मंगलवार, 30 नवंबर 2010
मराठी भाषा की फिल्मों को दिखाने और अखबारों को रखने के अलावा इस भाषा में अनाउंसमेंट
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
स्व. श्री बाबूराव विष्णु पराडकर जी के 125वीं जयंती को देश भर में जीवंत करने का प्रयास
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
मंदिर के जरिए दलित समुदाय के छात्रों को अंग्रेजी सीखने के लिए प्रेरित करना
उन्होंने बताया कि मंदिर के स्थापत्य को आधुनिक रूप देने के लिए उसकी दीवारों पर भौतिकी, रसायन और गणित के चिह्न तथा फार्मूले एवं अंग्रेजी भाषा में सूत्र वाक्य के साथ नीति वचन आदि उकेरे जाएंगे। यह पूछे जाने पर कि इस अनूठे मंदिर के निर्माण की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, प्रसाद ने बताया कि देश में आजादी के बाद जब राष्ट्रीय भाषा के चयन को लेकर बहस चल रही थी, तब संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने अंग्रेजी को यह दर्जा दिए जाने की जोरदार वकालत की थी। उन्होंने कहा कि हालांकि तब देश के अन्य अग्रणी नेता आम्बेडकर से सहमत नहीं हुए थे। मगर अब रोजी-रोटी के बाजार में जिस तरह अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य कायम हो गया है, उससे उनके तर्क सही सिद्ध हुए हैं। प्रसाद ने कहा, हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं से कोई विरोध नहीं है। मगर अब इस बात में तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश बची नहीं है कि जीवन में सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान आवश्यक है। संयोग से दलित समाज इसमें काफी पिछड़ा हुआ है और जीवन के तमाम क्षेत्रों में उनके पिछड़े रहने का यह भी एक बड़ा कारण है। उन्होंने कहा कि इस पहल का मकसद मंदिर के जरिए दलित समुदाय के छात्रों को अंग्रेजी सीखने के लिए प्रेरित करना है।
गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010
अच्छा अनुवाद बड़ी समस्या
भारतीय भाषाओं के साहित्य की सबसे बड़ी समस्या विश्व की बड़ी भाषाओं जैसे अंग्रेजी, जर्मन, स्पैनिश, इटैलियन आदि में उनका अनुवाद नहीं हो पाना है। जब तक इन भाषाओं में भारतीय साहित्य का अनुवाद नहीं होता है, तब तक इनके पाठकों तक हमारा साहित्य पहुंच नहीं सकता। नोबेल समिति के मेंबर भारतीय साहित्य के नाम पर केवल उन्हीं रचनाओं को जानते हैं जो अंग्रेजी में लिखी गई हैं। सलमान रुश्दी जैसे लेखकों ने एक बड़ा भ्रम यह फैलाया है कि भारतीय साहित्य अंग्रेजी में लिखी गई रचनाओं तक सीमित है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अंग्रेजी के अलावा जर्मन, स्पैनिश, फ्रेंच आदि ताकत की भाषाएं हैं। विश्व के जिन देशों में ये पढ़ी-बोली जाती हैं, उनका दुनिया में बहुत प्रभाव है। यह असर इन भाषाओं के साहित्य में दिखता है। अगर बाहरी मुल्क यह समझते हैं कि अंग्रेजी ही भारतीय भाषा है, तो यह मत बनाने में हमारा भी कुछ योगदान है। देखिए, कॉमनवेल्थ गेम्स जैसा बड़ा आयोजन हमने किया पर इससे जुड़े ज्यादा सूचनापट्ट अंग्रेजी में हैं, हिंदी में नहीं। इससे विदेशी यही समझेंगे कि भारत की भाषा अंग्रेजी है। नोबेल जैसे पुरस्कारों के लिए जो लॉबिंग होती है, भारत में उसका भी अभाव है। ये जटिल समस्याएं हैं। इन्हें हल करने के लिए सरकार को कोई प्रयास करना चाहिए। अन्यथा भारतीय लेखन के नाम पर रुश्दी जैसे लेखक ही नोबेल जीतेंगे, कोई और नहीं।
साहित्य का नोबेल पुरस्कार पेरू के स्पैनिश लेखक मारियो वर्गास लोसा को देने की घोषणा
इस वर्ष साहित्य का नोबेल पुरस्कार पेरू के स्पैनिश लेखक मारियो वर्गास लोसा को देने की घोषणा हुई है। लैटिन अमेरिका के इस चर्चित लेखक को नोबेल देने की हर कोई सराहना कर रहा है, पर भारत में ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि लंबे अरसे से भारतीय साहित्य को नोबेल के उपयुक्त क्यों नहीं माना जा रहा है? रवींद्र नाथ टैगोर के बाद करीब सौ साल की इस अवधि में किसी अन्य भारतीय साहित्यकार की रचनाएं इस काबिल नहीं मानी गईं कि उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता। अक्सर इसके लिए हमारे साहित्य का अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में समुचित अनुवाद नहीं हो पाने को समस्या बताया जाता है। कहा जाता है कि नोबेल के ज्यूरी मेंबर भारतीय भाषाओं के बारे में जरा भी नहीं जानते, लिहाजा हम साहित्य का नोबेल पाने में पिछड़ जाते हैं। पर यह जरूरी नहीं है कि दुनिया की जिन अन्य भाषाओं के साहित्यकारों को नोबेल मिला है, उनके साहित्य का हमेशा अच्छा अनुवाद होता रहा हो। पोलिश, नॉवेर्जियन, फिनिश और आइसलैंडिक भाषाओं का कोई उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय दखल नहीं है। यूगोस्लाविया की सर्बो-क्रोएशियन और इस्राइल की हिब्रू आदि भाषाओं में लिखी रचनाओं को इन देशों से बाहर कितने मुल्कों के लोग जानते होंगे? फिर भी इन भाषाओं के रचनाकार नोबेल पाते रहे हैं। अनुवाद से ज्यादा महत्वपूर्ण बात साहित्य की स्तरीयता और रचनाकार के नजरिए की है। भारतीय भाषाओं के लेखक ग्लोबल अपील वाले विषयों को अपनी रचनाओं में उठाने में असफल रहते हैं। समाज और संसार के बड़े सरोकारों के संदर्भ से उनमें अपेक्षित गहराई नहीं होना भी एक समस्या हो सकती है। सिर्फ अनुवाद को ही समस्या बताने की जगह अगर हमारी साहित्यकार बिरादरी इन दूसरे पहलुओं पर नजर डाले और अपनी रचनाओं में वैसा पैनापन ला सके, तो भारत साहित्य का नोबेल एक बार फिर पाने का गौरव हासिल कर सकता है।
