सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

बदलाव का विरोध वही करते हैं जो भाषा को अपनी जागीर समझते हैं,


हिंदी प्रेमियों को इसकी अपनी लिपि, अपने शब्द और इसके व्याकरण वगैरह पर एक हद से ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए। अगर हिंदी फैलती है, इसका दायरा व्यापक बनता है तो इन सब में बदलाव आना लाजिमी है। बदलाव का विरोध वही करते हैं जो भाषा को अपनी जागीर समझते हैं, जबकि कोई भाषा किसी की निजी संपत्ति नहीं बनी रह सकती। यह उन सब की साझा संपत्ति होती है, जो उससे जुड़े होते हैं। इस तर्क से सहमत होते हुए भी कुछ सवाल मेरे मन में रह गए थे। शायद इसलिए कि मैं भी उन लोगों में हूं, जो हिंदी के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। मगर हाल में मैंने एक अंग्रेजी दैनिक में जस्टिस मार्कंडेय काटजू की एक टिप्पणी देखी, जो कि नीचे प्रस्तुत है ।

कुछ समय पहले जस्टिस काटजू ने चेन्नै के किसी आयोजन में अपने भाषण में तमिलभाषियों के हिंदी सीखने की जरूरत पर बल दिया था। इसका वहां कुछ लोगों ने विरोध किया। जस्टिस काटजू ने उन्हीं विरोधियों के तर्कों का जवाब देने के लिए अखबार में यह टिप्पणी लिखी थी। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि वह तमिलनाडु ही नहीं, कहीं भी किसी पर भी हिंदी थोपने के खिलाफ हैं और नहीं मानते कि हिंदी भाषा तमिल से बेहतर है। वे हर भाषा का समान आदर करते हैं, किसी को ऊपर या नीचे नहीं रखते। उनके मुताबिक तमिल की हिंदी से तुलना नहीं की जा सकती इसलिए नहीं कि हिंदी बेहतर है, बल्कि इसलिए कि हिंदी कहीं ज्यादा व्यापक है। तमिल सिर्फ तमिलनाडु में बोली जाती है, जिसकी आबादी 7.2 करोड़ है। जबकि हिंदी न केवल हिंदी भाषी इलाकों में, बल्कि गैर हिंदी भाषी राज्यों में भी दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल होती है। हिंदी भाषी राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में 20 करोड़, बिहार में 8.2 करोड़, मध्य प्रदेश में 7.5 करोड़, राजस्थान में 6.9 करोड़, झारखंड में 2.7 करोड़, छत्तीसगढ़ में 2.6 करोड़, हरियाणा में 2.6 करोड़ और हिमाचल प्रदेश में 70 लाख लोग हिंदी बोलते हैं। अगर पंजाब, प. बंगाल और असम जैसे गैर हिंदी भाषी राज्यों के हिंदीभाषियों को जोड़ लिया जाए, तो संख्या तमिल भाषियों के मुकाबले 15 गुनी ज्यादा हो जाती है। तमिल एक क्षेत्रीय भाषा है जबकि हिंदी राष्ट्रभाषा है और इसकी वजह यह नहीं कि हिंदी तमिल के मुकाबले बेहतर है। इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं। 

कहते हैं इंग्लिश पूरे देश की संपर्क भाषा है, मगर नहीं। इंग्लिश एलीट तबके की संपर्क भाषा हो सकती है, आम लोगों की नहीं। जस्टिस काटजू ने इस संदर्भ में एक घटना का जिक्र किया है। जब वह मद्रास हाई कोर्ट के जज थे, एक दिन उन्होंने एक दुकानदार को फोन पर हिंदी में बात करते सुना। उसके फोन रखने पर जस्टिस काटजू ने तमिल में उससे पूछा कि वह इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेता है? दुकानदार ने जवाब दिया, नेता कहते हैं हमें हिंदी नहीं चाहिए पर हमें बिजनस करना है, इसलिए मैंने हिंदी सीख ली है। जस्टिस काटजू का यह अनुभव पढ़कर मुझे भी लगता है कि तमिलनाडु के हिंदी विरोधी और इलाहाबाद, वाराणसी के विशुद्ध हिंदी का आग्रह पालने वाले हिंदी समर्थक अनजाने में एक ही पाले में खड़े हैं। अगर तमिलनाडु के लोग हिंदी को अपनाएंगे तो क्या वे उसमें तमिल के प्रचलित शब्द नहीं डालेंगे? क्या उनका प्रयोग और उच्चारण वगैरह बिलकुल वैसा ही होगा, जैसा उत्तर प्रदेश या बिहार के लोगों का होता है? साफ है कि ऐसा नहीं होगा। वह एक नए तरह की हिंदी होगी, जो शायद यूपी और एमपी के लोगों को थोड़ी अजीब लगे। जैसी कि मुंबइया हिंदी लगती है, लेकिन वह होगी हिंदी ही। क्या हम देश-विदेश में जन्म ले रही, फल-फूल रही ऐसी तमाम हिंदियों को अपना मानने की उदारता नहीं दिखा सकते?

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