रविवार, 7 जून 2009

हिन्दी कर्मियों की सेवा संबंधी भर्ती नियमों में संशोधन की आवश्यकता है

टेलीविजन पर एक कार्यक्रम देख कर मन में शंका उत्पन्न होने लगी कि वाकई इस देश की भाषा क्या है । इस कार्यक्रम में हंस के संपादक श्री राजेन्द्र यादव का मानना था कि भाषा पर अब सरकार हावी है अतः इस समय देश में हिन्दी की बात करना वेमानी होगी । हालांकि यह बताया जा रहा था कि आज भी देश में हिन्दी अखबारों की सबसे ज्यादा बिक्री है । लोग हिन्दी के अखबार पढते है और सबसे ज्यादा लोग हिन्दी बोलते और समझते है । यहीं पर डॉ देवेन्द्र जी संस्कृत की हिमायत कर रहे थे उनका मानना था कि यदि सरकार १९४७ में ही संस्कृत को देश की राजभाषा बना देती तो आज कहीं भी विरोध नहीं होता और सारे देश में अपनी भाषा हो जाती । इसी क्रम में अन्य लोगो का मानना था कि हिन्दी में इंजीरिग की पुस्तकें भी उपलब्ध नहीं है तो यह किस आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी देश की राजभाषा के रुप में स्वीकार्य है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या वाकई देश की राजभाषा अब हिन्दी नहीं हो सकती, यदि नही हो सकती तो क्यों न इसे संविधान संशोधन करके देश की जनता के समक्ष किसी एक भाषा को निरूपित किया जाए । हमारा मानना है कि सरकारी ढुलमुल रवैये के कारण और मंत्रालयों में बैठे उन हिन्दी पंडितों के कारण , जिन्हे कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है, आज हिन्दी की यह दशा हो रहीं है । आज इस बात पर एक बहस की आवश्यकता है और हिन्दी कर्मियों की सेवा संबंधी भर्ती नियमों में संशोधन की आवश्यकता है जिससे यह भाषा देश की आधुनिक आवश्यकताओं को पूरा कर सके ।

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