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
मजहब और भाषा के नाम भड़काऊ बातों के माध्यम से लोगों में दरार पैदा करने की कोशिश
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
हम भारत के करोड़ों युवक - युवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं।
शनिवार, 18 सितंबर 2010
हिंदी पखवाड़ा
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
हिंदी दिवस
हिंदी दिवस मनाते हुए भाषा के प्रश्न पर आधुनिक भारत के स्वप्नदष्टा जवाहरलाल नेहरू के विचारों को याद करना समीचीन होगा। आजादी के प्रारंभिक वर्षों में राजभाषा के मुद्दे पर उत्तर और दक्षिण के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा दिखाई देने लगी थी। नेहरू ने इंग्लिश को देश की राजभाषा घोषित करने की दक्षिण के कुछ नेताओं की मांग दृढ़तापूर्वक खारिज कर दी, लेकिन इस बात का भी पूरा ध्यान रखा कि इस संवेदनशील मुद्दे पर दक्षिण की जनता की भावनाओं को कोई ठेस न पहुंचे। उन्होंने प्रमुख राजनीतिज्ञों, मंत्रियों, नेताओं और सरकारी अधिकारियों को लिखे अपने पत्रों में भाषा के सवाल पर अपना रुख साफ करते हुए जन-जन की भाषा के रूप में हिंदी की अहमियत समझाई और बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षित करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं के विकास पर जोर दिया था। पंडित नेहरू ने अपने बेबाक अंदाज में सरकारी भाषा की सरलता और अनुवाद की जटिलता पर भी चर्चा की और समय के साथ चलने के लिए विदेशी भाषाएं सीखने की जरूरत बताई। इस संबंध में नेहरू जी के पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
6 जनवरी 1958 को मदास में तमिल इनसाइक्लोपीडिया के पांचवें खंड के विमोचन के मौके पर अपने भाषण में नेहरू ने भाषा के सवाल का खासतौर से उल्लेख किया था। उन्होंने कहा, ''आज भारत में भाषा को लेकर बड़ी बहस चल रही है, लेकिन इस मुद्दे के सबसे खास हिस्से का समाधान हो चुका है। भले ही बारीकियां कुछ भी हों, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, भारत में यह बात स्थापित और स्वीकार हो चुकी है कि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा ही होनी चाहिए। यह तमिल, बांग्ला या गुजराती जैसी महान भाषाओं या अन्य भाषाओं पर ही नहीं, बल्कि पूवोर्त्तर भारत की आदिवासी बोलियों पर भी लागू होना चाहिए, जिनकी कोई लिखित भाषा नहीं है। व्यावहारिक तौर पर यह कठिन हो सकता है, लेकिन थ्योरी यह है कि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षित करने की व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए, भले ही बच्चा कहीं का भी हो। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के निर्णय के साथ ही भारत में एक बड़ा परिवर्तन आ गया है। इंग्लिश अभी तक शिक्षा का माध्यम थी, जबकि इस निर्णय से वह तत्काल दूसरी श्रेणी में आ जाती है।'' नेहरू जी ने 26 मार्च 1958 को सी. राजगोपालाचारी को भेजे अपने पत्र में लिखा कि ''भारत में वास्तविक और बुनियादी परिवर्तन इस बात से नहीं आ रहा है कि हिंदी धीरे-धीरे इंग्लिश का स्थान ले रही है, बल्कि इससे आ रहा है कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हो रहा है और उनका इस्तेमाल बढ़ रहा है। ये क्षेत्रीय भाषाएं शिक्षा का माध्यम बनेंगी और सरकारी कार्यों में इनका इस्तेमाल होगा। ये ही बुनियादी तौर पर इंग्लिश का स्थान लेंगी। यह अच्छा परिवर्तन है या नहीं, इसपर बहस हो सकती है लेकिन यह परिवर्तन अनिवार्य रूप से होगा और इससे भारत में इंग्लिश के दर्जे पर जबर्दस्त असर पडे़गा। भारत में इंग्लिश इसलिए फली-फूली क्योंकि वह शिक्षा के माध्यम के साथ-साथ हमारे सरकारी और सार्वजनिक कामकाज की भी भाषा थी। इंग्लिश और हिंदी के बीच कथित टकराव इस बडे़ सवाल का एक छोटा सा पहलू है। इन दोनों में से कोई भी भाषा गैर-हिंदीभाषी राज्यों में शिक्षा का माध्यम नहीं होंगी। शिक्षा और कामकाज का आधार क्षेत्रीय भाषा होगी और ये दोनों द्वितीय भाषाएं होंगी। मेरे मन में यह जरा भी संदेह नहीं है कि हमारी जनता के विकास के लिए क्षेत्रीय भाषा आवश्यक है और गैर-हिंदीभाषी राज्यों में अंग्रेजी या हिंदी के माध्यम से लोगों का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता।'' इसी पत्र में उन्होंने लिखा- ''हमें आधुनिक समय में हो रहे परिवर्तनों को समझने के लिए विदेशी भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित करना चाहिए। यह स्पष्ट है कि सभी बड़ी विदेशी भाषाओं में इंग्लिश हमें ज्यादा माफिक पड़ती है। अत: हमें इंग्लिश को एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में जारी रखना होगा। लेकिन मेरा मानना है कि भारत में व्यापक रूप से दूसरी विदेशी भाषाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है। कांग्रेस के गौहाटी अधिवेशन में भाषा के प्रश्न पर पारित प्रस्ताव में इस पहलू पर विशेष जोर दिया गया था और कहा गया था कि हमारी वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली अंतरराष्ट्रीय टमिर्नोलॉजी से मेल खानी चाहिए। साथ ही हमारी भाषा में अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रचलित वैज्ञानिक शब्दों को ज्यादा से ज्यादा शामिल किया जाना चाहिए। स्वाभाविक है कि ये शब्द ज्यादातर इंग्लिश