दरअसल, हिंदी और उर्दू अपने इस्तेमाल में इस कदर
एक-दूसरे से अलग हैं ही नहीं। देश के उर्दू के अधिकतर रचनाकार आज भी देवनागरी में
लिख रहे हैं और हिंदी में छप रहे हैं। उन्हें जितना ज्यादा हिंदी में पढ़ा जा रहा
है, उतना किसी दूसरी भाषा में नहीं। यह अलग बात है कि आज
हिंदी और उर्दू बेहद विपन्न भाषा हो गई हैं। सारे अवसर अंग्रेजी लूट कर ले जा रही
है। विपन्न इस अर्थ में कि हिंदी और उर्दू आज रोजगार की भाषा नहीं बन पाई।
अंग्रेजी के लेखकों को एक लेख से जो रकम मिल जाती है, एक
किताब से जो रॉयल्टी मिल जाती है, वह उन्हें अगले शोध के
लिए और तफरीह का अवसर देती है। पर हिंदी के साथ ऐसा नहीं है। हिंदी के अधिकतर
लेखकों की ज्यादातर ऊर्जा इसी बात में खप जाती है कि ज्यादा से ज्यादा लिखे और छपे
ताकि घर चलाने का इंतजाम हो पाए। यह एक बड़ी वजह है कि अंग्रेजी का औसत लेखक अपने
शोध के कारण बड़ा दिखने लग जाता है, जबकि हिंदी-उर्दू के
बड़े लेखकों का नाम लेने वाला कोई नहीं हिंदी और उर्दू के बीच दूरी देखने वालों को
यह भी देखने की जरूरत है कि आज की हिंदी में शब्दों को लेकर जितने प्रयोग हो रहे
हैं, वह किस तरफ इशारा करते हैं। 'अफसोसनाक' के बजाय अधितकर लोग 'अफसोसजनक' लिख रहे हैं। 'तकलीफदेह' शब्द 'तकलीफदेय'
में तब्दील होता दिख रहा है। 'प्रभात
खबर' शब्द अब जुबां पर है। एतराज जताने वाले पूछ सकते हैं
'प्रभात समाचार' क्यों नहीं?
पर सच मानिए कि यह तकलीफ की बात नहीं है। भाषा तभी आगे बढ़ती है
जब वह अपनी जरूरत और वक्त के मुताबिक खुद को नए सांचे में ढालती है, वरना वह मृतप्राय हो जाएगी। हिंदी की प्रकृति ऐसी है कि वह बेहद
संजीदगी से किसी भी भाषा के शब्द को सहज रूप से अपने में घोल लेती है और उसे जरूरत
पड़ने पर हिंदी व्याकरण के हिसाब से नया रूप देती है, ढालती
है
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