शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर और कथाकार विभूति नारायण - बातचीत के प्रमुख अंश:

मेरे लिए यह एक नई दुनिया थी। यद्यपि यह विश्वविद्यालय हिंदी भाषा और साहित्य से जुड़ा था और मैं हिंदी भाषा से प्यार करने वाला एक अदना लेखक था। इसके बावजूद सांस्थानिक पेचीदगियां तो होती ही हैं। शुरू में कुछ दिक्कतें तो जरूर हुईं। आकादमिक जगत के नियमों से निपटने के लिये मैं अपने साथ लखनऊ युनिवसिर्टी के प्रोफेसर नदीम हसनैन को प्रो वाइस चांसलर के रूप में लाया। इतना ही कह सकता हूं कि मैंने अपने कार्यकाल को भरपूर एंजॉय किया। मुझे बिना बिजली, पानी, सीवर, छात्रावासों और कक्षाओं वाले पांच टीले मिले थे, जिन पर आज गतिविधियों से भरपूर एक आवासीय विश्वविद्यालय फलता-फूलता देखा जा सकता है। मुझे संतोष है कि मैं अपनी भाषा के लिए कुछ कर सका।

यह विश्वविद्यालय कई अर्थों में विशिष्ट है। यह हिंदी को एक विश्व भाषा बनने के लिए आवश्यक उपकरण विकसित करने हेतु स्थापित होने वाला पहला विश्वविद्यालय है। शायद इसीलिए केंद्रीय विश्वविद्यालयों में केवल इसके नाम के साथ अंतरराष्ट्रीय शब्द जुड़ा है। महात्मा गांधी के आदर्शों और सपनों पर आधारित पाठ्यक्रमों जैसे शांति एवं अहिंसा, स्त्री अध्ययन तथा दलित एवं जनजाति अध्ययन जैसे पाठ्यक्रम प्रारंभ से ही यहां की शैक्षणिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण बने रहे। बाद में विकसित हुए नए पाठ्यक्रमों में भी इस बात का ध्यान रखा गया है कि यह अपनी मूल अवधारणा से भटकने न पाए।
केवल कहानी-कविता पढ़ाकर किसी भाषा का कल्याण नहीं हो सकता। एक विश्वभाषा बनने में हिंदी तभी समर्थ होगी जब उच्चतर ज्ञान के अनुशासनों को हिंदी माध्यम से न सिर्फ पढ़ाया जाए बल्कि हिंदी में इसके लिए आवश्यक स्तरीय पाठ्य सामग्री भी तैयार की जाए। इसी योजना के तहत मैंने संचयिता या साहित्य से जुड़ी पुस्तकों के प्रकाशन से अधिक समाजशास्त्रीय सामग्री के प्रकाशन पर जोर दिया। यहां बड़े पैमाने पर अनेक अनुशासनों की पाठ्य सामग्री तैयार हो रही है। मुझे आशा है कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कई अनुशासनों में हम यह लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे और तेरहवीं पंचवर्षीय योजना में यहां मेडिसिन, इंजीनियरिंग और कानून जैसे क्षेत्रों में हिंदी माध्यम से पढ़ने-पढ़ाने के बारे में योजनाएं बन सकती हैं।
देखिए, इस तथ्य को हमें सबसे पहले स्वीकार करना होगा कि भारत में शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य एक व्हाइट कॉलर जॉब हासिल करना है। आपको कोई विरला ही छात्र ऐसा मिलेगा जो विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति के लिए शिक्षा संस्थानों में आता है। इसलिए यह बहुत स्वाभाविक है कि माध्यमिक शिक्षा समाप्त करते ही छात्र एमबीए, इंजीनियरिंग या मेडिसिन जैसे क्षेत्रों की तरफ भागते हैं जहां कहीं अधिक वेतन वाले रोजगार मौजूद हैं । बचे खुचे छात्र ही अब समाज विज्ञान और प्योर साइंस जैसे क्षेत्रों में आते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस दिशा में तब तक अधिक कुछ किया जा सकता है जब तक भारतीय समाज की संरचना में कोई बुनियादी परिवर्तन न आए।
जब हमने हिंदी माध्यम से एमबीए पढ़ाने का फैसला लिया तब यह शंका बहुत से लोगों के मन में थी कि हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों को रोजगार कहां मिलेगा। पर नतीजा बहुत उत्साहजनक रहा। हमें यह याद रखना चाहिए कि हिंदी का सबसे बड़ा संबल आज का बाजार है। भारत का मध्य वर्ग यूरोप की कुल आबादी से बड़ा है और यह एक विशाल उपभोक्ता समूह है। उपभोक्ताओं का यह समूह अब सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि टायर टू-थ्री शहरों से होता हुआ कस्बों और गांवों तक फैल गया है। दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारतीय बाजारों में अपना हिस्सा तलाश रहीं हैं। उनके बिजनेस प्रतिनिधियों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे उपभोक्ताओं से उनकी भाषा में संवाद करें। और इसीलिए उनके लिए अब यह जरूरी है वे कम से कम एक भारतीय भाषा जानें। जाहिर है कि हिंदी इस स्थिति में पहली प्राथमिकता होगी क्योंकि आधा भारत उसे बोलता है। और शेष में भी आप इस भाषा के माध्यम से संवाद कायम कर सकते हैं। शायद यही कारण है कि हमारे विश्वविद्यालय में बड़ी संख्या में चीन तथा विभिन्न यूरोपीय देशों से छात्र हिंदी पढ़ने आ रहें हैं। हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों को बहुराष्ट्रीय और देशी कंपनियां ग्रामीण क्षेत्रों में अपने विस्तार के लिए प्रयोग कर रही हैं।

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