गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

अलग पहचान बनाई गीतकार इरशाद कामिल ने

गीतकार इरशाद कामिल ने 'जब वी मेट', 'लव आज कल' और 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसी फिल्मों के गीत लिखकर अपनी एक अलग पहचान बनाई है। वह पुराने गानों को सही ट्रीटमेंट के साथ रिवाइव करने के पक्षधर हैं। पिछले दिनों राइटर्स और प्रड्यूसर्स असोसिएशन में कॉपीराइट-रॉयल्टी मुद्दे पर हुए विवाद और फिल्म संगीत के विभिन्न आयामों पर उनसे दुर्गेश सिंह की बातचीत: म्यूजिक से जुड़े लोगों को कॉपीराइट और रॉयल्टी मिले, इस पर फिल्म प्रड्यूसर्स असोसिएशन के लोगों में नाराजगी क्यों है? दरअसल प्रड्यूसर्स को मामले की बारीकी का पता ही नहीं चल पा रहा है। संगीत से जुड़े सभी तकनीशियनों का बहुत सारा पैसा फंसा रहता है, जिसका फायदा निर्माताओं को भी नहीं मिलता। अब निर्माताओं और संगीत कंपनियों को लग रहा है कि उनकी कमाई हमको मिलने वाली है। पहले एक बार फिल्म का संगीत निर्माता के पास जाने के बाद हमें एक भी पैसा नहीं मिलता था लेकिन इस ऐक्ट के पारित होने के बाद जितने भी माध्यमों के जरिए संगीत गूंजेगा, सबको अपनी कमाई का कुछ न कुछ हिस्सा गीतकार, संगीतकार और उसकी पूरी टीम को देना होगा। एफएम रेडियो से लेकर सभी आधुनिक माध्यम इसके दायरे में आएंगे। हर दौर में प्लैगेरिज्म एक मुद्दा रहा है। विदेशी धुनों को चुराकर हम उसमें अपना टैग लगा देते हैं। इस दौर के सबसे सफल संगीतकार प्रीतम पर भी यह आरोप लगते रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री में क्रिएटिविटी पर कॉमर्स हावी हो गई है। और यह किसी से छिपा भी नहीं है। फिल्म निर्माता हमसे हिट धुनें चाहते हैं। जब लोग उन्हीं हिट धुनों को चोरी किए जाने के बावजूद खूब पसंद करते हैं तो फिर उस पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है? अस्सी के दशक से लेकर नब्बे के दशक और आज के दौर में सर्वाधिक हिट धुनें विवादों में ही रही हैं। संगीत के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने क्या संगीत की आत्मा खत्म कर दी है? आज गिनती के नए गाने हैं जिन्हें गुनगुनाने का मन करता है... देखिए, अकेले में संगीत सुनता या गुनगुनाता हुआ एक आदमी प्राय: अतीत में ही जाना चाहता है। हो सकता है कि बीस सालों बाद आज के ही गाने गुनगुनाने को मिलें। पिछला इंसान आज के इंसान से कहीं बेहतर और ईमानदार था। शंकर-जयकिशन की तर्ज पर अगर हम आज लाइव आरकेस्ट्रा के लिए पचास-साठ लोगों की सेवाएं लेंगे तो एक साल में गिनती की फिल्मों का संगीत तैयार होगा। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आज की जरूरत हैं। पुराने गानों को रिवाइव करने का चलन शुरू हो गया है। उस बारे में क्या कहना है? मेरा स्पष्ट तौर पर कहना है कि आप पुराने गीतों की आत्मा को जिंदा नहीं रख सकते तो उसको खत्म करने का आपको कोई अधिकार नहीं है। 'दम मारो दम' गीत के निर्माता दुर्भाग्य से ऐसा नहीं कर पाए हैं। आर डी दा के संगीत के साथ एक बुरा ट्रीटमेंट है यह। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि पुराने गानों को रिवाइव ही नहीं करना चाहिए। उनकी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए रिवाइव करना जरूरी भी है लेकिन सही ट्रीटमेंट के साथ। कैसेट, सीडी, डीवीडी और अब ऑनलाइन म्यूजिक रिलीज हो रहा है। कुछ संगीतकारों ने इंटरनेट पर म्यूजिक जारी कर उसके अधिकार तक अपने पास रखे हैं... तमाम माध्यमों के आने से संगीत की पहुंच बढ़ी हैं। आज हमारा कोई रिश्तेदार अमेरिका में तो डीवीडी या वीसीडी नहीं खरीद सकता। पर वह ऑनलाइन क्लिक करके गाने सुन सकता है। विशेष रूप से एफएम ने संगीत के क्षेत्र में क्रांति ही कर दी है। पॉकेट एफएम के आने के बाद से तो बच्चा-बच्चा भी संगीत सुन रहा है। जिन संगीतकारों ने अपना म्यूजिक ऑनलाइन जारी किया है, वे निश्चित तौर पर अपने मेहनताने को लेकर सशंकित थे। कॉपीराइट और रॉयल्टी ऐक्ट इसी आशंका के खात्मे की बात करता है। लोक संगीत की इतनी बड़ी धरोहर होने के बाद भी हम कब तक पाश्चात्य संगीत का सहारा लेते रहेंगे? अब लोक संगीत को महत्व दिया जाने लगा है। हाल के दिनों में आया सबसे हिट आइटम सांग एक लोकगीत से ही लिया गया है। लेकिन हमें जरूरत है कि लोक संगीत का सही तरीके से प्रयोग करें। पंजाब के लोकगीत हमारी फिल्मों में शुरू से ही बहुतायत में छाए रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार के लोकगीतों को आधार बनाकर संगीत का निर्माण किया जाना अपने आप में बहुत सुखद है। हां, एक अहम बात यह भी है कि हमारी युवा पीढ़ी पर लोकगीतों का असर तभी होगा जब फिल्म संगीत के जरिए उन्हें सामने लाया जाएगा। विशुद्ध लोकगीत सुनना मेट्रो के युवाओं को शायद ही भाए।

कोई टिप्पणी नहीं: