सोमवार, 16 नवंबर 2009

हिंदी के विकास से ज्यादा चिंता आज हिंदी को बचाने के बारे में दिखाई देती है।

आजाद भारत के एक सबसे महत्वाकांक्षी मिशन में गहरी दरारें पड़ चुकी हैं। यह मिशन था पूरे देश की एक राष्ट्रभाषा के विकास का। संवैधानिक रूप से न सही भावनात्मक रूप से ही सही, हिंदी में एक राष्ट्रभाषा बनने की भरपूर संभावनाएं देखी गई थीं। महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल, बंगाल, उड़ीसा और पंजाब सभी प्रदेशों के नेताओं में इसे लेकर आम सहमति थी। आज नजारा पूरी तरह बदला हुआ है। हिंदी के विकास से ज्यादा चिंता आज हिंदी को बचाने के बारे में दिखाई देती है। महाराष्ट्र या तमिलनाडु ही नहीं, खुद हिंदी क्षेत्र में हिंदी सहमी हुई है। अंग्रेजी के आतंक से सिमटी-सकुचाई हिंदी से अब उर्दू ही नहीं, भोजपुरी और मैथिली वाले भी दूरी बनाने की कोशिश करते नजर आने लगे हैं। मोटे तौर पर पिछले साठ सालों में हिंदी के विकास की तीन धाराएं देखने को मिलती हैं। एक तो वह जो हिंदी विभागों में पलती रही है। यह साहित्यिक और संस्कृतनिष्ठ हिंदी है। विभाग के बाहर आकर इस हिंदी की सांस फूलने लगती है। इस हिंदी के वक्ता को शब्द नहीं मिलते और श्रोता को अर्थ समझ में नहीं आता। एक और हिंदी है। मीडिया और बाजार के मंच पर सवार यह हिंदी इंडियन आइडल बनकर पुरस्कार और प्यार तो पा रही है पर बाजार के इस मंच ने इसे एक विशेषण भी दिया है - बाजारू हिंदी। भाषा को लेकर गंभीर लोग इसे बोलने में अपनी हेठी समझते हैं। तीसरी है सरकारी हिंदी। यह सरकार के अपने विभागों द्वारा रचे गए शब्दकोषों से निकलकर सरकारी कागजों पर सिमटकर रह गई है। इससे बाहर इसके वक्ताओं और श्रोताओं, दोनों का टोटा है। हिंदी का यह खंडित विकास गवाह है कि हिंदी के विकास के लिए की गई कोशिशों में समग्र दृष्टि का अभाव रहा है। प्राय: हिंदी को वर्चस्व के राजनीतिक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया। इसके लिए जिस सांस्कृतिक श्रम और कोशिश की जरूरत थी, वह काम नहीं किया गया। हिंदी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है- यह तर्क देने वाले भूल गए कि बहुमत के आधार पर सरकार भले ही बन जाए, पर भाषाएं नहीं बनतीं। भाषा का काम समाज में ज्ञान का संरक्षण, संवर्धन और संप्रेषण होता है। इसके लिए राजनीतिक आधार और संख्या बल से ज्यादा जरूरी होता है सांस्कृतिक श्रम और मनोबल। हिंदी समाज में न तो नए ज्ञान-विज्ञान को हिंदी में समेट लेने की आकुलता दिखी और न ही अशिक्षितों को साक्षर बनाकर अपनी सांस्कृतिक स्वीकार्यता बढ़ाने की ललक। आज भी हिंदी प्रदेशों में साक्षरता दर देश में सबसे कम है। इसलिए कहने वाले इसे अनपढ़ों की भाषा कहने से भी बाज नहीं आते। और इतिहास गवाह है कि त्रिभाषा फॉर्म्युला अपनाने में सबसे ज्यादा बेईमानी भी हिंदी वालों ने ही दिखाई। नतीजा हुआ कि हिंदी के राष्ट्रभाषा बन जाने का दावा राजनीतिक मुहावरे में ही व्यक्त होता रहा। इस प्रकार राष्ट्रभाषा का मुद्दा वर्चस्व की लड़ाई की तरह प्रकट हुआ। इसलिए पूरे देश में इसकी प्रतिक्रिया भी राजनीतिक मुहावरे में ही हुई और आज भी हो रही है। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई ने जो हिंदी के लिए जो जगह बनाई थी, हिंदी उसको भर नहीं सकी। अपनी वैधता के लिए हिंदी वालों ने संविधान की दुहाई देने और हिंदी के राष्ट्रभाषा होने के अंधविश्वास को फैलाने के अलावा कुछ नहीं किया। हिंदी के विकास के लिए श्रम के नाम पर जो कुछ किया गया, वह शब्दकोष और पारिभाषिक शब्दकोष के निर्माण से आगे आज तक नहीं जा पाया है। और खुद हिंदी समाज में इन शब्दकोषों की स्वीकार्यता नहीं है। इस प्रकार बनी हिंदी रघुवीरी हिंदी नाम से मजाक-मखौल का विषय बन गई है। हिंदी समाज आज तक इस भुलावे में जी रहा है (खुद भारत सरकार का राजभाषा विभाग उसे उस मुगालते में रखे हुए है) कि राष्ट्रभाषा जैसा कोई संवैधानिक पद है और इस सम्मान पर हिंदी का जन्मजात हक है और यह उसे मिलना ही चाहिए। जन्मजात हक की इस मानसिकता से संचालित हिंदी के मठाधीश आज तक यह नहीं समझ सके हैं कि आज के आधुनिक-लोकतांत्रिक युग में हर सत्ता को, चाहे वह राजनीतिक हो या शैक्षिक हो या फिर भाषाई, सभी को अपनी वैधता हासिल करनी होती है और बार-बार हासिल करनी होती है। इस वैधता का अंतिम स्त्रोत जनता खुद होती है। आज हिंदी की वैधता के दूसरे स्त्रोत भी सूख रहे हैं। वह भी खुद हिंदी वालों के कारण। हिंदी की जो तीन धाराएं पहचानी गई हैं, उनमें तालमेल की कोई कोशिश तक देखने को नहीं मिलती है। बल्कि इन धाराओं से जुड़े लोग एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने का कोई मौका भी नहीं चूकते। साहित्यिक हिंदी पर आरोप है कि वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी है और उससे आलोचकों को हिंदूवाद की दकियानूसी बू आती है। इसी तरह बाजार की अंग्रेजी मिश्रित हिंदी पर आरोप है कि वह बाजारू हो चली है। उधर सरकारी हिंदी को न किसी के आरोपों की परवाह है और न किसी की तारीफ की। महज शब्दकोष गढ़ने वाली इन संस्थाओं को तो यह परवाह भी नहीं है कि वे कम से कम अपने शब्दकोषों का ऑनलाइन उपलब्ध तो करा दें। इससे शायद उनके कुछ नए शब्द प्रचलन में आ जाएं! वैसे यह हिंदी पर बाजारू होने का आरोप काफी रोचक है। यह ठेठ हिंदी वालों का आरोप है। यह एक विडंबना है कि बाजार और कैंप की भाषा के रूप में विकसित हुई उर्दू को उर्दू वालों ने कभी इस तरह नहीं धिक्कारा, लेकिन कुछ हिंदी वाले हिंदी को बाजारू कह कर जरूर तिरस्कृत करते हैं। ऐसा आरोप लगाने वालों को यह जानना चाहिए कि ज्ञान कक्ष में बैठ कर साहित्य रचने वालों की भाषा जल्दी ही किताबों में दम तोड़ देती है, लेकिन बाजारों में फलने-फूलने वाली भाषा सबसे ज्यादा विकसित होती है। इसलिए हिंदी वालों को हिंदी की इस दशा के लिए दूसरों को कोसने की बजाय इस पर गौर करना चाहिए कि एमएनएस कार्यकर्ताओं का गुस्सा हिंदी पर ही क्यों उतरा? अंग्रेजी में शपथ लेने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई। कहीं हमारी सुस्ती की वजह से ही तो देश के लिए एक राष्ट्रभाषा का सपना यूं मुक्कों और घूसों के नीचे दम नहीं तोड़ रहा है। हिंदी अगर पढे़-लिखों की भाषा होती, तब भी क्या उसे बोलने वाले यूं अपमानित होते?

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