूरी पद हिंदी अधिकारी का होता है। वह लंबे समय से इस गैर बराबरी का शिकार रहा है जो देश में हिंदी की स्थिति का प्रतीक है। आजादी के बाद महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन के नेता नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी देश के शासन की भाषा बनी रहे। इसीलिए भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और उम्मीद की गई कि इससे हिंदी रोजगार से जुड़ेगी और इसका प्रभाव जनजीवन पर पड़ेगा। मगर ऐसा नहीं हो सका। आज भी हिंदी समेत बाकी भारतीय भाषाएं अपना उचित स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं। इस क्षेत्र में सरकारी प्रयास आधे मन से किए गए हैं और इसकी मॉनिटरिंग के लिए बनाई गई समितियां अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक गई हैं। आज राजभाषा के रूप में हिंदी को उसकी गरिमा दिलाने में सरकार की कोई खास रुचि नहीं रह गई है।

आज करीब 25 से 30 युवा कथाकार हिंदी में गंभीरतापूर्वक कहानियां लिख रहे हैं।

हिंदीभाषी प्रदेशों के बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि ग्लोबलाइजेशन और सूचना क्रांति ने साहित्य से आम आदमी का रिश्ता कमजोर कर दिया है और एक ऐसा समय भी आ सकता है, जब साहित्य जीवन से बेदखल हो जाएगा। ऐसा मानने वालों को साहित्य और आधुनिक रहन-सहन व टेक्नॉलजी में विरोध नजर आता है। उन्हें लगता है कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में मोबाइल और इंटरनेट के साथ जवान होने वाली पीढ़ी के लिए गंभीर साहित्य का कोई मोल नहीं रह गया है। उनकी नजर में यह जेनरेशन हिंदी की कोर्सबुक की वजह से प्रेमचंद और दूसरे कुछ लेखकों का नाम भले ही जान जाए, मगर इसके अलावा उसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन इस राय को पिछले पांच-छह वर्षों में उभरकर आई युवा कथाकारों की पीढ़ी ने गलत साबित कर आज करीब 25 से 30 युवा कथाकार हिंदी में गंभीरतापूर्वक कहानियां लिख रहे हैं। इनकी औसत उम्र 27-28 साल है। यानी इन्होंने उदारीकरण के समय में होश संभाला है। इनमें से ज्यादातर पब्लिक स्कूलों में पढ़े हुए हैं। किसी ने बॉयोटेक्नॉलजी की शिक्षा हासिल की है तो किसी ने मैनेजमेंट की। कोई पब्लिक सेक्टर में बड़े पद पर है तो कोई सिविल सर्विस में है। ये सब आधुनिक टेक्नॉलजी से युक्त हैं। इनमें से कई आपको फेसबुक पर मिलेंगे। कइयों के अपने ब्लॉग हैं। ये अपना लेखन सीधे कंप्यूटर पर करते हैं। इनके लिए साहित्य केवल शौक या टाइम पास नहीं है। अपनी भाषा और साहित्य के प्रति गहरे कमिटमेंट के कारण ही इन्होंने साहित्य-लेखन को अपनाया है। इतने सारे नए लेखकों की एक साथ मौजूदगी इस बात का संकेत है कि कंज्यूमरिज्म के असर के बावजूद हिंदीभाषी परिवारों में अपने बुनियादी मूल्यों से जुड़ाव बचा हुआ है। बल्कि जुड़ाव की प्रक्रिया ने नए सिरे से जोर पकड़ा है। इस वर्ष दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में पिछली बार की तुलना में दर्शकों की ज्यादा भीड़ और हिंदी प्रकाशकों की बिक्री में 20 से 25 फीसदी की बढ़ोतरी इसका एक प्रमाण है। इन युवा कथाकारों में महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है। निश्चय ही यह मिडल क्लास में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने को लेकर आ रही जागरूकता की देन है। हिंदी कहानी में यह एक खास मोड़ है, जिसमें भारतीय ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं और 'नया ज्ञानोदय' जैसी पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। सबसे पहले नया ज्ञानोदय ने दो खंडों में कुछ युवा कथाकारों की कहानियां छापीं, जिनका जबर्दस्त स्वागत हुआ। उसके बाद भारतीय ज्ञानपीठ ने इनमें से कुछ चुनिंदा कथाकारों के कहानी संग्रह छापे। दो साल के भीतर ही इनके दो-दो संस्करण निकल गए और अब कुछ संग्रहों का तीसरा संस्करण भी आने वाला है। भारतीय ज्ञानपीठ ने कहानी, कविता, और उपन्यास के लिए युवाओं को पुरस्कार देना भी शुरू किया है जिससे यंग राइटर्स को काफी प्रोत्साहन मिला है। नया ज्ञानोदय के बाद कुछ और पत्रिकाओं ने भी युवा कथाकारों पर विशेषांक निकाले जिसमें 'प्रगतिशील वसुधा' का विशेषांक काफी महत्वपूर्ण है। इन कहानीकारों का नजरिया पिछली पीढ़ी के कहानीकारों से बिल्कुल अलग है। ये किसी विचार के प्रभाव में नहीं हैं, इसलिए ये समाज को किसी आइडियोलॉजी के चौखटे में कसकर नहीं देखते। ये आमतौर पर शहरों के मध्यवर्गीय लेखक हैं इसलिए इनके कैरक्टर भी शहरी मिडल क्लास के हैं। ज्यादातर कहानियों का नायक मध्यवर्गीय युवा है जो समय के अनेक दबाव झेल रहा है। नौकरी और प्रेम जैसी समस्याओं में उलझा हुआ वह समाज में अपनी पहचान, अपनी जगह बना रहा है। लेकिन वह किसी भी लेवल पर किसी आदर्श को ढोता हुआ नजर नहीं आता। प्रेम और सेक्स को लेकर भी वह किसी उलझन का शिकार नहीं है, बल्कि बेहद व्यावहारिक है। आज की कहानियों में प्रेमी-प्रेमिका शादी और लिवइन रिलेशन को लेकर बेहद स्पष्ट हैं। अब वर्जिनिटी कोई मुद्दा नहीं है, नई जरूरतों के मुताबिक एक-दूसरे के लिए उपयोगी होने का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है। महिला कथाकारों के यहां भी रिश्तों का परंपरागत रूप देखने को नहीं मिलता। उनकी कहानियों में महिला चरित्र बोल्ड हैं- लेकिन केवल देह के स्तर पर नहीं, बल्कि समाज में अपनी भूमिका निभाने को लेकर भी। उनकी कहानियों में आज की आधुनिक कामकाजी महिला के रहन-सहन और सोच की झलक मिलती है जो अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए संघर्ष करती नजर आती है। इन युवा कथाकारों ने भाषा के पुराने ढांचे को तोड़ा है। ये ज्यादातर अपने कैरक्टर और माहौल के हिसाब से ही भाषा लिखते हैं। एक उदाहरण देखिए : 'निकी जॉइंड दिस स्कूल इन नाइंथ और स्कूल में अपने फर्स्ट डे से ही वो मुझे पसंद आ गई थी। अपनी शुरुआती कोशिशों के बाद जब लगा कि निकी मेरी तरफ ध्यान भी नहीं दे रही तब मैंने अपने दोस्तों की मदद मांगी। रवि इज वन ऑव माई फास्ट फ्रेंड्स एंड ही टोल्ड मी कि निकी एक फर्राटा है, उसके घर वाले आर वेरी पावरफुल और मुझे उसका चक्कर छोड़ देना चाहिए। लेकिन मेरी फीलिंग्स को देखते हुए उसने स्कूल्स फॉर्म्युला ट्राई करने को कहा। मेरे स्कूल में अगर किसी लड़की को इम्प्रेस करना होता था तो कनसर्निंग ब्वॉय यूज्ड टु कीप मैसेजेज, फ्लावर्स ऑर कार्ड राइट साइड ऑव द गर्ल्स बैग। यह सब प्रेयर के टाइम पर होता था।' (सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी, चंदन पाण्डेय ) आज के कहानीकार आधुनिक लाइफ स्टाइल के तमाम ब्योरे देते हैं। उनमें मोबाइल है, चैटिंग है, पिज्जा है, बर्गर है, मिनरल वॉटर है। चूंकि यह सूचनाओं का युग है, इसलिए आज के युवा लेखकों की कहानियों में सूचनाओं की भरमार मिलती है। ये कहानीकार हालात का चित्रण भर करते हैं, लेकिन किसी परिणाम या समाधान की ओर ले जाने की कोशिश नहीं करते। हिंदी के कुछ सीनियर लेखक हिंदी साहित्य की इस यंग ब्रिगेड को संदेह की नजर से भी देखते हैं, लेकिन पाठकों ने इनके लेखन को हाथोंहाथ लिया है। सचाई यह है कि ये युवा कहानीकार हिंदी में पाठकों का एक नया वर्ग तैयार कर रहे हैं।

