बात शायद सही है कि
आज भारत में अंग्रेजी ‘ऊंची’ भाषा समझी जाती है। हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के हितैषी सिर
लटकाए परेशान हाल, बैठे हुए हैं। चाहे हिंदी के प्राद्यापक वर्ग से बात करें, या लेखकों से अथवा
मीडियाकर्मियों से - हर जगह एक निराशा नजर आती है। विद्यार्थी वर्ग तो और भी अधिक
निराशाजनक तस्वीर देखता/ दिखाता है। इनका मानना है कि चाहे कोई और भाषा आए न आए, अंग्रेजी के बिना
गुजारा नहीं है। इसके बिना रोजगार पाना असंभव है। लोगों को लगता है कि भारतीय
मातृभाषाओं को हाशिए पर डाल दिया गया है। एकमात्र अंग्रेजी
ही कुलीन होने का अहसास दिलाती है, हिंदी-समर्थकों के
हौसले पस्त हुए जा रहे हैं और हिंदी के लिए चेतन भगत जैसे अधपके चिंतक कहते हैं कि
हमें देवनागरी छोड़ कर रोमन लिपि अपना लेनी चाहिए, तभी हिंदी और दूसरी
भारतीय भाषाओं का बचना संभव है। किताबों के शोरूमों
में भारतीय भाषाओं में किताबें मिलना दुष्कर है, बमुश्किल एक या दो
अलमारियां नॉन-अंग्रेजी किताबों को नसीब होतीं हैं। इन सभी शोरूमों में इंग्लिश ही
हर तरफ दिखाई देती हैं। शिक्षण संस्थाओं में हिंदी पढ़ने और पढ़ाने वालों को ‘ढीला’ समझा जाता है-
छात्रों को रोजगार के अवसर नजर नहीं आते। उधर, पत्रकारगण बार-बार
लिखते जा रहे हैं कि हिंदी के खिलाफ कोई साजिश है शायद जिसके चलते हिंदी ‘लड़ाई’ हार रही है। मतलब
ये कि सामूहिक सामाजिक चेतना में बार-बार ये बात अंकित होती है कि भाषाओं की इस ‘लड़ाई’ में हिंदी पिछड़ती
जा रही है। अफसोस यह कि सभी आलिम-ओ-फाजिल कह रहे हैं कि ना तो वो लिखने वाले बचे
हैं, न ही पढ़नेवाले (जो कि गलत है), इस वजह से भारतीय
भाषाएं लुप्त भले ही न हों, हाशिए पर आ गई हैं और शायद वहीं बनी रहेंगी।
मेरा मानना है कि
ये सब गलत है, बकवास है। अभी मनोबल गिराने की जरूरत नहीं है, पिक्चर अभी बाकी है
दोस्त! हिंदी के आगे तमाम संभावनाएं बिखरी पड़ी हैं... और अगर मानसिकता बदली जाए और
पासा ठीक पड़े तो हिंदी क्या, सभी भारतीय भाषाएं एक चमकीला
भविष्य अगले 10-15 सालों में बड़े आराम से जी सकती हैं।
बहुत अच्छा, बहु-आयामी, आला-दर्जे के
साहित्य की रचना हिंदी और अन्य भाषाओं में बखूबी हो रही है। अच्छा पढ़ने के भूखे
लोग भी हैं। हां मार्केटिंग की कमी है, साहित्यकारों में
गुट बने हुए हैं, प्रकाशकों में आत्मविश्वास की कमी है, एडवरटाइजिंग नहीं
के बराबर की जाती है... वगैरह कुछ मसले हैं जो आसानी से सुलझाए जा सकते हैं।
भारत में आज भी
हिंदीभाषी सबसे ज्यादा हैं। इतना बड़ा बाजार है, बस व्यापारिक
अदूरदर्शिता की वजह से इसका दोहन नहीं किया जा रहा है। कोई साजिश नहीं है हिंदी के
खिलाफ, अभी तक इस मार्केट को ठीक से दुहने का कुशल और बुद्धिमान प्रयास नहीं
किया है।
English
is the new normal. आज कोई किसी फर्राटेदार इंग्लिश बोलने वाले को देख प्रभावित नहीं
होता जैसे पहले होता था। पिछले एक दशक में काफी कुछ बदला है। जहां अभिजात वर्ग की
देखादेखी मध्यमवर्ग अंग्रेजी अपना रहा है, वहां सुपर-एलीट
तबके में अंग्रेजी प्रेम घटा है और मातृभाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा है। अगर हम उस
अभिजात वर्ग को बदल पाए तो संभव है उनका अनुसरण कर
आगे चल कर बाकी लोग भी मातृभाषाओं की ओर झुकें। उनका रवैया बदलने का हमारा एक
छोटा-सा प्रयोग youtube का ‘हिंदी कविता’ चैनल है जहां प्रसिद्ध रंगकर्मी और अदाकार हिंदी के नए और पुराने
लेखकों की रचनाओं का पाठ कर रहे हैं। यहां कुछ लाख लोगों को हिंदी स्टाइलिश और
अच्छी लगी। वैसे तो यह सागर में एक छोटी-सी बूनद के समान है, पर इस प्रयास ने
मुझे उम्मीदों से भर दिया है।
बाजारीकरण और
उपभोक्तावाद असल में हिंदी और अन्य भाषाओं के बहुत मददगार हो सकते हैं। हमारे
विस्तृत (व्यक्तिगत) सर्वेक्षण से कुछ आसान निष्कर्ष उभरे हैं- हमारी सरकार जिस
तरह दुनिया को रिझा रही है कि आइए, हमारी औद्योगिक उत्पादन
क्षमता का, हमारे शिक्षण संस्थानों का, हमारे हस्पतालों का, हमारे
इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में छिपी व्यापारिक संभावनाओं का लाभ उठाएं - उसी तरह हिंदी
के क्षेत्र में निवेश के कितने अवसर हैं, ये बता पाएं
(मोदीजी, मेरे पास विस्तृत रिपोर्ट है, अगर आप निगाह डालना
चाहें), तो बाजार की शक्तियां अपने आप ही इसे दुहने का रास्ता ढूंढ लेंगी।
और भी बहुत सारे
कारण हैं मेरी इस ना-बेउम्मीदी के जो मनोवैज्ञानिक हैं और समाजशास्त्र के
सिद्धांतों पर भी खरे उतरते हैं। बस, एक सुनियोजित
प्रयास की जरूरत है, उसे चतुरता और कूटनीति से निष्पादित करने की जरूरत है। भाषा को थोप
कर तो हम इसे और अनाकर्षक बना रहे हैं। हम सब ने देखा है कि एक घटिया-सी
डाक्यूमेंट्री को बैन करके हमने उसे कितना लुभावना बना दिया... दुनिया हिटलरी से
नहीं चलनेवाली। भावुकता या द्वेषभाव नहीं, हमें हिंदी के लिए
एक चाणक्यनीति की जरूरत है। हिंदी का सामृध्य वापस लाना बिलकुल संभव है।
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