के होंगे। इनके अलावा ये शब्द भारतीय भाषाओं में साझा होंगे या होने चाहिए ताकि मानव ज्ञान के इस विस्तृत क्षेत्र में वे एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक आ सकें।'' राजगोपालाचारी को भेजे उपरोक्त पत्र में नेहरू ने हिंदी के बारे में लिखा कि ''यह अभी विकासशील अवस्था में है। लेकिन यह भी तथ्य है कि अपने विविध रूपों में इसकी पहुंच भारत के बहुत बड़े हिस्से तक है। उर्दू के तौर पर इसका दायरा पाकिस्तान तक फैला हुआ है। पाकिस्तान से आगे मध्य एशिया में काफिलों के गुजरने वाले रास्तों में भी उर्दू का ज्ञान काफी उपयोगी होता है। अत: हिंदी और उर्दू के जरिए, जिनमें लिपियां शामिल हैं, हम भारत से भी आगे दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं। राजगोपालाचारी के ही नाम एक अन्य पत्र में नेहरू ने लिखा कि मुझे यह तर्कसंगत नहीं लगता कि इंग्लिश को भारत की राष्ट्रीय या केंद्रीय भाषा घोषित किया जाए। इससे मुझे ठेस लगती है। यदि मेरे मामले में ऐसा है तो लाखों लोगों को कैसा लगता होगा। अनेक देशों की यात्राएं करने के बाद मैं जानता हूं कि इंग्लिश को औपचारिक रूप से अपनाने पर कुछ देश आश्चर्य करेंगे और कुछ हमें नफरत से देखेंगे। सच यह है कि वे हमसे अपनी ही भाषा या अंग्रेजी को छोड़कर किसी अन्य भारतीय भाषा में बात करना ज्यादा पसंद करेंगे। ''
शुक्रवार, 10 सितंबर 2010
सोमवार, 30 अगस्त 2010
'अंग्रेजी हटाओ' के झंडाबरदारों ने कहा कि यह भाषा हमें अपनी ही संस्कृति से काटकर अलग कर रही है।
इस साल 25 अक्टूबर को यूपी में एक मंदिर का उद्घाटन होने वाला है। यह तो कोई खास बात नहीं है, लेकिन जिस देवी का यह मंदिर है, वही उसे खास बनाता है। यह अंग्रेजी देवी को समर्पित है और उद्घाटन का दिन वही है, जिस दिन कुख्यात या विख्यात थॉमस बेबिंग्टन मैकॉले के जन्म की 210 वीं वर्षगांठ है। मैकॉले को आप किस श्रेणी में रखते हैं, यह आपके नजरिए पर निर्भर करता है। दस्तावेजों में दर्ज यह है कि उसने भारत में अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू कराई ताकि ब्राउन क्लर्कों की एक ऐसी फौज तैयार की जा सके, जो अंग्रेजी हुकूमत के कामकाज को बखूबी संभाल सके। ब्रिटेन से अंग्रेज बाबुओं को लाने में खर्चा अधिक लगता था। मैकॉले की उस कोशिश को आधुनिक बीपीओ इंडस्ट्री का पूर्वावतार कह सकते हैं। जैसा कि दूसरी चीजों के साथ हुआ, इस बीपीओ के चक्कर में आई अंग्रेजी के साथ भी सामाजिक-सांस्कृतिक विवाद शुरू हुए। मुलायम सिंह जैसे 'अंग्रेजी हटाओ' के झंडाबरदारों ने कहा कि यह भाषा हमें अपनी ही संस्कृति से काटकर अलग कर रही है। उनकी बात में दम है। हालांकि उन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में ही पढ़ाया -देश में भी और विदेश में भी। अंग्रेजी के समर्थकों में आजकल एक प्रमुख नाम है सुश्री मायावती का। वह आंबेडकर की इस लाइन का समर्थन करती हैं कि दलितों का उद्धार पश्चिमी ढंग की शिक्षा-दीक्षा से ही संभव होगा। उनका मानना है कि विश्व की व्यापारिक भाषा का ज्ञान भारत को दुनिया के दूसरे देशों पर बढ़त देता है और देखिए कि चीन किस तरह से अपनी आबादी को अंग्रेजी सिखाने के लिए बेचैन हो रहा है। इस नजर से देखें तो मैकॉले ने हमें एक वरदान ही दिया था। और ऐसे हर वरदान का कोई स्मारक तो बनना ही चाहिए। इसलिए आइए अंग्रेजी का एक मंदिर बना ही लें, वह भी हिंदी के हृदय प्रदेश में। लेकिन इसका उद्घाटन मैकॉले के जन्मदिन पर क्यों हो? जो उसके द्वारा और बाकी ब्रिटिशर्स द्वारा किए जाने वाले दमन और शोषण की ही याद दिलाए। इस मंदिर का उद्घाटन हम भारत के स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त के दिन भी कर सकते थे। असल में समस्या यह है कि हम आज भी अंग्रेजी को एक विदेशी भाषा के रूप में देखते हैं। एक बोझ, जो ब्रिटिशर्स ने हम पर लाद दिया। हमें खुद को इस सोच से मुक्त करना चाहिए और इसका भारतीयकरण कर लेना चाहिए। जैसे क्रिकेट कभी अंग्रेजों का खेल था, लेकिन आईपीएल ने इसका पूरी तरह से भारतीयकरण कर दिया है। रोजमर्रा की बातचीत , साहित्य , विज्ञापनों और मनोरंजन के क्षेत्र में हमने अंग्रेजी का भी काफी भारतीयकरण कर दिया है। निश्चित रूप से ऐसा करने वाले सिर्फ हम ही नहीं हैं। अमेरिकी इंग्लिश ने अपनी शब्द संपदा और स्पेलिंग के साथ बहुत पहले ही खुद को स्वाधीन बना लिया था। इसी तरह ऑस्टे्रलियाई इंग्लिश अलग है , जिसे इसके सानुनासिक उच्चारण की वजह से स्ट्राइन कहा जाने लगा है। इसी तरह न्यूजीलैंड की अंग्रेजी अलग है और जमैका की अलग। सही बात यह है कि इंग्लिश नाम की भाषा बहुत पहले पुरातन पड़ चुकी है। अंतरराष्ट्रीय संवाद में उसकी संभ्रांत शैली और बारीक अर्थों का कोई मतलब नहीं रह गया है और न ही स्थानीय अभिव्यक्तियों के जुड़ने से उसका प्रदूषण होता है। इसलिए आईपीएल की तरह हमारी अपनी अंग्रेजी को भी बस एक ऐसी ही ब्रांडिंग की जरूरत है , जो हमारी ग्लोबल जरूरतों को भी पूरा करे और जिसमें हमारे भारतीय योगदान के लिए भी पर्याप्त जगह हो। भारत में संभवत : किसी भी अन्य देश से ज्यादा अंग्रेजी भाषी लोग हैं। हमें अंग्रेजों ने आजादी नहीं दी थी। हमने उनसे आजादी ले ली थी। इसी तरह , इतने वर्षों में हमने अंग्रेजी हासिल कर ली है - नगालैंड जैसे हमारे राज्यों की यह राजकीय भाषा है। इसलिए आइए अंग्रेजी भगाएं और एक नई भाषा की ब्रांडिंग करें अपनी अंतरराष्ट्रीय जरूरतों के लिए , जिसे हम अंतर्बोली कह कर बुला सकते हैं।
