बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

हिंदी ही तो हमारी ‘राष्ट्रभाषा’ है...

26 जनवरी से एक दिन पहले से ही टीवी पर 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' के नए वर्जन का शोर मचा था। प्रोमो देखकर मन में पूरा गीत देखने की उत्सुकता जगी थी। एक दिन बाद ही टीवी पर पूरा वर्जन देखा, एक-दो बार नहीं कई बार। यह पहले वाले से बेहतर है या नहीं, इस पर बहस कभी और... लेकिन एक बात जो दिमाग में आई वह यह है कि - 'मिले सुर' की रीढ़ हिंदी की न होती तो भी क्या यह इतना लोकप्रिय होता? जिस दिन नया 'मिले सुर' रिलीज हुआ, एक नामी टीवी न्यूज़ चैनल पर ऐंकर को कहते सुना, ‘मुझे तीन भाषाएं आती हैं – अंग्रेजी, हिंदी और मैथिली लेकिन जब मैं छोटा था तब 14 भाषाओं में गा लेता था। यह कमाल था 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' का जिसने सही मायने में हर देशवासी को अलग-अलग हिस्सों की भाषा से जोड़ा।’ 'जन गण मन' और 'वंदे मातरम' के बाद शायद 'मिले सुर' ही ऐसा गीत है जिसे सुनते ही हर भारतीय के हृदय के तार बज उठते हैं। लता मंगेशकर द्वारा गाया अमर गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों' हर व्यक्ति को भावुक कर देता है जबकि नई पीढ़ी का ऐंथम 'जय हो' दिल में एक अनोखा उत्साह भर देता है। लेकिन 'मिले सुर' का जो असर हम पर होता है वह अद्भुत है। यह संभव हुआ है हिंदी भाषा की सबको साथ रखने, सबके साथ मिल-जुलकर चलने की विशेषता की वजह से। आजकल सबसे ज्यादा लोकप्रिय टीवी सीरियलों में भी पृष्ठभूमि गुजराती हो या मराठी या फिर पजाबी, हरियाणवी, मूल भाषा हिंदी ही होती है। उदाहरण के लिए बालिका वधू, केसरिया बालम आवो म्हारे देस, बैरी पिया, अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, न आना इस देस लाडो और तारक मेहता का उल्टा चश्मा। इन सब सीरियलों में दाल हिंदी की ही है बस छौंक स्थानीय भाषा की लगा दी गई है। पुराने खयालात के लोग हिंदी में अंग्रेजी की घुसपैठ के खिलाफ रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजी के नए-नए शब्द हमारी बोलचाल में जुड़ते जा रहे हैं। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में तो हिंदी अंग्रेजी की मिलीजुली खिचड़ी यानी हिंग्लिश ही मुख्य भाषा बनती जा रही है। जैसे बाकी दुनिया के साथ जुड़ने का हमारा माध्यम अंग्रेजी है वैसे अपने देश में अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ने का माध्यम हिंदी है। कोई कितना भी विरोध करे दूसरी भाषाओं के साथ हिंदी का मेलजोल और मजबूत होता जाएगा। जैसे हैदराबाद की हैदराबादी हिंदी और मुंबई की मुंबइया हिंदी। दरअसल हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा है। जबर्दस्ती वाली नहीं, आधिकारिक नहीं, लेकिन व्यावहारिक और सामयिक और इससे ज्यादा कुछ होने की जरूरत भी नहीं है। चेन्नै जाइए या भुवनेश्वर या फि कोल्हापुर। हिंदी में किसी से कुछ पूछिए, अगला व्यक्ति समझ जाता है कि आप क्या कहना चाहते हैं। जवाब भी टूटी-फूटी हिंदी में आ जाता है। हिंदी किसी स्थानीय भाषा की दुश्मन नहीं। हर भाषा का अपना समृद्ध इतिहास और महत्व है। महाराष्ट्र में भी झगड़ा हिंदी को लेकर नहीं है हिंदीभाषियों को लेकर है। लेकिन उनको निशाना बनाने के लिए हिंदी की ही आड़ ली जा रही है। मराठी सीखो, मराठी बोलो... मराठी या किसी और भाषा को सीखने में आखिर कितना वक्त लगता है? ज्यादा से ज्यादा कुछ हफ्ते। मैं कुछ ही दिनों के लिए पुणे गया तो काइ झाला (क्या हाल है), इकड़े बसा (यहां बैठो), मी जातो (मैं जा रहा हूं), थंबु नका (रुकना मना है), मला काए पाइज़े (मैं क्या करूं) तुझे नाव काय आहे? (तुम्हारा नाम क्या है) जैसे शब्द सीख गया। नई भाषा सीखना और उसका इस्तेमाल करना कोई शर्म की बात नहीं है। इससे दिमाग की भी कसरत होती है। लोग जब भी नई जगह जाते हैं तो वहां की बातें सीखते हैं और इसके लिए इतना जोर-जबर्दस्ती करने की जरूरत नहीं होती। मुझे लगता है हिंदीभाषी हो या कोई और भाषी, सबसे जरूरी है मृदुभाषी होना। नवभारतटाइम्स.कॉम पर कॉमेंट करने वाले कई मराठी पाठक तमिलनाडु की दुहाई देते हैं। असल में वे बीते जमाने की बात कर रहे हैं। मेरा अपना अनुभव है कि दक्षिण भारत में हिंदी बोलने वालों से किसी को एतराज नहीं है। आप हिंदी में बात करेंगे तो वे भी हिंदी में बात करने की कोशिश करते हैं। लेकिन भाषा के आधार पर कई जगहों पर कुछ लोग कटुता फैलाने की कोशिशें कर रहे हैं। पुणे में कई घरों के आगे लिखा देखा, 'कुत्रेपासून सवधा रहा।' समझदार को इशारा काफी...

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