बुधवार, 9 जून 2010

इससे बेहतर संस्मरण लिख पाना शायद आसान नहीं

अस्सी से धूमिल क्या गया, जैसे आंगन से बेटी विदा हो गई। घर सूना और उदास। इधर सुनते हैं कि कोई बुढ़ऊ-बुढ़ऊ से हैं कासीनाथ - इनभर्सीटी के मास्टर जो कहानियां-फहानियां लिखते हैं और अपने दो-चार बकलोल दोस्तों के साथ 'मरवाड़ी सेवा संघ' के चौतरे पर 'राजेश ब्रदर्स' में बैठे रहते हैं! अकसर शाम को! 'ऐ भाई! ऊ तुमको किधर से लेखक-कबी बुझाता है जी? बकरा जइसा दाढ़ी-दाढ़ा बढ़ाने से कोई लेखक-कबी थोड़े नु बनता है? देखा नहीं था दिनकरवा को? अरे, उहे रामधारी सिंघवा? जब चदरा-ओदरा कन्हिया पर तान के खड़ा हो जाता था, छह फुटा ज्वान, तब भह-भह बरता रहता था। अखबार पर लाई-दाना फइलाय के, एक पुडि़या नून और एक पाव मिरचा बटोर के भकोसता रहता है! कबी-लेखक अइसै होता है क्या?' 'हम न अयोध्या जाएंगे, न पोखरन, अब हम इटली जाएंगे वकील साहब! आप 'शिथिलौ च सुबद्धौ च' के गिरने की आस लगाए रहिए!' राधेश्याम दूसरे कोने से चिल्लाए। ... और चुनावी मुद्दा ढू़ंढ़ रहे हो? क्यों? अयोध्या ने किसी तरह प्रधानमंत्री दे दिया और अब ऐसा मुद्दा हो, जो बहुमत की सरकार दे दे। देश का कबाड़ा हो जाए, लेकिन तुम्हें सरकार जरूर मिले। डूब मरो गड़ही में सालो! हिकारत से वीरेंद ने बेंच के पीछे थूका और रामवचन की ओर मुखातिब हुए- पांडेजी, आपको बताने की जरूरत नहीं है कि '6 दिसंबर की अयोध्या की घटना की देन क्या है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का बोध नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातोंरात! रातोंरात चंदा करके सारी मस्जिदों का जीणोर्द्धार शुरू कर दिया। पप्पू की दुकान में बैठनेवाले आप्रवासी अस्सीवाले, इस 'विश्व कल्याण' को धंधा बोलते हैं! चले आ रहे हैं दुनिया के कोने-कोने से अंगरेज-अंगरेजिन। हालैंड से, फ्रांस से, हंगरी से, आस्ट्रिया से, स्विट्जरलैंड से, स्वीडेन से, आस्ट्रेलिया से, कोरिया से, जापान से! सैकड़ों नहीं, हजारों की तादाद में - इस घाट से उस घाट तक! किसी को तबला सीखना है, किसी को सितार, किसी को पखावज सीखना है, किसी को गायन-नृत्य-संगीत, किसी को हिंदी, तो किसी को संस्कृत- कुछ नहीं तो किसी को संगीत-समारोहों में घूम-घूमकर सिर ही हिलाना है। मदद के लिए हम आगे न आइए, तो लूट लें साले पंडे, गाइड, मल्लाह, रिक्शेवाले, होटलवाले सभी! और इस मदद को धंधा बोलते हैं। कन्नी गुरू, आपने मुलुक-मुलुक के अंगरेज-अंगरेजिन का नाम लिया, अमेरिका-इंग्लैंड को छोड़ दिया क्यों? नाम मत लीजिए उनका! बड़े हरामी हैं साले! आते हैं, क्लार्क्स, ताज, डी पेरिस में ठहरते हैं, गाड़ी में दो-चार दिन घूमते हैं और बाबतपुर (हवाईअड्डा) से ही लौट जाते हैं। दिल्ली से ही अपना फिट-फाट कर आते हैं! वे क्या जानें बनारस को?