बुधवार, 25 अगस्त 2010
भारी बारिश से मध्य दिल्ली के कई इलाकों में जल जमाव
दिल्ली में बुधवार सुबह हुई तेज वर्षा से कई स्थानों पर पानी भरने के साथ ही सड़क जाम की समस्या फिर सामने आ गई। इससे अपने दफ्तर जाने के लिए निकले लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। भारी बारिश से मध्य दिल्ली के कई इलाकों में जल जमाव हो गया है। कुछ स्थानों पर तो दो फीट तक पानी जमा हो गया। इसके कारण आश्रम, बाहरी रिंग रोड, धौलाकुआं, प्रगति मैदान, राजघाट, डीएनडी, अजमेरी गेट जैसे स्थानों पर भारी जाम लग गया है। उधर यमुना नदी खतरे के निशान से करीब एक फीट ऊपर बह रही है। बाढ़ के खतरे को देखते हुए यमुना में गिरने वाले शहर के सभी नालों को बंद कर दिया गया है।
शनिवार, 3 जुलाई 2010
ममता कालिया को उनकी कहानी के लिए पहला लमही सम्मान देने की घोषणा
जानी मानी कहानीकार और नई कहानी आंदोलन की सशक्त हस्ताक्षर ममता कालिया को उनकी कहानी के लिए पहला लमही सम्मान देने की घोषणा की गई है। उनकी यह कहानी 2009 में लमही पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। त्रैमासिक पत्रिका के सलाहकार संपादक विजय राय ने लखनऊ से फोन पर बताया कि प्रेमचंद के गांव लमही में मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर 8 अक्तूबर को ममता कालिया को यह सम्मान दिया जाएगा। पुरस्कार के रूप में उन्हें 15 हजार रुपये की नकद राशि, प्रतीक चिह्न और प्रशस्ति पत्र दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि दो साल पहले पत्रिका की स्थापना प्रेमचंद के विचारों और उनके लेखन की धारा को आगे बढ़ाने के लिए की गई थी। उस वक्त यह तय किया गया था कि 2009 की सर्वश्रेष्ठ कहानी को इस साल का सम्मान प्रदान किया जाएगा।
गुरुवार, 24 जून 2010
राजभाषा के रूप में हिंदी को उसकी गरिमा दिलाने में सरकार की कोई खास रुचि नहीं
ग्लोबलाइजेशन और बाजार के बढ़ते दबाव के कारण हिंदी को लेकर एक बार फिर बहस तेज हो गई है। आज हिंदी का विकास भले ही रुका न हो , लेकिन सरकारी कामकाज में उसकी गति लगातार और तेजी से घट रही है। आजादी के तुरंत बाद 14 सितंबर , 1949 को संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता देने की घोषणा की गई थी मगर इस संबंध में कानून नहीं बना और हिंदी को राजभाषा का जामा पहना दिया गया। पांच वर्षों के बाद 1954 में राजभाषा आयोग गठित किया गया जिसने 1956 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और इस रिपोर्ट पर अमल 9 वर्षों के बाद यानी 10 मई 1963 को राजभाषा अधिनियम बना कर किया गया। 1965 में दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु में हिंदी विरोध शुरू हो गया और इसके चलते 1965 में सरकार ने राजभाषा संशोधन अधिनियम बना दिया। 11 साल बाद सरकार ने राजभाषा नियम (1976) बनाया। इस तरह हिंदी की गाड़ी रुक - रुक कर चली और आज आजादी के 60 वर्ष बाद भी उसी तरह चल रही है। इस स्थिति में कुछ बदलाव जरूर हुए। सरकारी मंत्रालयों और कार्यालयों में हिंदी अधिकारियों के पद बना कर भरे गए जो बाद में इन संगठनों में दूसरे दर्जे के कर्मचारी बन गए। इनके द्वारा हिंदी को एक कृत्रिम अनुवाद की भाषा का रूप दिया गया। हजारों अनुवादकों और हिंदी अधिकारियों की मौजूदगी के बावजूद सरकारी हिंदी एक ऐसी बेजान भाषा बन गई जो आम जन के पल्ले नहीं पड़ती। सरकारी दफ्तरों में मूल हिंदी में तो काम होता नहीं। अनुवाद इसका एक विकल्प बन गया है क्योंकि सभी मंत्रालयों , उसके अंतर्गत आने वाले विभागों और उपक्रमों का कामकाज अंग्रेजी में होता है। मंत्रालयों के सचिव और बड़े अधिकारी तथा उपक्रमों के मुखिया और वरिष्ठ अधिकारी अंग्रेजी में सोचते और लिखते हैं। जरूरत के हिसाब से उनके लिखे का अनुवाद होता है और यह काम करने वाला अधिकारी अपने ही संगठन में पदोन्नति के अभाव में उपेक्षित , हताश हिंदी का नाम लेता कार्यालय के किसी कोने में आंकड़े पकाता पड़ा रहता है। विभिन्न मंत्रालय , सरकारी कार्यालय , उपक्रम आदि हिंदी दिवस और हिंदी सप्ताह मना कर बाकी पूरे साल हिंदी के नाम पर मौन धारण कर लेते हैं। प्रगति रिपोर्ट राजभाषा विभाग की जरूरत के मुताबिक बना दी जाती है। हिंदी को देश भर के सरकारी विभागों और निगमों आदि में लागू करने के लिए संसदीय राजभाषा समिति भी बनी है , जिसमें कुल 30 संसद सदस्य ( लोकसभा के 20 और राज्यसभा के 10) होते हैं। इस समिति को तीन उप समितियों में बांटा गया है। इस समिति के अध्यक्ष गृह मंत्री होते हैं तथा तीनों समितियों के ऊपर एक उपाध्यक्ष होता है। संसदीय समिति का काम विभिन्न सरकारी कार्यालयों और उपक्रमों का निरीक्षण करना है और यह पता लगाना है कि इनमें हिंदी का काम ढंग से हो रहा है या नहीं। पर यह बात केवल सिद्धांत में है। सचाई यह है कि निरीक्षण का यह कार्यक्रम दफ्तरों के परिसर में न होकर शहर के किसी बड़े फाइव स्टार होटल में आयोजित किया जाता है। एक बार में 2 या 3 कार्यालयों का निरीक्षण किया जाता है जिस पर 5 से 10 लाख रुपये खर्च होते हैं। यह खर्च वे कार्यालय उठाते हैं जिनका निरीक्षण होता है। हालांकि नियमत : यह खर्च संसद द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार होना चाहिए। समिति के माननीय सदस्यों को कार्यालयों द्वारा भारी - भरकम उपहार भी दिए जाते हैं। कुल मिलाकर यह आयोजन पिकनिक मनाने जैसा होता है। नवंबर 2008 तक के