गुरुवार, 4 मार्च 2010

हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं

कुछ अरसा पहले शिमला में हिंदी पर हुई एक वर्कशॉप में एक दिलचस्प फिकरा सुनने को मिला था कि 'आखिर हिंदी का इस्लाम कब तक खतरे में रहेगा।' इस अनोखी टिप्पणी की गूंज अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि इस बीच हिंदी पर एक और हंगामा हुआ। मराठी की राजनीति के जरिए उठे इस विवाद की प्रतिक्रिया में एक विचित्र सुझाव आया कि क्यों न देश में हिंदी पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए। यह सुझाव देने वालों को शायद यह नहीं पता था कि अपनी स्वाभाविक विकास प्रक्रिया में ही हिंदी पूरे देश के लिए लगभग अनिवार्य होती जा रही है। हिंदी के इस्लाम वाली बात भले ही मुहावरे में कही गई थी, पर पिछले कुछ संदर्भों पर नजर डालने से इस मुहावरे की जमीन का पता चलता है। उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में हिंदी एक खास तरह की राजनीति के तहत हिंदू भाषा के रूप में बदनाम हो गई थी, पर यही भाषा अपनी पहुंच और इस्तेमाल की सुविधा के कारण लंबे अरसे से इस्लाम के प्रचार के लिए इस्तेमाल हो रही है। पिछले दिनों देवबंद द्वारा जारी किए गए फतवों के बारे में एक तथ्य हिंदी से जुड़ा भी है जिस पर शायद किसी की नजर नहीं गई। आम समझ के मुताबिक किसी इस्लामिक धार्मिक संगठन का फतवा उर्दू में होना चाहिए। लेकिन आश्चर्य की बात है कि ये सभी फतवे हिंदी में लिखे गए हैं। इनकी हिंदी का रूप अरबी-फारसी के असर वाली हिंदुस्तानी का न होकर आजकल चलन में आ चुकी कोर्स की किताबों वाली हिंदी का है, जिसमें गुसलखाने को स्नानघर और हाजत को शौचालय कहा जाता है। इतना ही नहीं, एक लंबे अरसे से मस्जिदों में नमाजियों के लिए लिखी जाने वाली हिदायतों और कब्रिस्तानों में कब्रों के ऊपर लिखी जाने वाली इबारतों में इसी तरह की हिंदी का इस्तेमाल बढ़ रहा है। पहली नजर में लगता है कि यह हिंदी के प्रसार का एकदम नया क्षेत्र है। लेकिन बात कुछ और है। इतिहास बताता है कि मुसलमानों में धार्मिक संदेश देने की भाषा के रूप में तबलीगी जमात हिंदी का शुरू से ही इस्तेमाल कर रही है और कुरान-ए-पाक का हिंदी तरजुमा श्रद्धालुओं के बीच सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब है। तमिलनाडु कभी हिंदी विरोध का अड्डा हुआ करता था। पर 1965 के हिंदी विरोधी दंगों में वहां हुई हिंसा और आगजनी का एक तथ्य बहुत कम लोगों को मालूम है कि उस दौरान दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचारिणी सभाओं के दफ्तरों और अन्य संपत्तियों पर एक भी हमला नहीं हुआ था। लोग द्रमुक सरकार के मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादुरै का यह वक्तव्य भी भूल गए हैं कि वे और उनकी सरकार हिंदी प्रचार के खिलाफ नहीं हैं। उन्हें ऐतराज इस भाषा को उन पर थोपे जाने से है। अन्नादुरै का कहना था कि संपर्क भाषा कौन सी होगी, यह बात केंद्र सरकार तय नहीं कर सकती। यह काम इतिहास की ताकतों पर छोड़ना चाहिए। दरअसल, इतिहास की ताकतें अब यह फैसला कर चुकी हैं। दो साल पहले 45 प्रमुख गैर-हिंदीभाषी बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन में यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर आई कि केवल हिंदी ही देश की संपर्क भाषा बनने की हैसियत रखती है। कारण वही है : विभिन्न रूपों में रमने और पनपने की उसकी क्षमता। आज दक्षिण भारत में हिंदी उस दौर के मुकाबले कहीं ज्यादा सीखी जा रही है, जिस दौर में वहां बाकायदा राष्ट्रवादी परियोजना के रूप में उसका प्रचार किया जाता था। आज हिंदी का प्रचार वहां जरूरत से उपजी मांग की वजह से है। जिन्हें अखिल भारतीय प्रॉडक्ट लाइन में धंधा करना है, उन्हें हिंदी बोलना और समझना तो सीखना ही होगा। युवा और महत्त्वाकांक्षी तमिल पीढ़ी को ऐसा करने से द्रमुक वाले भी नहीं रोक सकते। आज हालत यह है कि अगर आप केवल अंग्रेजी बोलते हैं तो चेन्नई में रास्ता नहीं पूछ पाएंगे, लेकिन अगर हिंदी आती है तो रास्ता भूलने का कोई डर नहीं है। इस बदलाव का कारण है हिंदी द्वारा अपनी एकरूपता की जकड़ से निकल जाना। अब हिंदी के जीवन और विकास ठेका केवल साहित्यिक गोष्ठियों में रुक-रुक कर बोली जाने वाली आलोचना की भाषा के पास नहीं रह गया है। यह जिम्मेदारी अब बहुत तरह की हिंदियों के विविध कंधों पर है। आज टीवी की हिंदी अलग तरह की है, प्रिंट मीडिया से उसका मेल नहीं किया जा सकता। वह बोलचाल के मुहावरे वाली इंस्टेंट हिंदी है जिसे फौरन बोलना पड़ता है। एफएम चैनल एकदम नए तरह की हिंदी लेकर आए हैं जिसमें मजाक, मिमिक्री और पैरोडी का बोलबाला है। फिल्मों की हिंदी भी बदल चुकी है क्योंकि उसे पता चल गया है कि नए पॉप कल्चर के मुताबिक अपने-आप को ढालना उसके लिए लाजमी हो चुका है। पिछले 30 साल में वह हिंदी जो एक थी, अब किस्म-किस्म की हिंदियों में पनप रही है। एक हिंदी की अनेकता का यह सिलसिला 80 के दशक में शुरू हुआ था, जब पत्रकारिता की दुनिया साहित्य से अलग होकर एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित हुई थी। उसके बाद से पत्रकार होने के लिए साहित्यकार होना जरूरी नहीं रह गया। फिर टीवी के सीरियल लिखने के लिए भी साहित्यकार होने की शर्त मिट गई। 90 के दशक में रेडियो जॉकी बनने की ट्रेनिंग अलग से दी जाने लगी। हिंदी में टीवी एंकरिंग एक अलग आर्ट की तरह विकसित होने लगी। कारण अलग-अलग हैं और हर तरह की सामाजिक जरूरत को पूरा करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी भी अलग-अलग है। इस तरह हरेक पहचान की आवाज बनकर ही हिंदी एक जीवंत भाषा होने का कर्त्तव्य पूरा कर पाएगी। इस बदलाव पर हिंदी के शुद्धतावादी चाहे जितने ऐतराज करें, पर उनकी आपत्तियों पर अब कोई कान नहीं दे रहा है। हिंदी वक्त के साथ चल रही है, वे वक्त के खिलाफ खड़े हैं।
केन्द्र सरकार ने यह स्पष्ट किया है ​कि हिन्दी संविधान के अनुसार राष्ट्रभाषा नहीं है यह जानकारी केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय माकन ने श्री चतुर्वेदी कोएक लिखित प्रश्न के उत्तर में दी है ।

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