रविवार, 21 अक्तूबर 2012

हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं


भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर पैट्रिक फ्रेंच की किताब 'लिबर्टी और डेथ' का हिंदी अनुवाद हुआ है आजादी या मौत के नाम से। हिंदी अनुवाद के बारे में आए ट्वीट पर किसी ने चुटकी ली कि आजादी और मौत तो उर्दू के शब्द हैं हिंदी में 'स्वतंत्रता अथवा मृत्यु' हो सकता था, यह क्यों नहीं। इस ट्वीट के बाद कई सारे रोचक ट्वीट दूसरों ने किए। किसी ने 'आजादी' और 'मौत' को हिंदी का शब्द माना तो किसी ने इसे खारिज किया। कुल मिलाकर हिंदी और उर्दू को लेकर वहां दो खेमे में लोग बंटे दिखे।

इसके बाद इस संदर्भ में कुछ पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटों पर रोचक लेख और टिप्पणियां मिलीं। ट्वीट से शुरू हुई चुहल एक लंबी बहस में तब्दील होती दिखी। इसी बीच एक लेखक ने लिखा कि 1880-1884 के बीच लार्ड रिपन के समय जब फारसी लिपि वाली उर्दू को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया तो हिंदी वालों ने विरोध शुरू किया। बाद में अंग्रेजों ने दोनों भाषाओं को बराबरी का दर्जा दिया। पर इससे झगड़ा ख़त्म नहीं हुआ, बढ़ गया। लेखक के मुताबिक, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय हिंदी की नुमाइंदगी करने लगा जबकि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी उर्दू की। तब गांधी जी ने हिंदुस्तानी (ऐसी भाषा जिसमें हिंदी और उर्दू के प्रचलित शब्द हों) की वकालत की, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। 1950 में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया और उर्दू पीछे छूट गई। लेकिन लेखक के मुताबिक, अचानक उर्दू नए सिरे से प्रासंगिक हो रही है, लोग सीख रहे हैं। लेख का यह हिस्सा अंग्रेजी की 'बांटो और राज करो' की पुरानी नीति पर खड़ा दिखता है।

दरअसल, हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं। देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं। उन्हें जितना ज्यादा हिंदी में पढ़ा जा रहा है, उतना किसी दूसरी भाषा में नहीं। यह अलग बात है कि आज हिंदी और उर्दू बेहद विपन्न भाषा हो गई हैं। सारे अवसर अंग्रेजी लूट कर ले जा रही है। विपन्न इस अर्थ में कि हिंदी और उर्दू आज रोजगार की भाषा नहीं बन पाई। अंग्रेजी के लेखकों को एक लेख से जो रकम मिल जाती है, एक किताब से जो रॉयल्टी मिल जाती है, वह उन्हें अगले शोध के लिए और तफरीह का अवसर देती है। पर हिंदी के साथ ऐसा नहीं है। हिंदी के अधिकतर लेखकों की ज्यादातर ऊर्जा इसी बात में खप जाती है कि ज्यादा से ज्यादा लिखे और छपे ताकि घर चलाने का इंतजाम हो पाए। यह एक बड़ी वजह है कि अंग्रेजी का औसत लेखक अपने शोध के कारण बड़ा दिखने लग जाता है, जबकि हिंदी-उर्दू के बड़े लेखकों का नाम लेने वाला कोई नहीं।

हिंदी और उर्दू के बीच दूरी देखने वालों को यह भी देखने की जरूरत है कि आज की हिंदी में शब्दों को लेकर जितने प्रयोग हो रहे हैं, वह किस तरफ इशारा करते हैं। 'अफसोसनाक' के बजाय अधितकर लोग 'अफसोसजनक' लिख रहे हैं। 'तकलीफदेह' शब्द 'तकलीफदेय' में तब्दील होता दिख रहा है। 'प्रभात खबर' शब्द अब जुबां पर है। एतराज जताने वाले पूछ सकते हैं 'प्रभात समाचार' क्यों नहीं? पर सच मानिए कि यह तकलीफ की बात नहीं है। भाषा तभी आगे बढ़ती है जब वह अपनी जरूरत और वक्त के मुताबिक खुद को नए सांचे में ढालती है, वरना वह मृतप्राय हो जाएगी। हिंदी की प्रकृति ऐसी है कि वह बेहद संजीदगी से किसी भी भाषा के शब्द को सहज रूप से अपने में घोल लेती है और उसे जरूरत पड़ने पर हिंदी व्याकरण के हिसाब से नया रूप देती है, ढालती है

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