आंकड़ों के अनुसार इन समितियों ने 9475 निरीक्षण किए थे। समिति सीधे राष्ट्रपति को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है और इन सिफारिशों पर राष्ट्रपति अपना आदेश देते हैं। इन संसदीय राजभाषा समितियों को 59 पृष्ठों की एक निरीक्षण प्रश्नावली , संगठन प्रमुखों द्वारा भर कर दी जाती है। वह जादुई आंकड़ों का एक ऐसा पुलिंदा होता है संसद सदस्य जिसकी सचाई जांचने की कभी जरूरत नहीं समझते। और इन्हीं आंकड़ों के आधार पर महामहिम राष्ट्रपति द्वारा आदेश जारी किया जाता है। अब तक इसके 8 खंड जारी किए जा चुके हैं। इस आदेश को कभी कोई पलट कर नहीं देखता , न उसके हिसाब से कामकाज में बदलाव किया जाता है। उन कारणों की पड़ताल करना जरूरी है , जिनकी वजह से तमाम संवैधानिक नियमों , अधिनियमों और राष्ट्रपति के अध्यादेशों के बावजूद इन साठ वर्षों में हमारे कार्यालयों में हिंदी की दशा नहीं सुधरी। यह बाधा है हिंदी का विकास सुनिश्चित करने के लिए गठित समितियों , विभागों और अफसरों का रवैया। सभी जानते हैं कि सामान्य नियमों और अधिनियमों की अवहेलना करने पर दंड का प्रावधान है , लेकिन सरकारी कार्यालयों में राजभाषा की खुलेआम अवहेलना की जाती है। अब तक इस अवहेलना के लिए किसी भी अधिकारी को कभी दंडित नहीं किया गया है। सभी संगठनों में हिंदी का स्टाफ नियुक्त है और यह समझ लिया गया है कि हिंदी में काम करने तथा नियमों के अनुपालन की सारी जिम्मेदारी केवल इन्हीं की है। इन संगठनों में काम करने वाले हिंदी अधिकारियों को किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। अपने ही संगठन में पराया तथा सबसे अधिक गैरजरूरी पद हिंदी अधिकारी का होता है। वह लंबे समय से इस गैर बराबरी का शिकार रहा है जो देश में हिंदी की स्थिति का प्रतीक है। आजादी के बाद महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन के नेता नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी देश के शासन की भाषा बनी रहे। इसीलिए भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और उम्मीद की गई कि इससे हिंदी रोजगार से जुड़ेगी और इसका प्रभाव जनजीवन पर पड़ेगा। मगर ऐसा नहीं हो सका। आज भी हिंदी समेत बाकी भारतीय भाषाएं अपना उचित स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं। इस क्षेत्र में सरकारी प्रयास आधे मन से किए गए हैं और इसकी मॉनिटरिंग के लिए बनाई गई समितियां अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक गई हैं। आज राजभाषा के रूप में हिंदी को उसकी गरिमा दिलाने में सरकार की कोई खास रुचि नहीं रह गई है।
आज करीब 25 से 30 युवा कथाकार हिंदी में गंभीरतापूर्वक कहानियां लिख रहे हैं।
हिंदीभाषी प्रदेशों के बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि ग्लोबलाइजेशन और सूचना क्रांति ने साहित्य से आम आदमी का रिश्ता कमजोर कर दिया है और एक ऐसा समय भी आ सकता है, जब साहित्य जीवन से बेदखल हो जाएगा। ऐसा मानने वालों को साहित्य और आधुनिक रहन-सहन व टेक्नॉलजी में विरोध नजर आता है। उन्हें लगता है कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में मोबाइल और इंटरनेट के साथ जवान होने वाली पीढ़ी के लिए गंभीर साहित्य का कोई मोल नहीं रह गया है। उनकी नजर में यह जेनरेशन हिंदी की कोर्सबुक की वजह से प्रेमचंद और दूसरे कुछ लेखकों का नाम भले ही जान जाए, मगर इसके अलावा उसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन इस राय को पिछले पांच-छह वर्षों में उभरकर आई युवा कथाकारों की पीढ़ी ने गलत साबित कर आज करीब 25 से 30 युवा कथाकार हिंदी में गंभीरतापूर्वक कहानियां लिख रहे हैं। इनकी औसत उम्र 27-28 साल है। यानी इन्होंने उदारीकरण के समय में होश संभाला है। इनमें से ज्यादातर पब्लिक स्कूलों में पढ़े हुए हैं। किसी ने बॉयोटेक्नॉलजी की शिक्षा हासिल की है तो किसी ने मैनेजमेंट की। कोई पब्लिक सेक्टर में बड़े पद पर है तो कोई सिविल सर्विस में है। ये सब आधुनिक टेक्नॉलजी से युक्त हैं। इनमें से कई आपको फेसबुक पर मिलेंगे। कइयों के अपने ब्लॉग हैं। ये अपना लेखन सीधे कंप्यूटर पर करते हैं। इनके लिए साहित्य केवल शौक या टाइम पास नहीं है। अपनी भाषा और साहित्य के प्रति गहरे कमिटमेंट के कारण ही इन्होंने साहित्य-लेखन को अपनाया है। इतने सारे नए लेखकों की एक साथ मौजूदगी इस बात का संकेत है कि कंज्यूमरिज्म के असर के बावजूद हिंदीभाषी परिवारों में अपने बुनियादी मूल्यों से जुड़ाव बचा हुआ है। बल्कि जुड़ाव की प्रक्रिया ने नए सिरे से जोर पकड़ा है। इस वर्ष दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में पिछली बार की तुलना में दर्शकों की ज्यादा भीड़ और हिंदी प्रकाशकों की बिक्री में 20 से 25 फीसदी की बढ़ोतरी इसका एक प्रमाण है। इन युवा कथाकारों में महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है। निश्चय ही यह मिडल क्लास में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने को लेकर आ रही जागरूकता की देन है। हिंदी कहानी में यह एक खास मोड़ है, जिसमें भारतीय ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं और 'नया ज्ञानोदय' जैसी पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। सबसे पहले नया ज्ञानोदय ने दो खंडों में कुछ युवा कथाकारों की कहानियां छापीं, जिनका जबर्दस्त स्वागत हुआ। उसके बाद भारतीय ज्ञानपीठ ने इनमें से कुछ चुनिंदा कथाकारों