सुप्रीम कोर्ट ने
हाल के अपने एक फैसले में निर्देश दिया है कि यदि कोई चाहता है कि उससे संबंधित
फैसले की प्रति उसे उसी की भाषा में मुहैया कराई जाए, तो इसे
सुनिश्चित किया जाए। लेकिन क्या यह निर्देश न्याय मांगने वाले के लिए पर्याप्त
होगा? हिंदी को व्यवहार में लाने की सरकारी अपील आपने रेलवे
स्टेशनों और अन्य सरकारी कार्यालयों में पढ़ी होगी, लेकिन
विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के 65 साल बाद
भी सुप्रीम कोर्ट की किसी भी कार्यवाही में हिंदी का प्रयोग पूर्णत: प्रतिबंधित
है। और यह प्रतिबंध भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है। संविधान के अनुच्छेद 148
के खंड 1 के उपखंड (क) में कहा गया है कि
सुप्रीम कोर्ट और हर हाई कोर्ट में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी।
हालांकि इसी अनुच्छेद के खंड 2 के तहत किसी राज्य का
राज्यपाल यदि चाहे तो राष्ट्रपति की पूर्व सहमति सेहाई कोर्ट में हिंदी या उस
राज्य की राजभाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है। पर ऐसी अनुमति उस हाई कोर्ट
द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं
होती। यानी हाई कोर्ट में भी भारतीय भाषाओं के सीमित प्रयोग की ही व्यवस्था है।
संविधान लागू होने के 63 वर्ष बाद भी केवल चार
राज्यों राजस्थान, यूपी, मध्य प्रदेश
और बिहार के हाई कोर्ट में किसी भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति है। सन 2002
में छत्तीसगढ़ सरकार ने हिंदी और 2010 तथा 2012
में तमिलनाडु और गुजरात की सरकारों ने अपने-अपने हाई कोर्ट में तमिल
और गुजराती के प्रयोग का अधिकार देने की मांग केंद्र सरकार से की। पर इन तीनों
मामलों में उनकी मांग ठुकरा दी गई। सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी के प्रयोग की
अनिवार्यता हटाने और एक या एक से अधिक भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति देने का
अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है। इसके लिए संविधान संशोधन
ही उचित रास्ता है। संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड 1
में संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और
प्रत्येक हाई कोर्ट में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी अथवा कम से कम एक भारतीय भाषा
में होंगी।
ध्यान रहे, भारतीय संसद
में सांसदों को अंग्रेजी के अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी 22
भारतीय भाषाओं में बोलने की अनुमति है। श्रोताओं को यह विकल्प है कि
वे मूल भारतीय भाषा में व्याख्यान सुनें अथवा उसका हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद सुनें,
जो उन्हें उसी समय उपलब्ध कराया जाता है। अनुवाद की इस व्यवस्था के
तहत उत्तम अवस्था तो यह होगी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में एक या एक से
ज्यादा भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अधिकार जनता को उपलब्ध हो, परंतु इन न्यायालयों में एक भी भारतीय भाषा के प्रयोग की स्वीकार्यता न
होना हमारे शासक वर्ग द्वारा जनता के खुल्लमखुल्ला शोषण की नीति का प्रत्यक्ष
उदाहरण है। किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे वह न्यायालय
में बोल सके। परंतु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत
सिर्फ चार को छोड़कर शेष सभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में यह अधिकार अंग्रेजी न
बोल सकने वाली देश की 97 प्रतिशत जनता से छीन लिया गया है।
इनमें से कोई भी इन न्यायालयों में मुकदमा करना चाहे, या उस
पर किसी अन्य द्वारा मुकदमा दायर कर दिया जाए तो मजबूरन उसे अंग्रेजी जानने वाला
वकील रखना ही पड़ेगा, जबकि अपना मुकदमा बिना वकील के ही
लड़ने का हर नागरिक को अधिकार है। वकील रखने के बाद भी वादी या प्रतिवादी यह नहीं
समझ पाता है कि उसका वकील मुकदमा सही ढंग से लड़ रहा है या नहीं। निचली अदालतों और
जिला अदालतों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति है। हाई कोर्ट में जब कोई
मुकदमा जिला अदालत के बाद अपील के रूप में आता है तो मुकदमे से संबंधित निर्णय व
अन्य दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है। वैसे ही
बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और
राजस्थान हाई कोर्ट के बाद जब कोई मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में आता है तो भी अनुवाद
में समय और धन की बर्बादी होती है। प्रत्येक हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में एक-एक
भारतीय भाषा के प्रयोग की भी अगर अनुमति हो जाए तो हाई कोर्ट तक अनुवाद की समस्या
पूरे देश में लगभग समाप्त हो जाएगी। अहिंदी भाषी राज्यों के भारतीय भाषाओं के
माध्यम से संबद्ध मुकदमों में से जो मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में आएंगे, केवल उन्हीं में अनुवाद की आवश्यकता होगी।
अनुच्छेद 343 में कहा गया है कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी। जबकि अनुच्छेद 351 के मुताबिक संघ का यहकर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए और उसका विकास करे। अनुच्छेद 348 में संशोधन करने कीहमारी प्रार्थना एक ऐसा विषय है, जिसमें संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है। यहशासक वर्ग द्वारा आम जनता का शोषण करते रहने की मंशा का खुला प्रमाण है। यह हमारी आजादी कोनिष्प्रभावी बना रहा है।
क्या स्वाधीनता का अर्थ केवल 'यूनियन जैक' के स्थान पर 'तिरंगा झंडा' फहरा लेना है? कहने के लिए भारतविश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, परंतु जहां जनता को अपनी भाषा में न्याय पाने का हक नहीं है, वहां प्रजातंत्रकैसा? दुनिया के तमाम उन्नत देश इस बात के प्रमाण हैं कि कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा में काम करके उन्नति नहींकर सकता। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व के वही देश अग्रणी हैं, जो अपनी जनभाषा में काम करते हैं और वेदेश सबसे पीछे हैं, जो विदेशी भाषा में काम करते हैं। विदेशी भाषा में उन्हीं अविकसित देशों में काम होता है,जहां का बेईमान अभिजात वर्ग विदेशी भाषा को शोषण का हथियार बनाता है और सामाजिक-आर्थिक विकास केअवसरों में अपना पूर्ण आरक्षण बनाए रखना चाहता है