यदि साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी उसके काल सापेक्ष होने और घटनाक्रम के
ईमानदार उद्घाटन में निहित होती है तो मानना पड़ेगा कि भेड़चाल में पुरस्कार लौटा
रहे साहित्यकार अपने रचनात्मक धर्म और समाज के प्रति अपनी जवाबदेही से भटक गए हैं।
उनके अतिरंजित विचार-वमन से यह भी मानना पड़ेगा कि उनकी रचनाधर्मिता किसी राजनीतिक
विचारधारा से प्रभावित है।
कर्नाटक में वामपंथी विचारक प्रो. एमएम कलबुर्गी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या
और उसके बाद उत्तर प्रदेश के बिसाहड़ा की दुखद घटना के बाद कुछ लेखकों की कथित तौर
पर आत्मा जाग गई है। इसकी शुरुआत करने वालों में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित
जवाहरलाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल शामिल थीं। बिसाहड़ा में गोमांस खाने के
संदेह में इखलाक की हत्या आक्रोशित भीड़ ने की। यह निंदनीय है और कानून को उसका काम
स्वतंत्र रूप से करने देना चाहिए। किंतु प्रश्न नयनतारा और उनके पीछे चल पड़ने
वालों के विरोध, उनके निशाने और उनके समय को लेकर है।
कर्नाटक में कलबुर्गी की हत्या हुई। वहां सरकार किसकी है? उत्तर
प्रदेश में सरकार किसकी है? फिर निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी
और भाजपा क्यों? क्यों कुछ लेखकों को केवल इसी समय देश में
कथित सांप्रदायिक उन्माद का ज्वार नजर आ रहा है? क्या
मुजफ्फरनगर के दंगों, बरेली, मेरठ,
सहारनपुर के बलवों से इन लेखकों की आत्मा द्रवित नहीं हुई?
1989 के भागलपुर के दंगों में 1161 लोगों की
असामयिक मौत हुई, तब बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। 1990
में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। तब हैदराबाद में हुए
दंगों में 365 लोग मारे गए। 1992 में
गुजरात के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री थे। तब सूरत
दंगों में 152 निरपराध मारे गए। कांग्रेस की सरकार के काल
में दर्जनों बार अहमदाबाद सांप्रदायिक आग में झुलसा। किंतु इन लेखकों को केवल 2002
के गुजरात दंगे ही भयावह नजर आते हैं। क्यों? गोधरा
स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एस6 बोगी को घेरकर दंगाइयों
ने 59 लोगों (24 पुरुष, 15 महिलाएं और 20 बच्चों) को जिंदा जला डाला। उस
हृदयविदारक घटना की निंदा करना तो दूर; ऐसे साहित्यकारों,
पत्रकारों और सेक्युलरिस्टों ने मरने वाले कारसेवकों को ही कसूरवार
ठहरा दिया।
पुरस्कार लौटा रहे लेखकों की आत्मा जिस तथाकथित दक्षिणपंथी विचारधारा के
उभार से आर्तनाद कर रही है, वह वामपंथी विचारधारा से जन्मी माओ-नक्सलवादी हिंसा पर
खामोश रहती है। मार्क्सवादी विचारधारा में विरोधी स्वर का हिंसा से दमन प्रमुख
अस्त्र है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का तीन दशकों से अधिक का राजपाट रहा। 1997
में विधानसभा में पूछे गए एक प्रश्न का जवाब देते हुए तत्कालीन
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बताया था कि 1977 (जब
मार्क्सवादी सत्ता में आए) से 1996 के बीच 28000 राजनीतिक हत्याएं हुईं। इसी तरह केरल में विरोधी विचारधारा के संगठन और
कार्यकर्ता मार्क्सवादी हिंसा के आए दिन शिकार बनते रहे हैं।
मार्क्सवादियों के संरक्षण में जिहादी तत्व भी निरंतर पोषित हुए। ईसाई
प्रोफेसर टीजे जोसफ का हाथ काटने वाले जिहादियों की असहिष्णुता पर किसी की आत्मा
नहीं रोती। ओडिशा में दलित-वंचित आदिवासियों के लिए दशकों से काम कर रहे स्वामी
लक्ष्मणानंद सरस्वती की नक्सलियों ने बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। मार्च 2014 के
आंकड़ों के अनुसार पिछले बीस सालों में 12000 से अधिक बेकसूर
नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं। इस तरह की हिंसा में उन्हें असहिष्णुता नहीं
दिखती। क्यों?
नयनतारा सहगल को 1986 में रिच लाइक अस नामक उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी का
पुरस्कार मिला था। इससे दो साल पूर्व 1984 के सिख नरसंहार
हुए थे। कांग्रेस प्रायोजित उक्त नरसंहार में देशभर में हजारों सिख मारे गए।
नयनतारा के भतीजे और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त
करते हुए कहा था, जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।
नयनतारा की आत्मा तब सोई थी। क्यों?
नयनतारा कश्मीरी पंडित हैं। कश्मीर घाटी से वहां की संस्कृति के मूल वाहक
कश्मीरी पंडितों को तलवार के दम पर मार भगाया गया, उनकी संपत्तियों पर
जिहादियों ने कब्जा कर लिया, हिंदुओं के आराधना स्थल तबाह कर
दिए गए, किंतु नयनतारा की आत्मा सुकून से बैठी रही। रिच लाइक
अस में नयनतारा ने शिक्षित महिलाओं की समस्याओं और दुश्वारियों को उठाया है।
समस्याओं से जूझते और समझौते करते हुए शिक्षित महिला कैसे शक्तिमान बनती है,
उपन्यास का मोटा थीम यही है। अपने साहित्य से समाज को सकारात्मक
संदेश देने वाली नयनतारा फिर शाहबानो के मामले में क्यों चुप रह जाती हैं? एक मुस्लिम महिला को तलाक के बाद पति से भरणपोषण पाने का अधिकार इस देश की
सर्वोच्च न्यायपालिका दिलाती है तो कांग्रेस संविधान में संशोधन कर आदेश को ही पलट
देती है। इस अधिनायकवादी और महिला विरोधी मानसिकता की निंदा क्यों नहीं की गई?
नयनतारा की एक अन्य पुस्तक है, जवाहरलाल नेहरू
: सिविलाइजिंग अ सैवेज वर्ल्ड। इसमें पं. नेहरू की नीतियों से लेखिका अभिभूत दिखती
हैं। पं. नेहरू ने जंगली दुनिया को सभ्य बनाया या नहीं और उनकी गुटनिरपेक्ष नीति
का दुनिया पर क्या प्रभाव पड़ा, यह इस लेख का विषय नहीं है।
किंतु इतना स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों से इस देश को कंगाल करने
वाली कांग्रेस नयनतारा को ज्यादा प्रिय है और उनके पीछे कूद पड़ने वाले लेखक भी उसी
मानसिकता से ग्रस्त लगते हैं।