के कहानी संग्रह छापे। दो साल के भीतर ही इनके दो-दो संस्करण निकल गए और अब कुछ संग्रहों का तीसरा संस्करण भी आने वाला है। भारतीय ज्ञानपीठ ने कहानी, कविता, और उपन्यास के लिए युवाओं को पुरस्कार देना भी शुरू किया है जिससे यंग राइटर्स को काफी प्रोत्साहन मिला है। नया ज्ञानोदय के बाद कुछ और पत्रिकाओं ने भी युवा कथाकारों पर विशेषांक निकाले जिसमें 'प्रगतिशील वसुधा' का विशेषांक काफी महत्वपूर्ण है। इन कहानीकारों का नजरिया पिछली पीढ़ी के कहानीकारों से बिल्कुल अलग है। ये किसी विचार के प्रभाव में नहीं हैं, इसलिए ये समाज को किसी आइडियोलॉजी के चौखटे में कसकर नहीं देखते। ये आमतौर पर शहरों के मध्यवर्गीय लेखक हैं इसलिए इनके कैरक्टर भी शहरी मिडल क्लास के हैं। ज्यादातर कहानियों का नायक मध्यवर्गीय युवा है जो समय के अनेक दबाव झेल रहा है। नौकरी और प्रेम जैसी समस्याओं में उलझा हुआ वह समाज में अपनी पहचान, अपनी जगह बना रहा है। लेकिन वह किसी भी लेवल पर किसी आदर्श को ढोता हुआ नजर नहीं आता। प्रेम और सेक्स को लेकर भी वह किसी उलझन का शिकार नहीं है, बल्कि बेहद व्यावहारिक है। आज की कहानियों में प्रेमी-प्रेमिका शादी और लिवइन रिलेशन को लेकर बेहद स्पष्ट हैं। अब वर्जिनिटी कोई मुद्दा नहीं है, नई जरूरतों के मुताबिक एक-दूसरे के लिए उपयोगी होने का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है। महिला कथाकारों के यहां भी रिश्तों का परंपरागत रूप देखने को नहीं मिलता। उनकी कहानियों में महिला चरित्र बोल्ड हैं- लेकिन केवल देह के स्तर पर नहीं, बल्कि समाज में अपनी भूमिका निभाने को लेकर भी। उनकी कहानियों में आज की आधुनिक कामकाजी महिला के रहन-सहन और सोच की झलक मिलती है जो अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए संघर्ष करती नजर आती है। इन युवा कथाकारों ने भाषा के पुराने ढांचे को तोड़ा है। ये ज्यादातर अपने कैरक्टर और माहौल के हिसाब से ही भाषा लिखते हैं। एक उदाहरण देखिए : 'निकी जॉइंड दिस स्कूल इन नाइंथ और स्कूल में अपने फर्स्ट डे से ही वो मुझे पसंद आ गई थी। अपनी शुरुआती कोशिशों के बाद जब लगा कि निकी मेरी तरफ ध्यान भी नहीं दे रही तब मैंने अपने दोस्तों की मदद मांगी। रवि इज वन ऑव माई फास्ट फ्रेंड्स एंड ही टोल्ड मी कि निकी एक फर्राटा है, उसके घर वाले आर वेरी पावरफुल और मुझे उसका चक्कर छोड़ देना चाहिए। लेकिन मेरी फीलिंग्स को देखते हुए उसने स्कूल्स फॉर्म्युला ट्राई करने को कहा। मेरे स्कूल में अगर किसी लड़की को इम्प्रेस करना होता था तो कनसर्निंग ब्वॉय यूज्ड टु कीप मैसेजेज, फ्लावर्स ऑर कार्ड राइट साइड ऑव द गर्ल्स बैग। यह सब प्रेयर के टाइम पर होता था।' (सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी, चंदन पाण्डेय ) आज के कहानीकार आधुनिक लाइफ स्टाइल के तमाम ब्योरे देते हैं। उनमें मोबाइल है, चैटिंग है, पिज्जा है, बर्गर है, मिनरल वॉटर है। चूंकि यह सूचनाओं का युग है, इसलिए आज के युवा लेखकों की कहानियों में सूचनाओं की भरमार मिलती है। ये कहानीकार हालात का चित्रण भर करते हैं, लेकिन किसी परिणाम या समाधान की ओर ले जाने की कोशिश नहीं करते। हिंदी के कुछ सीनियर लेखक हिंदी साहित्य की इस यंग ब्रिगेड को संदेह की नजर से भी देखते हैं, लेकिन पाठकों ने इनके लेखन को हाथोंहाथ लिया है। सचाई यह है कि ये युवा कहानीकार हिंदी में पाठकों का एक नया वर्ग तैयार कर रहे हैं।
बुधवार, 9 जून 2010
इससे बेहतर संस्मरण लिख पाना शायद आसान नहीं
शुक्रवार, 21 मई 2010
वेबसाइट्स-ब्लॉग्स को आज भी विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं
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सोमवार, 17 मई 2010
आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है।
हमारी आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है। सिंधी और नेपाली विदेशी भाषाएं हैं। पुड्डुचेरी में फ्रेंच को राज्यभाषा जैसी मान्यता प्राप्त है, लेकिन आकाशवाणी को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। एक नियम के रूप में वह इन सभी भाषाओं को वर्षों से विदेशी भाषा मानती चली आ रही है। आकाशवाणी में कई भारतीय भाषाएं विदेशी भाषा के रूप में दर्ज हैं। यही नहीं, इसे आधार बनाकर वहां वर्षों से हिंदीभाषी कर्मचारियों को दोयम दर्जे का समझा जाता है और उन्हें वेतन आदि सुविधाएं अपेक्षाकृत कम दी जाती हैं। अंग्रेजों के शासन काल में भारत के लोगों को जिस पद पर काम करने के एवज में सौ से डेढ़ सौ रुपये वेतन दिया जाता था, उसी पद पर गोरी चमड़ी वाले यूरोप के मूलवासियों को एक हजार रुपया वेतन मिलता था। अंग्रेजों के जाने के बाद चमड़ी के रंग के आधार पर तो नहीं लेकिन उम्र, लिंग, जाति और धर्म के आधार पर एक ही काम के लिए मजदूरी या वेतन कम-ज्यादा होने की शिकायतें आम रही हैं। कई संस्थानों में भाषा के स्तर पर भी समान पद और काम के बदले अलग-अलग वेतन मिलने की शिकायतें आई हैं। लेकिन ऐसी शिकायतें आमतौर पर निजी संस्थानों में दिखती रही हैं। संविधान में जाति, लिंग, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करने की शपथ ली गई है लिहाजा आमतौर पर इन आधारों पर सरकारी संस्थानों में ऐसे भेदभाव की शिकायत नहीं पाई जाती है। आकाशवाणी में जारी भाषाई भेदभाव को इस नियम का भी अपवाद माना जा सकता है।
आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है।
हमारी आकाशवाणी के खाते में तमिल विदेशी भाषा है। सिंधी और नेपाली विदेशी भाषाएं हैं। पुड्डुचेरी में फ्रेंच को राज्यभाषा जैसी मान्यता प्राप्त है, लेकिन आकाशवाणी को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। एक नियम के रूप में वह इन सभी भाषाओं को वर्षों से विदेशी भाषा मानती चली आ रही है। आकाशवाणी में कई भारतीय भाषाएं विदेशी भाषा के रूप में दर्ज हैं। यही नहीं, इसे आधार बनाकर वहां वर्षों से हिंदीभाषी कर्मचारियों को दोयम दर्जे का समझा जाता है और उन्हें वेतन आदि सुविधाएं अपेक्षाकृत कम दी जाती हैं। अंग्रेजों के शासन काल में भारत के लोगों को जिस पद पर काम करने के एवज में सौ से डेढ़ सौ रुपये वेतन दिया जाता था, उसी पद पर गोरी चमड़ी वाले यूरोप के मूलवासियों को एक हजार रुपया वेतन मिलता था। अंग्रेजों के जाने के बाद चमड़ी के रंग के आधार पर तो नहीं लेकिन उम्र, लिंग, जाति और धर्म के आधार पर एक ही काम के लिए मजदूरी या वेतन कम-ज्यादा होने की शिकायतें आम रही हैं। कई संस्थानों में भाषा के स्तर पर भी समान पद और काम के बदले अलग-अलग वेतन मिलने की शिकायतें आई हैं। लेकिन ऐसी शिकायतें आमतौर पर निजी संस्थानों में दिखती रही हैं। संविधान में जाति, लिंग, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करने की शपथ ली गई है लिहाजा आमतौर पर इन आधारों पर सरकारी संस्थानों में ऐसे भेदभाव की शिकायत नहीं पाई जाती है। आकाशवाणी में जारी भाषाई भेदभाव को इस नियम का भी अपवाद माना जा सकता है।
बुधवार, 12 मई 2010
शीला दीक्षित ने 27 साहित्यकारों को सम्मानित किया।
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
हिंदी कविताओं की किताब का प्रिंट ऑर्डर होता है पांच सौ।
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
मॉडलिंग करना हराम
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
राजभाषा सम्मेलन का लुत्फ
स्पष्ट है कि हिनदी आज राष्ट्रभाषा नहीं है यह राजभाषा विभाग का कथन है तथा राजभाषा के नाम पर झूठे आंकडों के खेल में कोई महाझूठा प्रथम पुरस्कार प्राप्त करता है तो दूसरे अगले वर्ष उससे अधिक झूठ बोलने का संकल्प लेते है । राजभाषा विभाग इस कडी में एक संयोजक की भूमिका में है वह कुछ अति अवांछित व्यक्तियों को विभिनन मंत्रालयों की हिन्दी सलाहकार समितियों में नामित कर उन्हे धन्य कर देता है जिन्होने राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अन्तर को समझने की कोशिश भी कभी नहीं की । खैर यह तो खीजने की बात ही कही जाएगी परन्तु मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूं कि इस सम्मेलन की वजय से दमण में घूमने का मौका मिलेगा ।
बुधवार, 24 मार्च 2010
बिहार आते हैं तो कोई उनसे हिंदी सीखने को नहीं कहता।'
गुरुवार, 4 मार्च 2010
हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं
केन्द्र सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि हिन्दी संविधान के अनुसार राष्ट्रभाषा नहीं है यह जानकारी केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय माकन ने श्री चतुर्वेदी कोएक लिखित प्रश्न के उत्तर में दी है ।
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
बजट में टैक्सपेयर्स को बड़ी राहत
वित्त मंत्री ने बजट में टैक्सपेयर्स को बड़ी राहत दी है। टैक्स स्लैब में बदलाव का ऐलान करते हुए उन्होंने कहा कि इससे 60 % टैक्स पेयर्स को राहत मिलेगी। अब वित्त मंत्री के नए ऐलान के अनुसार , अब 1 लाख 60 हजार रुपये से ज्यादा और 5 लाख रुपये तक की आमदनी पर 10 परसेंट टैक्स लगेगा। 5 लाख रुपये से 8 लाख रुपये तक की आमदनी पर 20 परसेंट टैक्स लगेगा और 8 लाख रुपये से ज्यादा की आमदनी पर 30 परसेंट टैक्स लगेगा। अब तक इंडिविजुअल को 1 लाख 60 हजार रुपये तक की आमदनी पर कोई टैक्स नहीं लगता है। 1 लाख 60 हजार रुपये से ज्यादा और 3 लाख रुपये तक की आमदनी पर 10 परसेंट टैक्स लगता है। 3 लाख रुपये से 5 लाख रुपये तक की आमदनी पर 20 परसेंट टैक्स लगता है और 5 लाख रुपये से ज्यादा की आमदनी पर 30 परसेंट टैक्स लगता है। नए टैक्स स्लैब से 3 लाख रुपये तक की सालाना आमदनी वालों को तो कोई फायदा नहीं होगा लेकिन इससे अधिक आमदनी वालों को काफी फायदा होगा। इतना ही नहीं , इनकम टैक्स की धारा 80 सी के तहत 1 लाख रुपये के निवेश पर अब तक टैक्स छूट है। अब वित्त मंत्री ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति इस निवेश के अलावा साल में 20 हजार रुपये का लॉन्ग टर्म इन्फ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड खरीदता है तो उसे इस खरीद पर टैक्स छूट मिलेगी। बजट में इनकम टैक्स के नए स्लैब इस प्रकार रखे गए हैं आम इंडिविजुअल टैक्सपेयर 1,60,000 रुपये तक : शून्य 1,60,001 रुपये से 5 लाख रुपये : 10 प्रतिशत 5,00,001 रुपये से 8,00,000 रुपये : 20 प्रतिशत 8,00,001 रुपये से अधिक : 30 प्रतिशत महिला टैक्सपेयर 1,90,000 रुपये तक : शून्य 1,90,001 रुपये से 5 लाख रुपये : 10 प्रतिशत 8,00,001 रुपये से अधिक : 30 प्रतिशत सीनियर सिटिजन 2,40,000 रुपये तक : शून्य 2,40,001 रुपये से 5 लाख रुपये : 10 प्रतिशत 8,00,001 रुपये से अधिक : 30 प्रतिशत
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
वोट पॉलिटिक्स के लिए स्कूलों में अंग्रेजी के बदले हिंदी लागू कराते हैं।
बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
हिंदी ही तो हमारी ‘राष्ट्रभाषा’ है...
करुणा : शिवसेना के रुख को महाराष्ट्र में भी लोगों का समर्थन नहीं है
, इस विवाद में अब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम . करुणानिधि भी कूद पड़े हैं। करुणा ने कहा है कि शिवसेना के रुख को महाराष्ट्र में भी लोगों का समर्थन नहीं है। उन्होंने शिवसेना के इस दावे को भी सिरे से नकार दिया कि दक्षिण भारत में लोग हिन्दी विरोधी हैं। करुणानिधि ने कहा , महाराष्ट्र में भी उनके ( उद्धव ठाकरे ) रुख को लोगों का समर्थन हासिल नहीं है। गौरतलब है कि उद्धव ठाकरे ने रविवार को अपनी पार्टी के इस रुख का बचाव करते हुए बीजेपी और संघ समेत अन्य दलों पर हमला बोला था। संघ ने शिवसेना के महाराष्ट्र पर दिए गए बयान पर पलटवार करते हुए कहा था कि मुंबई पूरे भारतवासियों के लिए है।
इस मामले में संघ ने अपने स्वयंसेवकों से उत्तर भारतीयों की रक्षा सुनिश्चित करने को कहा है। करुणानिधि ने दक्षिण भारत के लोगों का हिन्दी विरोधी होने संबंधी बयान को खारिज करते हुए कहा कि राजनीतिक दलों के पास कोई संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा - कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो इतना संकीर्ण मानसिकता रखती है कि अपने लोगों को अपने प्रदेश की भाषा बोलने के अलावा अन्य भाषाएं बोलने से रोकती हो। गौरतलब है कि 1960 के दशक में करुणानिधि की डीएमके समेत अन्य द्रविड़ पार्टियों के लिए हिन्दी विरोधी अभियान एक बड़ा मुद्दा हुआ करता था , लेकिन हाल में वह इससे ऊपर उठे हैं।
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
डॉ. पी सी सहगल - कमलापति त्रिपाठी स्वर्ण पदक से सम्मानित
मुंबई रेलवे विकास कॉर्पोरेशन के प्रबंध निदेशक डॉ. पी सी सहगल को कमलापति त्रिपाठी राजभाषा स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया है । यह सम्मान दिनांक 27 जनवरी, 2010 को रेलवे बोर्ड नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड श्री सुरिन्दर सिंह खुराना के कर-कमलों द्वारा प्रदान किया गया । समारोह में बोर्ड तथा अन्य भारतीय रेलों के सभी वरिष्ठ अधिकारी मौजू़द थे ।
यह सम्मान भारतीय रेलों में कार्यरत अधिकारियों के लिए सर्वोच्च्य सम्मान है जो कि महाप्रबंधक स्तर के अधिकारियों को उनकी विशिष्ठ सेवाओं के लिए दिया जाता है जिसमें राजभाषा के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय कार्यो का समावेश है । यह पहला अवसर है कि भारतीय रेलों के उपक्रमों में कार्यरत प्रबंध निदेशक को यह सम्मान प्राप्त हुआ है ।
उल्लेखनीय है कि डॉ. पी सी सहगल ने हिन्दी में नई तकनीक की ए सी डी सी रेक नामक तकनीकी पुस्तक लिखी है जिसे इसी कार्यक्रम में प्रथम पुरस्कार दिया गया है ।
मंगलवार, 26 जनवरी 2010
भारत में कोई राष्ट्र भाषा है ही नहीं!
सोमवार, 18 जनवरी 2010
राजभाषा के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य के लिए डॉ. पी सी सहगल को कमलापति त्रिपाठी राजभाषा पदक
रविवार, 10 जनवरी 2010
जहां सिर्फ अंग्रेजी या स्पैनिश या इस तरह की कोई और भाषा है, वहां सिर्फ हिंदी के सहारे काम नहीं चल सकता।
दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है चीन की मंदारिन। लगभग 84 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी यह प्राथमिक भाषा है। दूसरे देशों में मातृभाषा को प्राथमिक भाषा (प्राइमरी लैंग्वेज) कहते हैं। यदि इनमें उन लोगों को भी शामिल कर लें जो इसे बोल और समझ सकते हैं, लेकिन जिनके लिए यह सेकंडरी लैंग्वेज है तो मंदारिन भाषियों की संख्या एक अरब से भी ज्यादा हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र में भी यह मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। लेकिन इसका भौगोलिक विस्तार कम है। यह सिर्फ चीन के एक बड़े हिस्से में बोली जाती है। इसके अलावा तिब्बत, ताइवान, सिंगापुर और ब्रुनेई में भी इसका कुछ-कुछ चलन है।बोलने वालों के लिहाज से स्पैनिश का नंबर दूसरा है, लेकिन इसका भौगोलिक विस्तार मंदारिन से कहीं ज्यादा है। स्पेन के अलावा यह ब्राजील, चिली, इक्वाडोर, कोस्टारिका, डोमनिकन रिपब्लिक, निकारागुआ, पराग, होंडुरास, गुयाना, ग्वाटामाला और अल सल्वाडोर में भी प्रचलित है। यहां तक कि अमेरिका में भी स्पैनिश बोलने वालों की अच्छी तादाद है। स्पैनिश 32 करोड़ लोगों की प्राथमिक भाषा है। यदि इसमें सेकंडरी लैंग्वेज वालों को भी जोड़ लें तो पूरी दुनिया में 40 करोड़ से ज्यादा लोग इस भाषा का व्यवहार कर रहे हैं। यूएन की छह मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक स्पैनिश भी है।
मंदारिन और स्पैनिश की तुलना में अंग्रेजी को अपना प्राइमरी लैंग्वेज बताने वालों की संख्या आज भी कम है, वैसे है यह भी 32 करोड़ के आसपास ही। लेकिन इसमें सेकंडरी लैंग्वेज वालों को मिला दें, तो यह स्पैनिश से कहीं ज्यादा लोकप्रिय है। अंग्रेजी का सबसे मजबूत पक्ष है इसका भौगोलिक विस्तार। ब्रिटेन के अलावा उत्तरी अमेरिका, मध्य अमेरिका और अफ्रीका के ज्यादातर देशों में इसे ऑफिशल लैंग्वेज का स्टेटस मिला हुआ है। इसके अलावा बहुत सारे देश ऐसे हैं, जहां यह प्रचलन में तो खूब है, लेकिन इसे एकमात्र ऑफिशल लैंग्वेज नहीं माना जाता। ज्यादातर एशियाई देशों में इसे यही दर्जा प्राप्त है। इस क्रम में हिंदी को आप चौथे नंबर पर रख सकते हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वह उर्दू, मैथिली और भोजपुरी आदि सबको अपना ही एक रूप माने। इस तरह प्राइमरी लैंग्वेज की तरह हिंदी लगभग दो करोड़ लोगों की भाषा है और दूसरी भाषा की तरह इसको अपनानेवालों को मिला दें तो पूरी दुनिया में लगभग साढ़े पांच करोड़ लोग किसी न किसी रूप में हिंदी का व्यवहार कर रहे हैं। हिंदी भी सिर्फ हिंदुस्तान के कुछ राज्यों तक सिमटी हुई भाषा नहीं है, यह नेपाल, पाकिस्तान, मॉरिशस, त्रिनिदाद, टबेगो, सूरीनाम, फीजी और यूएई में भी किसी न किसी रूप में मौजूद है।
लेकिन सवाल यह है कि फ्यूचर में भारत से निकलने के बाद हम जाना किधर चाहते हैं? जहां-जहां हिंदी है, वहां भी अंग्रेजी के सहारे काम चल सकता है। लेकिन जहां सिर्फ अंग्रेजी या स्पैनिश या इस तरह की कोई और भाषा है, वहां सिर्फ हिंदी के सहारे काम नहीं चल सकता।
शनिवार, 2 जनवरी 2010
नव वर्ष की शुभकामनाएं
हमारे प्रिय पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएं
नव वर्ष 2010 आपकेलिए सुख-समृद्ध् आरोग्य, तथा मनोकामनाएं पूर्ण करे,
इन्ही शुभकामनाओं द्वारा आपके समक्ष नई आशाओं के साथ
डॉ राजेन्द्र कुमार गुप्ता